भाजपा का डर दिखा कबतक मुसलमानों का शोषण करती रहेगी सेक्युलर पार्टियां?

भाजपा का डर दिखा कबतक मुसलमानों का शोषण करती रहेगी सेक्युलर पार्टियां?

चुनावी मौसम में इंडिया गठबंधन, खासकर, कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा से झारखंड में मुसलमान खासे चिढे हुए दिख रहे हैं। मुस्लिम नेता और बुद्धिजीवियों के एक समूह का दावा है कि इंडिया गठबंधन से जुड़ी पार्टी मुसलमानों को भारतीय जनता पार्टी का डर दिखा कर वोट बटोरना चाह रही है। उनका यह भी मानना है कि यह बहुत दिनों तक नहीं चलने वाला है। जाकार सूत्रों का दावा है कि कुछ मुस्लिम नेता भाजपा के वरिष्ट नेताओं के संपर्क में हैं और इस बार के चुनाव में वे अपने-अपने स्तर पर भाजपा के उम्मीदवारों को मदद भी कर रहे हैं। हालांकि किसी ने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा नहीं की है लेकिन अंदरखाने खल बड़ा हो रहा है। यदि ऐसा हुआ तो फिर झारखंड ही नहीं बिहार की चुनावी फिजाओं में केसरिया और भगवा प्रभावशाली होकर उभरेगा। झारखंड के उलेमा ए मजलिस के वरिष्ट धर्मगुरु और पथलखुदवा मस्जिद के इमाम मुफ्ती अब्दुल्ला अजहर कासमी ने अभी हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो जारी करते हुए कहा कि झारखंड में हमारा वोट प्रतिशत 17 के करीब है लेकिन लोकसभा चुनाव में न तो हमें कांग्रेस ने टिकट दिया और न ही झारखंड मुक्ति मोर्चा को हमारी चिंता है। उन्होंने यह भी कहा कि झारखंड में ईसाई समुदाय का वोट प्रतिशत पांच से ज्यादा नहीं होगा बावजूद इसके उन्हें अहमियत दी जा रही है। यह मुसलमानों के साथ अन्याय है। 

बता दें कि झारखंड में देश में हो रहे लोकसभा चुनाव में जहां एक ओर एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिल रही है, वहीं इंडिया गठबन्धन की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के अंदर रसा कशी जारी है। विशेष रूप से झारखंड में, कांग्रेस द्वारा मुस्लिम भागीदारी की उपेक्षा से मुसलमानों में गहरी नाराजगी पैदा हुई है, जो राज्य में आबादी का 16-17 प्रतिशत माने जाने वाले मुसलमानों मे सख्त नाराजगी देखने को मिल रही है।  इसे लेकर कांग्रेस के बड़े मुस्लिम नेता भी नाराज दिख रहे हैं। पूर्व सांसद और सिनीयर नेता फुरकान अंसारी तक भी यह कहने को मजबूर हैं कि मुसलमानों को भाजपा का खौफ दिखा कर एक मुद्दत तक कांग्रेस और दुसरी सेकुलर पार्टियां, मुसलमानों का वोट हासिल करती रही हैं, लेकिन मोदी के इस 10 साल के शासनकाल में मुसलमानों ने देख लिया है कि बीजेपी और आरएसएस ने मुसलमानों के खिलाफ जो कुछ भी कर सकती थी, कर लिया है और कथित रूप से हमारी रक्षा करने वाली पार्टियां तमाशा देखती रही। अंसारी ने सवाल खड़ा करते हुए कहा है कि अब मुसलमानों के लिए कौन सा हद बाकी रह गया है। 

मुस्लिम नेता यहां तक कहने को मजबूर हैं कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी खुद हार के डर से उत्तर प्रदेश छोड़कर केरल की सिट पर जा कर चुनाव लड़ रहे हैं, जहां 98 फीसदी आबादी मुस्लिम और ईसाइयों की है, फिर कांग्रेस पार्टी हार और बीजेपी के डर से मुसलमानों को उम्मीदवार बनाने से क्यों कतरा रही है। फुरकान अंसारी यह कहने से भी नहीं चूकते कि राहुल गांधी खुद दावा करते फिर रहे हैं कि जिस की जितनी आबादी उस की उतनी भागीदारी, तब फिर यह भागीदारी चुनाव में टिकट बटवाड़े में कहां दिख रही है। फुरमान ने कहा कि इस से तो राहुल गांधी की घोषणाओं पर भरोसा करना नामुमकिन होता जा रहा है, उनके तमाम दावे और वादे महत्व खोते जा रहे हैं। उनका यह भी कहना है कि मुसलमान न तो मजबूर हैं और न ही किसी से डरता है। क्षेत्रीय पार्टियों की हसरत में मुसलमानों के पास विकल्प भी मौजूद है और पिछले विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने दिखा दिया कि वह आदिवासियों के साथ मिलकर मजबूत विकल्प तैयार कर सकते हैं।

फुरमान झारखंड के अकेले ऐसे मुस्लिम नेता नहीं हैं, जो इस मुद्दे पर कांग्रेस की आलोचना कर रहे हैं। कुछ और नेताओं ने लगभग इसी प्रकार के बयान जारी किए हैं। कुछ नेताओं ने तो बीते दिन की उलगुलान रैली की भी आलोचना की है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के एक मुस्लिम नेता ने बताया कि जब से यह सरकार बनी है तब से मुसलमानों के हितों पर चोट कर रही है। उन्होंने रघुवर दास के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन सरकार की तुलना झामुमो नित गठबंधन सरकार की की। उन्होंने कहा कि रघुवर भले भाजपा के नेता हैं लेकिन उन्होंने मुसलमानों के कल्याण के लिए कई कदम उठाए। यही नहीं उन दिनों हज यात्रा की व्यवस्था थोड़ी अच्छी होती थी लेकिन अब तो कोई नोटिस ही नहीं लेता है। इस सरकार ने उर्दू शिक्षकों के लिए कुछ भी नहीं किया। उलटा उर्दू भाषा को कमजोर करने की कोशिश हो रही है। वाकफ बोर्ड की वही स्थिति है। अल्पसंख्यक आयोग नाम का हाथी है। ऐसे में हमें एक बार इन तथाकथित धर्मनिर्पेक्ष पार्टियों के बारे में सोचना पड़ेगा। ये केवल कहने के लिए हमारे हितैषी हैं। वास्तविकता तो यह है कि हमारा सभी प्रकार से शोषण हो रहा है। हमें विकल्प के तौर पर अन्य क्षेत्रीय दलों में अपनी संभावना तलाशनी होगी या फिर दुश्मन मानी जाने वाली भाजपा के साथ ही हाथ मिलाने को मजबूर होना होगा। 

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)

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