रांची/ नयी दिल्ली/ भारत ने हरित क्रांति के तहत सिंचाई के संसाधनों के विकास, फसल के उन्नत किस्मों के प्रसार, रासायनिक उर्वरकों एवं पौध संरक्षण दवाओं के इस्तेमाल से फसलों के उत्पादन में उतरोत्तर बढ़ोत्तरी तो हुई है परन्तु अन्न में जो गुणवत्ता होनी चाहिए उसका बड़े पैमाने पर ह्रास हुआ है। यही नहीं पर्यावरण पर भी इसका बुरा असर देखने को मिल रहा है। इसके अलावा भूमि की उर्वराशक्ति में गिरावट के कारण फसलों की उत्पादकता में स्थिरता अथवा गिरावट देखने को मिल रही है। यह चिंता बढ़ाने वाली बात है।
विज्ञान का उपयोग प्रकृति के साथ उचित तालमेल की बजाय उससे मुकाबला कर व्यवसायिक दृष्टिकोण से खेती की गई। आधुनिक कृषि के तहत रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग एवं जैविक खादों के नगण्य उपयोग की वजह से भूमि में मुख्य एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमीं होने से न केवल फसलों की पैदावार में गिरावट आ रही है बल्कि विभिन्न कृषि उत्पादों की गुणवत्ता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
सब्जी उत्पादन में यह समस्या गंभीर रूप धारण करती जा रही है क्योंकि इनमें फसलों की अपेक्षा रासायनिक उर्वरक तथा पौध संरक्षण और वृद्धि नियंत्रक रसायनों का बेसुमार इस्तेमाल किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप जल-वायु प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है। जहरीले रसायन आधारित खेती से उत्पादित विभिन्न सब्जियों के सेवन से मनुष्यों एवं पशुओं में जानलेवा बीमारियाँ पनपने लगी है। इन विकट परिस्थितियों में जहरयुक्त रसायन आधारित खेती को त्याग कर जहरमुक्त जैविक खेती अपनाकर न केवल मृदा-स्वास्थ्य एवं पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या को कम किया जा सकता है बल्कि मनुष्य को स्वादिष्ट और जहर मुक्त सब्जी मुहैया कराकर देश की पोषण सुरक्षा भी सुनिश्चित की जा सकती है। विश्व व्यापार संधि के चलते अन्तराष्ट्रीय खुली प्रतिस्पर्धा में वही खेती टिक पायेगी जो कम लागत व सर्वोत्तम गुणवत्ता वाली होगी । स्वाद और सेहत के लिए सर्वोत्तम जैविक सब्जियों के प्रति उपभोक्ताओं में बढ़ते रुझान के कारण बाजार में इन सब्जियों के बेहतर दाम मिलने की वजह से किसानों के लिए सब्जियों की खेती मुनाफे का सौदा साबित हो रही है।
वास्तव में जैविक खेती वही है जो कि हमारी मिट्विटी और जलवायु के अनुसार हो और हमारे पास उपलब्कध संसाधनों द्वारा संपन्न हो तथा जिसमें सभी प्राकृतिक आदानों का संतुलित सदुपयोग हो ताकि वे लम्बे समय तक उपलब्ध हो सकें। खेती फसल उत्पादन की वह पद्धति है जिसमें खेती रासायनिक उत्पादों जैसे रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, फफूंदनाशी,शाकनाशी, वृद्धि नियामक आदि का प्रयोग न करके जैविक पदार्थो जैसे जैविक खाद, जैव उर्वरक, हरी खाद, जैविक कीट नाशक एवं फसल-चक्र परिवर्तन आदि के प्रयोग पर निर्भर करती है। प्रकृति आधारित इस पद्धति का मुख्य उद्देश्य मृदा, पौधों, पशुओं एवं मनुष्य के स्वास्थ्य के अनुकूल फसल उत्पादन करना है। इस प्रकार से जैविक खेती की मूल भावना विज्ञान द्वारा खोजे गए प्रकृति के रहस्यों व वरदानों का कृषि क्षेत्र में उचित उपयोग कर उत्पादन के उचित स्तर को प्राप्त करना है।
जैविक खेती कृषि की वह विधि है जो संश्लेषित उर्वरकों एवं संश्लेषित कीटनाशकों के अप्रयोग या न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है तथा जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिये फसल चक्र, हरी खाद, कम्पोस्ट आदि का प्रयोग करती है। सन् 1990 के बाद से विश्व में जैविक उत्पादों का बाजार काफी बढ़ा है। जैविक खेती अपनाने के लिए किसान को तीन चरणों यथा जैविक परिवर्तन, जैविक कृषि प्रबंधन एवं प्रमाणीकरण प्रक्रिया का अनुपालन करना होता है।
जैविक खेती प्रारम्भ करने के समय से लेकर वास्तविक जैविक फसल उत्पादन के बीच के समय को परिवर्तन अवधि कहते है। यह अवधि एक वर्ष से लेकर तीन वर्ष तक की हो सकती है। वार्षिक फसलों के लिए परिवर्तन अवधि एक वर्ष एवं लंबी अवधि वाली फसलों तथा बागवानी पौधों के लिए दो से तीन वर्ष की होती है। सफल जैविक परिवर्तन हेतु अधोलिखित बिन्दुओं को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है।
प्रमाणीकृत जैविक खेती करने के लिए जैविक खेती के विभिन्न घटकों में प्रयुक्त होने वाले सभी उपादानों का उपयोग जैविक नियमों के अनुसार ही होना चाहिए। जैविक खेती के प्रमुख घटक मृदा उर्वरता प्रबंधन है। जैविक खेती में पोषक तत्वों की आपूर्ति एवं भूमि की उर्वराशक्ति को बनाये रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर विभिन्न प्रकार की जैविक खादों यथा गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद, वर्मीकम्पोस्ट के अलावा हरी खाद तथा जैव उर्वरकों जैसे राइजोबियम, एजोटोबैक्टर, एजोस्पिरिलिम, फॉस्फोरस घोलक जीवाणु आदि का प्रयोग किया जाता है। उपयुक्त फसल चक्र एवं बहुफसली प्रणाली भी मृदा को स्वस्थ एवं उर्वर बनाये रखने के सहायक होती है। फसलों के अवशेष, पशु-अवशेष जैसे गौमूत्र, बिछावन, हड्डी का चूरा, मछली खाद, विभिन्न प्रकार की खलियों आदि का प्रयोग किया जाता है। जैविक खाद, हरी खाद एवं जैविक उर्वरकों के अलावा जैविक खेती में किसान स्वयं निम्न विशेष जैविक तरल खाद तैयार कर खेती को लाभकारी बना सकते है ।
मिट्टी के उपचार के लिए संजीवक का उपयोग किया जाता है। संजीवक बनाने के लिए 100 किग्रा गाय के गोबर ़ 100 लीटर गो-मूत्र ़ 500 ग्राम गुड़ को 300 लीटर पानी में 10 दिन तक सड़ाया जाता है। इसके बाद इसमें 20 गुना पानी मिलाकर एक एकड़ भूमि में छिडक देने से मिट्टी की गुणवत्ता बेहतर हो जाती है।
इसी प्रकार जीवामृत बना कर भी मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाई जाती है। इसे बनाने के लिए 10 किग्रा गाय का गोबर, 10 लीटर गो-मूत्र,़ 2 किग्रा गुड़, ़ 2 किग्रा किसी डाल का आटा, 1 किग्रा जिवंत मिट्टी को 200 लीटर पानी में मिलाकर 7-8 दिन तक सड़ने दिया जाता है। इस मिश्रण को नियमित रूप से दिन में 3-4 बार हिलाते रहते है। एक एकड़ खेत में सिंचाई जल के साथ जीवामृत का प्रयोग किया जा सकता है।
पंचगव्य का उपयोग कर भी मिट्टी की गुणवत्ता को ठीक किया जा सकता है। पंचगव्य बनाने के लिए गाय के गोबर का घोल 4 किग्रा, गाय का गोबर 1 किग्रा,़ गो-मूत्र 3 लीटर,़ गाय का दूध 3 लीटर,़ छाछ 2 लीटर,़ गाय का घी 1 किग्रा को मिलाकर 7 दिन तक सड़ने दिया जाता है। प्रतिदिन इस मिश्रण को 2 बार हिलाते है। तीन लीटर पंचगव्य को 100 लीटर पानी में मिलाकर मृदा पर छिड़काव करते है अथवा 20 लीटर पंचगव्य को सिंचाई जल के साथ एक एकड़ खेत में प्रयोग किया जा सकता है।
जैविक खेती के लिए चयनित फसलें एवं प्रजातियाँ स्थानीय पर्यावरणीय दशाओं के अनुकूल और कीट-रोग अवरोधी होनी चाहिए। सभी चयनित फसलों के बीज प्रमाणित जैविक कृषि उत्पाद होने चाहिए। यदि प्रमाणित जैविक बीज उपलब्ध न हो तो बिना रासायनिक उपचार के उत्पादित अन्य बीज भी प्रयोग किये जा सकते है। जैविक खेती में परिवर्तित आनुवांशिकी वाले बीजों तथा ट्रान्सजेनिक पौधों का प्रयोग नहीं करना है।
सब्जियों की जैविक खेती में खरपतवारों का समुचित प्रबंधन बेहद जरुरी है। इसके लिए रासायनिक खरपतवार नाशियों के स्थान पर यांत्रिक एवं सस्य क्रियाओं जैसे ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई, भूमि का सौर्यीकरण, निराई-गुड़ाई, उचित फसल चक्र, प्लास्टिक एवं जैविक पलवार (मल्च) का प्रयोग,उचित सिंचाई प्रबंधन आदि विधियों का परिस्थिति के अनुसार प्रयोग करके सब्जियों को खरपतवारों से मुक्त रखा जा सकता है।
जैविक खेती के तहत फसलों को अदल-बदल कर बोना चाहिए जैसे खाद्यान्न फसलों के बाद दलहनी फसलें, अधिक खाद पानी चाहने वाली फसलों के बाद कम कम खाद-पानी चाहने वाली फसलें आदि । इससे खेत की उर्वराशक्ति कायम रहती है तथा फसलों में कीट-रोगों का प्रकोप कम होता है।
जैविक सब्जी उत्पादन में रासायनिक कीटनाशकों,फफूंदनाशकों एवं वृद्धि नियामकों का प्रयोग नहीं करना है। इसके स्थान पर सस्य-विधि, यांत्रिक विधि, जैविक विधि तथा अनुमत जैव रसायनों अथवा वानस्पतिक उत्पादों का प्रयोग करना है। जैविक कीट-रोग प्रबंधन हेतु निम्न उपाय कारगर होते है –
प्रतिरोधी फसल प्रजातियों का चयन एवं कीट-रोग रहित बीजों का प्रयोग सबसे अच्छे बचाव का उपाय है। प्रभावी फसल चक्र, बहु-फसली प्रणाली, ट्रैप फसल के प्रयोग तथा कीटों के प्राकृतिक वास में बदलाव से नाशी जीवों को नियंत्रित किया जा सकता है।
यांत्रिक विकल्प के अन्तर्गत रोगी एवं रोग ग्रस्त भाग को अलग करना, कीटों के अण्डों एवं लार्वों को एकत्र करके नष्ट करना, खेतों में चिड़ियों के बैठने के स्थान की उचित व्यवस्था करना, प्रकाश प्रपंच लगाना, फेरोमों ट्रैप अथवा रंगीन चिपचिपी पट्टी आदि का उपयोग कीट-रोग नियंत्रण के प्रभावी उपाय है।
जैविक विकल्प में नाशी जीवों का भक्षण करने वाले मित्र जीव-जंतुओं जैसे ट्राईकोग्रामा (40-50 हजार अंडे प्रति हेक्ट्रे) चेलोनस बरनी (15 से 20 हजार अंडे प्रति हेक्टेयर) अथवा क्राईसोपरला के 5 हजार अंडे प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करके नाशी जीवों का नियंत्रण किया जा सकता है।
ट्राईकोडर्मा विरिडी या ट्राईकोडर्मा हार्जिएनम या स्यूडोमोनास फ्लूरिसेंस का 4-6 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से अकेले अथवा संयुक्त रूप से उपचार अधिकांश बीज व मृदा जनित रोगों के नियंत्रण में प्रभावी पाया गया है। ट्राईकोडर्मा से कपास, दलहनी व तिलहनी फसलों तथा सब्जी व बागवानी फसलों में उपचार किया जा सकता है. इसी प्रकार बवेरिया बासियाना, मेटाराइजियम एनिसोप्लियाई आदि से विशेष नाशीजीव समुदाय का प्रबंधन किया जा सकता है।बैसिलस थुर्रीजिएन्सिस (बी.टी.) नामक बैक्टेरिया का प्रयोग पत्तागोभी में लगने वाले हीरक पृष्ठ कीट के नियंत्रण में प्रभावी पाया गया है.
बहुत से वृक्ष एवं पौधों की पत्तियों जैसे नीम,धतूरा, बेशरम आदि अथवा बीजों के अर्क का उपयोग नाशिजिवों के नियंत्रण में किया जा सकता है। नीम अर्क एवं तेल विभिन्न प्रकार के कीटों जैसे ग्रासहॉपर, लीफ हॉपर, एफिड, जैसिड, इल्ली आदि के नियंत्रण में प्रभावी रहता है। एक लीटर गो-मूत्र को 20 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर छिडकाव करने से अनेक कीट-रोगों के नियंत्रण के साथ-साथ पौध वृद्धि पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।
जैविक खेती के प्रमाणीकरण हेतु विश्व स्तर पर एक प्रक्रिया बनाई गई है जिसे प्रमाणीकरण (सर्टिफिकेशन) कहते है। इसके कई नियम- विधान बनाये गए है जिनके आधार पर प्रमाणीकरण संस्था यह प्रमाण पत्र देती है कि अमुक किसान का खेत या किसान समूह के खेतों में उसके द्वारा उगाई गई फसल या उत्पाद 100 प्रतिशत जैविक विधि से तैयार किया गया है। प्रमाणीकरण में जैविक कृषि उत्पादन का नहीं बल्कि कृषि उत्पादन पद्धति का प्रमाणीकरण करवाना होता है। प्रमाणीकरण संस्था द्वारा खेत का इतिहास यानि उसमें पूर्व में क्या फसल ली गयी है, कितना उर्वरक व कीटनाशक उपयोग किया गया है, तथा अन्य सभी जानकारी जो उत्पादन को प्रभावित करती है, को इकट्ठा किया जाता है। इसके बाद मिट्टी व पानी की गहन जांच करने के पश्चात किसान को क्या-क्या कार्य करने है और क्या नहीं करना है के बारे में निर्देश दिए जाते है। मोटे तौर पर जैविक प्रमाणीकरण के लिए निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखना आवश्यक है।
इस प्रकार से हम कह सकते है कि जैविक पद्धति से उगाये गये भोज्य पदार्थों मसलन खाद्यान्न तेल,फल-फूल-सब्जी, दूध आदि की आवश्यकता आज किसान से लेकर आम उपभोक्ता महसूस कर रहे है। जैविक खेती और जैविक उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा अनेक कृषि और किसान हितैषी योजनायें संचालित की जा रही है जिनमें आकर्षक अनुदान का भी प्रावधान है ताकि किसानों को प्रोत्साहन मिल सकें। अतः प्रकृति आधारित पर्यावरण हितेषी जैविक खेती कर किसान आत्म निर्भरता की ओर अग्रसर होकर देशवाशियों को जहर मुक्त खाद्यान्न, फल-फूल और सब्जियां उपलब्ध कर स्वस्थ और संपन्न राष्ट्र बनने की राह आसान कर सकते है।