तीसरी कसम के महुआ घटवारिन का आखिर अंत कैसे हुआ?

तीसरी कसम के महुआ घटवारिन का आखिर अंत कैसे हुआ?

हीरामन एक गाड़ीवान है। फ़िल्म की शुरुआत एक ऐसे दृश्य से होती है जिसमें वो अपना बैलगाड़ी हाँक रहा है और बहुत खुश है। उसकी गाड़ी में सर्कस कंपनी में काम करने वाली हीराबाई बैठी है। हीरामन कई कहानियां सुनाते और लीक से अलग ले जाकर हीराबाई को कई लोकगीत सुनाते हुए सर्कस के आयोजन स्थल तक पहुँचा देता है। इस बीच उसे अपने पुराने दिन याद आते हैं और लोककथाओं और लोकगीत से भरा यह अंश फिल्म के आधे से अधिक भाग में है। 

इस फ़िल्म का संगीत शंकर जयकिशन ने दिया है। हीरामन अपने पुराने दिनों को याद करता है जिसमें एक बार नेपाल की सीमा के पार तस्करी करने के कारण उसे अपने बैलों को छुड़ा कर भगाना पड़ा था। इसके बाद उसने कसम खाई कि अब से चोरबजारी का सामान कभी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। उसके बाद एक बार बांस की लदनी से परेशान होकर उसने प्रण लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए वो बांस की लदनी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। 

हीराबाई नायक हीरामन की सादगी से इतनी प्रभावित होती है कि वो मन ही मन उससे प्रीति कर बैठती है। उसके साथ मेले तक आने का 30 घंटे का सफर कैसे पूरा हो जाता है उसे पता ही नहीं चलता। हीराबाई, हीरामन को उसके नृत्य का कार्यक्रम देखने के लिए पास देती है। जहां हीरामन अपने दोस्तों के साथ पहुंचता है लेकिन वहां उपस्थित लोगों द्वारा हीराबाई के लिए अपशब्द कहे जाने से उसे बड़ा गुस्सा आता है। वो उनसे झगड़ा कर बैठता है और हीराबाई से कहता है कि वो ये नौटंकी का काम छोड़ दे। उसके ऐसा करने पर हीराबाई पहले तो गुस्सा करती है लेकिन हीरामन के मन में उसके लिए प्रेम और सम्मान देख कर वो उसके और करीब आ जाती है। इसी बीच गांव का जमींदार हीराबाई को बुरी नजर से देखते हुए उसके साथ जबरदस्ती करने का प्रयास करता है और उसे पैसे का लालच भी देता है। नौटंकी कंपनी के लोग और हीराबाई के रिश्तेदार उसे समझाते हैं कि वो हीरामन का ख्याल अपने दिमाग से निकाल दे, नहीं तो जमींदार उसकी हत्या भी करवा सकता है और यही सोच कर हीराबाई गांव छोड़ कर हीरामन से अलग हो जाती है। 

फिल्म के आखिरी हिस्से में रेलवे स्टेशन का दृश्य है जहां हीराबाई, हीरामन के प्रति अपने प्रेम को अपने आंसुओं में छुपाती हुई उसके पैसे उसे लौटा देती है, जो हीरामन ने मेले में खो जाने के भय से उसे दिए थे। उसके चले जाने के बाद हीरामन वापस अपनी गाड़ी में आकर बैठता है और जैसे ही बैलों को हांकने की कोशिश करता है तो उसे हीराबाई के शब्द याद आते हैं, मारो नहीं और वह फिर उसे याद कर मायूस हो जाता है।

अन्त में हीराबाई के चले जाने और उसके मन में हीराबाई के लिए उपजी भावना के प्रति हीराबाई के बेमतलब रहकर विदा लेने के बाद उदास मन से वो अपने बैलों को झिड़की देते हुए तीसरी क़सम खाता है कि अपनी गाड़ी में वो कभी किसी नाचने वाली को नहीं ले जाएगा। इसके साथ ही फ़िल्म खत्म हो जाती है।

‘‘इस्स! महुआ घटवारिन? वह बोला, अच्छा, जब आपको इतना सौक है तो सुनिए महुआ घटवारिन का गीत। इसमें गीत भी है, कथा भी है। सुनिए! आज भी परमार नदी में महुआ घटवारिन के कई पुराने घाट हैं। इसी मुलुक की थी महुआ। थी तो घटवारिन लेकिन सौ सतवंती में एक थी। उसका बाप दारू-ताड़ी पी कर दिन-रात बेहोश पड़ा रहता। उसकी सौतेली मां साच्छात राकसनी। बहुत बड़ी नजर-चालक. रात में गांजा-दारू-अफीम चुरा कर बेचनेवाले से ले कर तरह-तरह के लोगों से उसकी जान-पहचान थी। सबसे घुट्टा-भर हेल-मेल। महुआ कुमारी थी लेकिन काम कराते-कराते उसकी हड्डी निकाल दी थी राकसनी ने। जवान हो गई, कहीं शादी-ब्याह की बात भी नहीं चलाई। एक रात की बात सुनिए!

हिरामन ने धीरे-धीरे गुनगुना कर गला साफ़ किया।

‘हे अ-अ-अ- सावना-भादवा के – र- उमड़ल नदिया -गे-में-मैं-यो-ओ-ओ,

मैयो गे रैनि भयावनि-हे-ए-ए-ए;

तड़का-तड़के-धड़के करेज-आ-आ मोरा

कि हमहूं जे बार-नान्ही रे-ए-ए …’

ओ मां! सावन-भादों की उमड़ी हुई नदी, भयावनी रात, बिजली कड़कती है, मैं बारी-क्वारी नन्ही बच्ची, मेरा कलेजा धड़कता है। अकेली कैसे जाऊं घाट पर? सो भी परदेसी राही-बटोही के पैर में तेल लगाने के लिए! सत-मां ने अपनी बज्जर-किवाड़ी बंद कर ली। आसमान में मेघ हड़बड़ा उठे और हरहरा कर बरसा होने लगी। महुआ रोने लगी, अपनी मां को याद करके। आज उसकी मां रहती तो ऐसे दुरदिन में कलेजे से सटा कर रखती अपनी महुआ बेटी को। गे मइया, इसी दिन के लिए, यही दिखाने के लिए तुमने कोख में रखा था? महुआ अपनी मां पर गुस्साई -क्यों वह अकेली मर गई, जी-भर कर कोसती हुई बोली। हीरामन फिर गाना चालू किया,

‘हूं-ऊं-ऊं-रे डाइनियां मैयो मोरी-ई-ई,

नोनवा चटाई काहे नाहिं मारलि सौरी-घर-अ-अ.

एहि दिनवां खातिर छिनरो धिया

तेंहु पोसलि कि नेनू-दूध उगटन …

हिरामन ने दम लेते हुए पूछा, भाखा भी समझती हैं कुछ या खाली गीत ही सुनती हैं?’

हीरा बोली, समझती हूं. उगटन माने उबटन -जो देह में लगाते हैं।

हिरामन ने विस्मित हो कर कहा, इस्स!’

…सो रोने-धोने से क्या होए! सौदागर ने पूरा दाम चुका दिया था महुआ का। बाल पकड़ कर घसीटता हुआ नाव पर चढ़ा और मांझी को हुकुम दिया, नाव खोलो, पाल बांधो! पालवाली नाव परवाली चिड़िया की तरह उड़ चली। रात-भर महुआ रोती-छटपटाती रही। सौदागर के नौकरों ने बहुत डराया-धमकाया -चुप रहो, नहीं तो उठा कर पानी में फेंक देंगे। बस, महुआ को बात सूझ गई। भोर का तारा मेघ की आड़ से जरा बाहर आया, फिर छिप गया। इधर महुआ भी छपाक से कूद पड़ी पानी में। …सौदागर का एक नौकर महुआ को देखते ही मोहित हो गया था। महुआ की पीठ पर वह भी कूदा। उलटी धारा में तैरना खेल नहीं, सो भी भरी भादों की नदी में। महुआ असल घटवारिन की बेटी थी। मछली भी भला थकती है पानी में! सफरी मछली-जैसी फरफराती, पानी चीरती भागी चली जा रही है और उसके पीछे सौदागर का नौकर पुकार-पुकार कर कहता है, महुआ जरा थमो, तुमको पकड़ने नहीं आ रहा, तुम्हारा साथी हूं। जिंदगी-भर साथ रहेंगे हम लोग लेकिन…

हिरामन का बहुत प्रिय गीत है यह। महुआ घटवारिन गाते समय उसके सामने सावन-भादों की नदी उमड़ने लगती है, अमावस्या की रात और घने बादलों में रह-रह कर बिजली चमक उठती है। उसी चमक में लहरों से लड़ती हुई बारी-कुमारी महुआ की झलक उसे मिल जाती है। सफरी मछली की चाल और तेज हो जाती है। उसको लगता है, वह खुद सौदागर का नौकर है। महुआ कोई बात नहीं सुनती। परतीत करती नहीं। उलट कर देखती भी नहीं. और वह थक गया है, तैरते-तैरते.

इस बार लगता है महुआ ने अपने को पकड़ा दिया। खुद ही पकड़ में आ गई है। उसने महुआ को छू लिया है, पा लिया है, उसकी थकन दूर हो गई है। पंद्रह-बीस साल तक उमड़ी हुई नदी की उलटी धारा में तैरते हुए उसके मन को किनारा मिल गया है।’’

महुआ घटवारिन, जिसका अंत कोसी नदी में डूबने से होता है। इसी के साथ महुआ की कथा का भी अंत हो जाता है। महुआ की सौतेली मां उसे एक सौदागर के हाथ बेच देती है लेकिन महुआ उस सौदागर के साथ नहीं जाती। वह तो कोसी की कोख से निकली थी और जब उसके मन का जीवन साथ नहीं मिला तो कोसी की कोख में ही समा गयी। महुआ का रूप; चमकते हीरे जैसे था। छड़हरी दुबली-पतली देह और बड़ी-बड़ी दमकती आँखे, कमर तक लहराते घने केश। कोसी नदी में बाढ़ की तरह मानों उसपर यौवन सवार हो। 

कोसी की कछार पर बसा उसका गाँव शहर जाने के रास्ते में आखिरी पड़ाव पर था। शहर जाने के लिए कोसी पार करनी ही पड़ती थी और घटवारों का दल उसी काम में लगा रहता। उसी घटवार समाज से महुआ आती थी। आस-पड़ोस के पचासों गाँव उसी होकर शहर जाते थे। कोसी घटवारों के लिए केवल नदी नहीं थी वो उनकी जीवछ माय थी जो उनका जीवन चला रही थी। सुबह अंधेरे से ये लोग घाट पहुँच जाते और शाम तक यानी दीया-बाती तक घटवारी करते रहते। 

सूरज उगने से भी एक पहर पहले महुआ की सौतेली माँ उसे उठा देती। महुआ एक आवाज पर ही उठ जाया करती थी। बचपन में जब उसकी नींद नहीं खुलती थी तो दूसरी आवाज़ देते देते माँ उसकी खाट के पास आ जाती और फिर मां की थपड़ से ही उसकी निंद खुलती थी। रोज़ की पिटाई और गन्दी गालियाँ उसकी आदत-सी हो गयी थी। प्यार-दुलार सौतेले भाई-बहनों के हिस्से। अपनी छोटी-छोटी हथेलियों से अपनी आँखे रगड़कर आँसू पोंछ लेती और जुट जाती काम-काज में। चूल्हा लीपने से लेकर माल-जाल के गोबर उठाने तक सब उसी के जिम्मे था। सौतेली माँ आराम से सोती रहती। अपने बच्चों को सौतेली माँ खूब दुलार करती तो उसका मन होता कि उसे भी एक बार गले लगा लें माँ। कभी-कभी जब मन बहुत दुखी हो जाता तो दालान पर बंधी गाय के पास बैठकर खूब रो लेती और गाय उसे चाटती रहती। 

कोसी नदी की धार उसे माँ की गोद जैसी लगती। इसलिए जब भी उसे फुरसत मिलती वह नदी में छलांग लगा देती और तैरती रहती थी। धारा के विपरी तैरना उसे बेहद पसंद था। बचपन में इस कारण वह बहुत मार भी खाती थी लेकिन जब नाव चलाना सीख गई और बाप के बीमार पड़ने पर उसने नाव खेना शुरू किया तो माँ को ऐतराज़ न रहा। महुआ की पहाच भी बढ़ने लगी थी। समय बीता जा रहा था, महुआ पन्द्रह साल की हो गयी। उसकी कई हमउम्र सहेलियों नें ब्याह कर ली तो कई गौने के इंतज़ार में बैठी थी। एक वही रह गयी थी जिसके ब्याह की चिंता किसी को न थी। सौतेली माँ को अपनी बेटी की शादी की चिंता थी जो महुआ से तीन बरस छोटी थी। अब तो लोग गाहे-बगाहे टोकने भी लगे थे। 

माँ ऐसी मुफ़्त की नौकरानी को जाने नहीं देना चाहती थी। फिर एक दिन गांव में लोग काना-फुसकी करने लगे कि महुआ की शादी एक बूढ़े आदमी से तय कर दी गयी है। कुछ लोगों ने यह भी सुना कि बूढ़ा आदमी बड़ा व्यापारी है। सौतेली मां लोगों को कहते फिर रही थी कि महुआ का होने वाला पती बड़ा धनी है, महुआ सुखी रहेगी लेकिन वास्तविकता यह थी कि उसकी सौतेली मां ने महुआ को सौदागर के हाथों बेच दी थी। इस बात की जानकारी जब महुआ को लगी तो वह बहुत दुखी हुई। महुआ मेघ समेटे बादलों की तरह भरी रहती लेकिन कुछ नहीं बोलती। जिन लड़कियों की माँ उनके जन्मते ही मर जाएँ उनका भगवान भी नहीं होता। शादी अगहन में तय हो गयी थी। महुआ रोज़ दिन गिनती और अपने भविष्य के बारे में सोच कर कांप उठती। गाँव की एक दो स्त्रियों और भले लोगों ने उसकी माँ को समझाने का प्रयास किया लेकिन लालच ने उसे अँधा कर दिया था।

एक दिन सुबह से ही मौसम बहुत खराब था, खूब पानी बरस रहा था, कोसी में भयंकर उफान आया हुआ था, लोग सहमकर अपने-अपने घरों में बैठे थे। महुआ घाट आयी और उसने नाव खोल ली। कोसी की धार में भयंकर भँवरे पड़ रही थी। तिरहुत की तीन बड़ी नदियों में भवर भी बड़ा खतरनाक होता है। उसमें भी कोशी का भवर की तो बात और है। जो उसमें पड़ा मानों उसकी जान बचना कठिन। कल कल छल छल करती कोशी की धार पर मानों महुआ की नाव सरपट दौर रहा हो। देखते ही देखते महुआ उस पर चली गयी। 

घाट पार आकर उसने देखा कि एक नौजवान सामान की गठरियों के साथ खड़ा पानी से भीग रहा है। उसने पूछा; पार उतरना है? उस राही ने कहा हां। पार उतारने के क्रम में उस नौजवान को महुआ अपना दिल दे बैठी। नौजवान भी उसे पसंद करने लगा। फिर महुआ ने अपनी सारी बात बता दी। नौजवान ने भी तय कर लिया कि अब उसकी शादी यदि होगी तो महुआ के साथ ही। कोसी के उस छोर से इस छोर तक आते-आते महुआ को जीवन की सबसे अमूल्य निधि मिल गयी थी। युवक ने उसके घर जाकर उसकी माँ से बात की। सौतेली माँ की आँखे डाह से जल उठी। इस अभागी के ऐसे भाग। ऐसे सुदर्शन से तो वे अपनी बेटी का विवाह कराना चाहती थीं। उन्होंने कहा कि वे तो किसी और से पैसे ले चुकी है। युवक ने उनसे वादा किया कि वह कातिक की पुर्णिमा  तक लौट आएगा और उनके पैसे चुका देगा और महुआ को ले जायेगा।

महुआ अब खुश रहती, हँसती-गुनगुनाती। एक-एक दिन उसे बहुत लंबा लगता। कातिक का महीना आ गया। कातिक की सुबह ओस से भरी होती है। उस दिन महुआ बहुत सुंदर लग रही थी। उसके चेहरे पर एक स्निग्धता-सी छायी थी। गाँव की कुछ औरतें उसे खूब आशीष दीं। बिन माँ की उस बेटी पर सबका स्नेह साफ झलक रहा था। दुखी यदि कोई थी तो उसकी सौतेली मां। पूर्णिमा में चार दिन बाकी थे, महुआ का मन बहुत बेचौन रहता था। कभी-कभी अनहोनी की आशंका उसे डरा देती थी। उसके देह से सरसों-दूब के उबटन की गंध आती थी अब। रोज़ शाम की उसकी सहेलियाँ गीत गाने बैठ जाती थी।

पूर्णिमा के दिन सुबह में ही वह उठ गई थी। उसके मन में बहुत ख़ुशी के बीच एक अज्ञात डर भी आ रहा था। दिन से शाम हुई। विवाह का सब इंतज़ाम हो गया था। पीली साड़ी पहने महुआ सरसों के फूल की-सी लग रही थी। नौजवान जो महुआ की मां को बचन दे कर गया था वह नहीं लौटा। महुआ का मन कर रहा था कि वह घाट तक जाकर देख आये। सब कहने लगे काजल लगने के बाद दुल्हन घर से नहीं निकलती, अपशगुन होता है लेकिन महुआ को कहां इस बात की सुध। 

वह घर से निकल पड़ी। मगनिया गाछ, ठाकुरबाड़ी, खेत और गाँव की चौहद्दी को पारकर वह घाट पहुँच गयी। चंद्रमा की रौशनी में कोसी का पानी चमक रहा था। महुआ गदराए हुए आम के पेड़ के नीचे बैठक गयी। नौजवान का महुआ इंतज़ार करती रही। रात का एक पहर बीता। चुचुहिया चहकी। फिर चुचुहिया चहकी और दूसरा पहर बीत गया। इसके बाद तीसरा पहर भी बीता लेकिन नौजवान नहीं आया। महुआ एक टक कोसी मइया को निहारती रही। वह सोचने लगी कि अब थोड़े ही देर में शुक्र तारा यानी भुरूकवा उग जाएगा। और फिर सुबह। इसके बाद उसका क्या होगा। महुआ एकटक कोसी के उसपार देखती रही। उधर सूरज निकलने में एक पहर बांकी ही था कि महुआ उठी और कोसी मइया के आगोश में समा गयी। आज भी लोग आश्चर्य करते हैं कि महुआ जैसी तेज तैराक कोसी में आखिर डूब कैसे गयी? 

सूर्योदय के साथ गांव के लोग घट पर आने लगे। नौजवान घटवारों की टोली ने दूर कोसी के जल पर कुछ तैरते देखा। जब उसे निकाला गया तो वह महुआ घटवारिन की लाश थी। देवी की तरह उसका चेहरा चमक रहा था। घटवारों ने महुआ की लाश को घाट पर ही लिटा दिया। गाँव भर के लोग घाट पर इकट्ठे हो गए थे। जितने मुंह उतनी बात। किसी ने कुछ कहा किसी ने कुछ लेकिन एक घटवारिन ने कहा कोसी की बेटी थी कोसी मइया ने अपनी गोद में महुआ को स्थान दे दिया। लोग कहते हैं कि कातिक पूर्णिमा के दिन कोसी के घाट पर आज भी महुआ को कुछ लोग टहलते देखते हैं। कुछ लोगों को आज भी कोसी के घाटों पर उसकी आवाज़ सुनाई पड़ती है।

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