पूर्वोत्तर के आदिवासियों की आदि-सनातन मान्यताओं पर साम्राज्यवादी ईसाइयत का हमला

पूर्वोत्तर के आदिवासियों की आदि-सनातन मान्यताओं पर साम्राज्यवादी ईसाइयत का हमला

गौतम चौधरी

दुनिया भर में हर समाज की अपनी विश्वास प्रणाली है। एक लंबी परंपरा है, जो हर क्षेत्र में उसके फलने-फूलने की आधारशिला है। इसमें कोई भी परिवर्तन समाज के भीतर विरोध का कारण बन जाता है। पूर्वोत्तर भारत में विभिन्न प्रकार के आदिवासी समूह निवास करते हैं। इनके जीवन जीने का तरीका अन्य समुदाय से अलग है और वह उनकी परंपरा, मान्यता एवं सस्कृति के साथ जुड़ी हुई है। प्रत्येक समूह की अलग-अलग बोली, भाषा, पहनावा, आस्था और धर्म है, लेकिन वे शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और भाईचारे में विश्वास करते हैं, जो आदि-सनातन भारतीय चिंतन का हिस्सा है।

दरअसल, पूर्वोत्तर के जनजातीय समाज में कथित रूप से सुधारवादी आन्दोलन की बात बतायी समझाई जाती है वह सुधारवाद का एक ढ़ोंग है। कुल मिलाकर यह पश्चिम का यानी यूरोपिए साम्राज्यवादियों का सांस्कृतिक आक्रमण है। यह लेख तथ्यात्मक बिंदुओं पर आधारित है और इसके माध्यम से हम कुछ विषयों पर विमर्श करने की कोशिश कर रहे हैं। कैसे तथाकथित सुधारवादिता की आड़ में ईसाई मिशनरियों द्वारा सुधार और संरक्षण के नाम पर मिश्मी आस्था और संस्कृति को कमजोर किया जा रहा है।

मिश्मी मुख्य रूप से चीन की सीमा से लगे अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी-अधिकांश भाग, अंजॉ और लोहित जिलों में रहते हैं। मिश्मी प्रकृति, सूर्य और चंद्रमा की पूजा करते हैं। उनके पास अपनी धार्मिक प्रथाएं हैं और एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा है, जो उनके लंबे समय से चली आ रही मान्यताओं और जीवन पद्धति पर आधारित है। जिस प्रकार अन्य जनजातीय समाज में देखने को मिलता है उसी प्रकार मिश्मियों के आस्थापरक मार्गदर्शन के लिए कोई धार्मिक पुस्तक या पैम्फलेट नहीं है। 1990 के दशक के अंत में, कुछ ईसाई मिशनरियों ने क्षेत्र में विकास लाने के बहाने भोले-भाले मिश्मी को ईसाई धर्म में परिवर्तित करना शुरू किया गया। ये मिश्मी यह समझते रहे कि ईसाई धर्म गुरु हमारे लिए कुछ अच्छा कर रहे हैं और हमारे समाज के हित के लिए यह सब किया जा रहा है लेकिन ईसाई मिशनरियों ने मिश्मियों को केवल धार्मिक और सांस्कृतिक परतंत्रता के अलावा कुछ नहीं दिया। ईसाई मिशनरियां यह कहकर धर्मान्तरित करना शुरु कि ईसाई धर्म अपनाने से उनका जीवन खुशियों और सफलता से भर जाएगा। मासूम मिश्मी को धर्मान्तरित कर परिवारों और उनकी अपनी परंपराओं से उन्हें अलग कर दिया गया। धर्मांतरित मिश्मी ने न सिर्फ  ईसाई धर्म को बढ़ावा देना शुरू किया बल्कि मूल मिश्मी विश्वास का पालन करने वाले अपने भाइयो के प्रति दुर्भावना भी दिखाने लगे। यही तो साम्राज्यवादी ईसाई मिशनरियों की चाल थी जो सफल होने लगी।

वर्तमान में, मिश्मी को दो समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। क्रिश्चियन मिश्मी और स्वदेशी मिश्मी। सुधार के नाम पर मिश्मी समाज धीरे-धीरे अपनी पहचान और संस्कृति खोती जा रही हैं। कुछ हद तक, ईसाइयों द्वारा स्वदेशी विश्वास और संस्कृति सुधार राजनीति से प्रेरित है, जो लंबे समय में समाज के लिए हानिकारक है। अभी कुछ वर्षों से जनजातियों की स्वदेशी आस्था और संस्कृति को बढ़ावा देने और संरक्षित करने के लिए विभिन्न संगठनों द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। हालांकि स्वदेशी विचार का प्रचार भी हो रहा है लेकिन ईसाई षड्यंत्र बड़ी तेजी से पृथक्तावाद में परिवर्तित हो रहा है। एक सभ्य इंसान के रूप में, प्रत्येक व्यक्ति को हर धर्म, आस्था का सम्मान करना चाहिए। निहित स्वार्थों के लिए किसी के विश्वास को धक्का देना गैर-धार्मिक और अमानवीय है। इसलिए, दुनिया भर के प्रत्येक समाज को अपने विश्वास और संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार है। आखिरकार, संस्कृति का नुकसान, अपनी पहचान का नुकसान है। यही नहीं यह एक प्रकार की परतंत्रता भी है। पूरा अफ्रीका, उत्तर और दक्षिण अमेरिका यहां तक एशिया के कई देश सांस्कृतिक गुलामी के कारण आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भी साम्राज्यवादियों के चंगुल में फंसे हुए हैं।

जनजातियों की आदि-सनातन परंपरा भारत का मूल चिंतन है। यह प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाने का चिंतन है। यह अनेकांत का चिंतन है। यह अहिंसक चिंतन है। साम्राज्यवादी धार्मिक आस्था प्रकृति के खिलाफ संघर्ष के लिए उकसाता है जबकि आदि चिंतन प्रकृति के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करता है। इसलिए अपने मूल चिंतन की ओर हर समाज को लौटना चाहिए। कभी यह नहीं समझना चाहिए कि हमारा चिंतन हीन है। सदा यह सोचना चाहिए कि प्रकृति पूजक देवताओं ने हमें हमारे पोषण के लिए संसाधन उपलब्ध कराया है, न कि शोषण, भोग, विखंडन के लिए।  

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