जयसिंह रावत
हमारे संसदीय लोकतंत्रा में केन्द्र और राज्यों की सरकारों का चयन पूरे पांच साल के लिए किया जाता है। चूंकि हमारी सरकारें विधायिका से ही चुनी जाती हैं और वे विधायिका के प्रति ही जवाबदेह होती हैं इसलिए उनका कार्यकाल भी पांच साल ही होना स्वाभाविक है। मगर उत्तराखण्ड जैसे कई ऐसे राज्य हैं जहां किसी सरकार के लिए पांच साल की अवधि पूरी करना लगभग नामुमकिन हो गया है। ऐसी स्थिति में जब सरकारों का अपना ही भविष्य अनिश्चित और अन्धकारमय हो तो ऐसी चलायमान, अस्थिर, भयाक्रांत सरकारों से सुशासन और प्रदेश का भविष्य संवारने की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
सरकारों की अकालमृत्यु की समस्या नई नहीं है। उत्तर प्रदेश में जगदम्बिका पाल एक दिन के लिए, कर्नाटक में येदुरप्पा 3 दिन के लिए और हरियाणा में ओमप्रकाश चैटाला पांच दिन के लिए मुख्यमंत्राी रह चुके हैं। बाजपेयी जी भी 13 दिन के लिए प्रधानमंत्राी बने थे। लेकिन गोवा, अरुणाचल, नागालैण्ड, उत्तराखण्ड और झारखण्ड जैसे छोटे राज्यों में तो सरकारें गिरना आम बात हो गई है। इन राज्यों में भी उत्तराखण्ड में तो हद ही हो गई। पिछले 20 सालों में गोवा में 8 मुख्यमंत्राी अवश्य बने मगर उनमें 3 बार मनोहर पार्रिकर ही रहे। इसी प्रकार अरुणाचल में 10 सरकारों की शपथ हुई मगर उनमें 3 बार पेमा खाण्डू और 2 बार नवाम टुकी मुख्यमंत्राी बने। इसी प्रकार नागालैंड में 20 साल में 3 बार नेइफियू रियो और 2 बार जेलांग मुख्यमंत्राी रहे।
9 नवम्बर 2000 को अस्तित्व में आने के बाद 21 सालों में उत्तराखण्ड में नित्यानन्द स्वामी से लेकर नवीनतम् पुष्कर सिंह धामी तक 11 मुख्यमंत्राी बन गए हैं। मजेदार बात तो यह है कि उत्तराखण्ड में सरकारों को विपक्ष से नहीं बल्कि सत्ताधारी दलों के अंदर से, खतरा उत्पन्न हुआ। जबकि समकालीन राज्य छत्तीसगढ़ में इन 21 सालों में अकेले डा0 रमनसिंह ने 15 साल तक शासन किया। उत्तराखण्ड ने इस मामले में झारखण्ड को भी पीछे छोड़ दिया है। वहां भी 21 सालों में 11 सरकारों के शपथग्रहण अवश्य हुए मगर मुख्यमंत्राी केवल 6 नेता ही बने। सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि जब शासन ही स्थिर न हो तो उसका प्रशासन भी कैसे सुचारू रूप से चलेगा? इस साल राज्य में बजट त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने बनाया जिसे खर्च करने की जिम्मेदारी तीरथ रावत को सौंपी गई लेकिन जब तक वह प्रदेश के विकास की जरूरतें समझते तब तक उन्हें हटा कर शतरंज के मोहरे की तरह पुष्कर धामी को दांव पर लगा दिया।
सन् 1971 से लेकर 2021 तक के 50 सालों में उत्तराखण्ड के पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में केवल 6 मुख्यमंत्रियों का शासन रहा। इनमें डा0 यशवन्तसिंह परमार, ठाकुर राम लाल, शान्ता कुमार एवं प्रेम कुमार धूमल दो-दो बार तथा वीरभद्र सिंह 5 बार हिमाचल के मुख्यमंत्राी रहे। वर्तमान में जयराम ठाकुर हिमाचल के 13 वें मुख्यमंत्राी अवश्य हैं, मगर वह यह पद सम्भालने वाले केवल छटे नेता हैं। जबकि उत्तराखण्ड में एक ही विधानसभा के पांच साल के कार्यकाल में तीन-तीन मुख्यमंत्रियों की सरकारें आ गई। नारायण दत्त तिवारी के अलावा कोई भी मुख्यमंत्राी अब तक पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। राष्ट्रीय दलों द्वारा निर्वाचित विधायकों के संवैधानिक अधिकारों का हनन कर शतरंज के मोहरों की तरह मुख्यमंत्राी उतारे जा रहे हैं। राज्य में राजनीतिक अवसरवाद, पद लोलुपता तथा गिरगिट की तरह राजनीतिक सिद्धान्त और प्रतिबद्धता बदले जाने के कारण देवभूमि के नाम से भी पहचाने जाने वाला उत्तराखण्ड राजनीतिक अस्थिरता के दलदल में धंसता चला गया।
सामान्यतः सत्ताधारी दलों और उनकी सरकारों को विपक्ष से खतरा होता है। लेकिन राजनीतिक अस्थिरता के इस दौर में राजनीतिक दलों को अपने ही नेताओं से और सरकारों को अपने ही दल के अन्दर से खतरा उत्पन्न हो रहा है। पिछले इक्कीस सालों में उत्तराखण्ड में 7 सरकारें असमय ही गिर गई और गौर करने वाली बात यह है कि साजिशों के कारण अकाल मृत्यु वरण करने वाली इन सभी सरकारों की लंकाएं इनके अपने ही विभीषणों द्वारा ढहाई गईं।
प्रदेश की पहली सरकार नित्यानन्द स्वामी की थी जिसकी लंका भगत सिंह कोश्यारी और रमेश पोखरियाल निशंक ने ढहाई। उसके बाद कोश्यारी की सरकार बनी तो विधानसभा चुनाव आने के कारण वह कुल 122 दिन ही शासन कर पाए। कोश्यारी के बाद नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने पांच साल अवश्य पूरे किए मगर उस दौरान कांग्रेस की अन्दरूनी खींचतान के कारण अनिश्चितता का माहौल बना रहा, कलह से दुखी तिवारी को कई बार पद त्यागने की पेशकश हाइकमान से करनी पड़ी।
सन् 2007 में भुवन चन्द्र खंडूरी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार आई तो कोश्यारी और निशंक समर्थक असन्तुष्टों के कारण खंडूरी शासन 2 साल 11 दिन ही चल सका। खंडूरी के बाद निशंक की कुर्सी खंडूरी और कोश्यारी ने 2 साल 75 दिन में खींच दी और पुनः खंडूरी ने सत्ता संभाल ली। सन् 2012 के चुनाव में जीत के बाद हरीश रावत को सत्ता मिलने की पूरी उम्मीद थी, मगर बाजी विजय बहुुगुणा के हाथ लग गई और फिर हरीश रावत को अपनी पार्टी के मुख्यमंत्राी के खिलाफ मोर्चा खोलना पड़ा। नतीजतन बहुगुणा सरकार के धुर्रे 1 साल 324 दिन में ही उड़ गए। इस सत्ता संघर्ष में जीत हरीश रावत के हाथ जरूर लगी मगर विजय बहुगुणा गुट के 9 विधायकों ने 18 मार्च 2016 को बजट पास होते समय विद्रोह कर हरीश रावत सरकार को संकट में डाल दिया।
ऐसा राजनीतिक संकट भारत के संसदीय इतिहास में पहले कभी किसी अन्य के साथ नहीं हुआ था। दूसरी ओर 57 विधायकों के प्रचण्ड बहुमत के साथ भाजपा सत्ता में आई तो उम्मीद बंधी कि राज्य को इस बार अवश्य ही पांच साल तक चलने वाली सरकार मिलेगी लेकिन राज्यवासियों का वह सपना भी चकनाचूर हो गया। हाइकमान द्वारा थोपे गए मुख्यमंत्राी ऊलजलूल बयानों से उत्तराखण्ड की जगहंसाई करते रहे। जैसे कोई कोरोना वायरस के समर्थन में और गाय द्वारा संास में ऑक्सीजन छोड़ने का तो कोई अमेरिका द्वारा भारत को 2 सौ साल तक गुलाम बनाने का ज्ञान बांटता रहा।
(युवराज)