कलीमुल्ला खान
साम्प्रदायिक या अन्य किसी भी प्रकार के आपसी दंगों के संबंध में जब कभी भी किसी सकारात्मक साम्यवादी चिंतक से बात हुई, उन्होंने यही बताया कि इससे जहां एक ओर समाज के उच्च वर्ग को फायदा होता है, वहीं दूसरी ओर कमजोर तबके को भयंकर हानि झेलनी होती है। विगत दिनों रमजान के महीने में एक ओर भारतीय मुसलमानों का अशराफ तबका महंगे इफ्तार में व्यस्त था, वहीं बिहार व पश्चिम बंगाल आदि प्रदेशों में रामनौमी के नाम पर दंगे हुए और उसमें मुसलमान हो या हिन्दू दोनों समुदाय के कमजोर वर्ग के मकान एवं दुकान तबाह कर दिए गए। इन दंगों में रोटी सेंकने वाले अधिकतर मुसलमानों के नेता भी अशराफ ही होते हैं। हालांकि हिन्दुओं में भी कमोवेश वहीं बात है लेकिन चूंकि मुसलमानों का पसमांदा तबका अभी भी बहुत पिछड़ा व अशिक्षित है इसलिए दंगों का असली शिकार यही होते हैं। मुसलमानों के नेतृत्व में यदि आप देखें तो अशराफ अपने राजनीतिक गॉडफादर से अपील करने के लिए, अशरफ एक ओर भव्य इफ्तार पार्टियों का आयोजन कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर रामनवमी के जुलूसों के दौरान बिहार और पश्चिम बंगाल में कानून व्यवस्था नियंत्रण से बाहर हो गई थी। दंगों में अशराफों की तुलना में पसमांदा अधिक परेशान होता है क्योंकि काम एवं व्यापार करने वाले अधिकतर इसी वर्ग के मुसलमान होते हैं, जबकि धार्मिक संस्थाओं पर, उदाहरण के लिए मस्जिद व मदरसों पर अशराफों का कब्जा होता है। राजनीतिक पार्टियों में भी अशराफों का ही कब्जा होता है। फायदा यदि हो तो अशराफों को और धर्म के नाम पर तबाही तो मसमांदाओं को।
अशराफों में एक खासियत और होती है। वह अपने हितों के लिए विरोधी या धार्मिक दुश्मन कहे जाने वालों के साथ भी संबंध विकसित कर अपना हित साध लेता है जबकि पसमांदाओं को धार्मिक लड़ाई और मध्ययुगीन जेहाद के लिए प्रेरित करता है। अभी हाल के दंगों में यह साफ-साफ दिखा। पसमांदा मुसलमानों के दुकान, घर तबाह हुए। आर्थिक स्रोतों पर कुठाराघत हुआ। जीवन की गाड़ी अबरुद्ध हो गयी। सच पूछिए तो अंततः इन सभी त्रासदियों के लिए सच्चे अर्थों में कौन पसमांदा खुद जिम्मेदार हैं। पसमांदाओं को अशराफों और उनके राजनीतिक समर्थक नेताओं द्वारा सांत्वना दी जाती है, वे समझाते हैं कि वे अपने जीवन की चिंता अल्लाह पर छोड़ दें। वे तो पूरे धर्म की चिंता करें क्योंकि आज धर्म को बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है। यह भी कहते हैं कि धर्म की सुरक्षा करने वाली पार्टियों को ही वोट दें। इस प्रकार मुस्लिम समाज के बहुसंख्यक पसमांदा केवल वोटबैंक बनकर रह जाते हैं। अपना सबकुछ लुटा कर ठगा-सा महसूस करता है। वास्तविकता तो यह है कि जीवन के जद्दोजहद हमें अपने आप को सुरक्षित एवं सशक्त बनाना है। धर्म व मान्यता भौतिक जीवन में समृति का आधार नहीं हो सकता। इस्लाम मे ंतो इससे केवल अशराफों को अभी तक फायदा होते देखा गया है।
पसमांदा मुसलमानों को यह समझने की जरूरत है कि धर्मिक बिंदु पर उनकी धार्मिक मान्यताओं एवं प्रथाओं का कहीं राजनीतिकरण तो नहीं किया जा रहा है। हाथों पर इमाम-ए-जमीन पहनने वाले कुछ राजनीतिक नेता रमजान के दौरान ‘टोपी और शॉल’ महज इसलिए पहनते हैं क्येांकि उन्हें उनका वोट प्राप्त करना है। इसके अलावा उनका और कुछ भी स्वार्थ नहीं होता है। वोट प्राप्त करने के बाद इस प्रकार के अवसरवादी नेता कुछ अशराफों को फायदा पहुंचाकर अपने आलिशान राजनीतिक किलों में अंतरध्यान हो जाते हैं। ये राजनीतिक नेता अपने राजनीतिक लाभ के लिए मुसलमानों के धर्मिक भावनाओं को उक्साते हैं। लाभ लेते हैं और गायब हो जाते हैं। इसलिए पसमांदाओं को अशराफों का अंधानुकरण करना बेहद खतनाक है। पसमांदा इससे केवल इस्लेमान होंगे। उन्हें कभी समाज का नेतृत्व नहीं मिलेगा। उन्हें दूसरों को अपने स्वयं के राजनीतिक लाभ के लिए अपनी धार्मिक गतिविधियों का अनुचित उपयोग करने की अनुमति कदापि नहीं देनी चाहिए।
अब समय आ गया है। पसमांदाओं को सतर्क होना होगा। अपने लिए कोई और रास्ता चुनना होगा। पसमांदा भारत के असली भूमिपुत्र हैं। ये न तो ईरान से आए हैं और न बुखारा से। ये न तो तुर्क हैं और न ही उजबेक। ये अफगानी पठान भी नहीं है। पसमंदा मुसलमान भारत के पारंपरिक समाज के हस्तशिल्प और छोटे व्यापारी हैं। इनका संबंध देश के बहुसंख्यकों के साथ बेहद मधुर रहा है। इसे समझने की जरूरत है। यदि अशराफों के चक्कर में पड़ेंगे तो परेशान होंगे। देश के विभाजन के समय भी अशराफों को भारत में भी फायदा हुआ और पाकिस्तान में भी। देश की राजनीति बदल रही है। इसे समझने की जरूरत है। हिन्दुओं में पिछड़ी जाति और अनुसूचित जाति जनताति ने अपना नेतृत्व खुद खड़ा करना प्रारंभ कर दिया है। मुसलमानों में भी जो पसमांदा हैं उन्हें अपने खुद का नेतृत्व खड़ा करना चाहिए और धार्मिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में अपनी हिस्सेदारी सूनिश्चित करनी चाहिए। एक ऐसे समाज का निर्माण करना महत्वपूर्ण है जहां सभी धर्मों को बिना दबाव डाले या राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किए बिना महत्व दिया जाये। सच तो यही है पसमांदा मुसलमानों को केवल सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक मामलों में उचित प्रतिनिधित्व, सुरक्षा और समानता के लिए प्रयास करना चाहिए।
(लेखक साम्यवादी चिंतक हैं। इनके विचार निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)