भारत का अमृतकाल : आखिर कहां खड़ी है हमारे गांव की सरकार 

भारत का अमृतकाल : आखिर कहां खड़ी है हमारे गांव की सरकार 

अमित शुक्ल

गांव की सरकार की यदि बात करें तो हमारा तातपर्य पंचायती राज प्रणाली से है। भारत अपनी स्वतंत्रता का 76वां वर्षगाठ मना रहा है। यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी या सत्तारूढ़ गठबंधन की भाषा में कहें तो वर्तमान युग देश का अमृतकाल है। ऐसे में राष्ट्र जीवन के विभिन्न आयामों के मानदंड की चर्चा जरूरी हो जाती है। सामरिक तौर पर भारत बेहद मजबूत राष्ट्र है। हमारे वैज्ञानिक अंतरिक्ष के नित नए ऊंचाइयों को छू रहे हैं। आंकड़ों में हमें बताया जा रहा है कि हमा दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। शिक्षा, रोजगार, सुरक्षा, विकास और आधारभूत संरचनाओं में भी हमारी तूति बोल रही है। ऐसे में हम जैसे ही ग्रामीण विकास पर नजर दौराते हैं तो हमें थोड़ी निरासा होती है। भारत के लगभग 25 प्रतिशत गांव ऐसे हैं जहां आज भी पीने के पानी के लिए भयंकर जद्दोजहद करना पड़ता है। केन्द्र और राज्य सरकारों के द्वारा गांव में कई प्रकार की योजनाएं चलायी जा रही है लेकिन उन योजनाओं का लाभ ग्रामीणों को नहीं मिल पा रहा है। कुपोषण, अशिक्षा, अंधविश्वास, बीमारी के मकड़ जाल में भारत के अधिकतर गांव आज भी फंसे हुए हैं। विगत तीन दशकों से गांव की सरकार यानी पांचायती राज के माध्यम से गांव में काम हो रहे हैं। सरकार करोड़ों रुपये ग्रामीण क्षेत्र में खर्च भी कर रही है लेकिन गांव चित्र यथावत है। इसके कारणों की मिमांसा करने से पहले हमें इस विषय पर विचार करना चाहिए कि गांव की सरकार यदि काम कर रही है तो चित्र क्यों नहीं बदल रहा है? 

विगत दिनों मैंने इसी प्रकार के कुछ मूलभूत प्रश्नों पर काम करने की कोशिश की और उस कोशिश ने अब एक किताब का रूप ले लिया है। विगत दिनों मेरे द्वारा लिखी किताब, ‘‘सशक्त पंचायत: समृद्ध भारत की संकल्पन’’ का प्रकाशन हुआ। किताब में मैंने उन्हीं सवालों की व्याख्या की है जो आम लोगों के मन में उठता है। यदि कम शब्दों में कहा जाए तो किताब पंचायती प्रणाली की एक व्याख्या है। अध्ययन के क्रम में मुझे ऐसा लगा कि पंचायती राज प्रणाली के लागू होने के इतने वर्षों बाद भी सत्ता का स्थानांतरण गांव की सरकारों के पास नहीं हो पाया है। राज्य सरकार और उसके कर्मचारी व अधिकारी कहीं न कहीं गांव की सरकार की शक्तियों को दबा कर बैठे हैं और गांव के विकास की बाधा यहीं से प्रारंभ होती है। राज्य सरकारों ने पंचायती प्रणाली को अपने अनुसार ढ़ाल दिया है। यह प्रणाली ग्रामीण स्तर पर राज्य सरकार की महज एक क्रयान्वयन संस्था बन रह गयी है। राज्य सरकार से इतर इसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। राज्य सरकार के प्रशासनिक अधिकारी इस प्रणाली में जब चाहे हस्तक्षेप कर सकते हैं। यहां तक कि बिना किसी कारण बताएं पंचायत की चुनी सरकार को भी भंग कर सकते हैं। राज्य सरकार के द्वारा पंचायतों को जो 29 अधिकार और कार्य आवंटित किए गए हैं उसमें भी अब केन्द्र और राज्य सरकार हस्तक्षेप करने लगी है। इसके कारण पंचायती राज व्यवस्था के स्वतंत्र अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा हो गया है। 

इस प्रणाली की दुसरी सबसे बड़ी समस्या पंचायतों के चुने गए प्रतितिनिधियों की आयोग्यता है। लाख प्रशिक्षण के बाद भी चुने गए प्रतिनिधि अपनी ताकत का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं और अधिकारियों के दबाव में काम करते हैं। बजट बनाने, ग्राम सभा में बजट पास करने और विभिन्न प्रकार के अधिकार ग्राम पंचायतों को तो है लेकिन ग्राम सभा के द्वारा पारित प्रस्तावों को विकास अधिकारी रद्दी की टोकड़ी में डाल देते हैं और अपने द्वारा बनायी योजनाओं को पंचायत पर थोप देते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, पर्यावरण, कृषि आदि मद में सरकार एक बड़ी राशि पंचायतों में खर्च करती है लेकिन उसका लाभ स्थानीय लोगों को ना के बराबर है। हिसाब लगाया जाए तो सरकार छह से लेकर आठ करोड़ की धन राशि एक पंचायत पर खर्च करती है लेकिन इन राशियों का माध्यम केवल कहने के लिए पंचायत होता है। सच पूछिए तो ये राशियां राज्य सरकार के द्वारा नियुक्त अधिकारी और कर्मचारी अपने अनुसार खर्च करते हैं। इसके संबंध में बताया जाता है कि स्थानीय प्रतिनिधिय योग्य नहीं हैं इसलिए इस राशि को वे खर्च करने में सक्षम नहीं हो पाएंगे। यदि वे खर्च कर भी लेंगे तो इसका हिसाब वे नहीं दे पाएंगे। अगर ऐसा है तो यह जिम्मेदारी राज्य सरकार की बनती है कि वह पंचायत के प्रतिनिधियों को प्रशिक्षित करे। साथ ही जिस प्रकार राज्य सरकार अपने सचिवालय को संचालित करने के लिए योग्य अधिकारियों की नियुक्ति करती है उसी प्रकार पंचायती प्रणाली को सशक्त करने के लिए योग्य कर्मचारी और अधिकारियों की नियुक्ति करे। जिस प्रकार राज्य सरकार के अधीन वे अधिकारी और कर्मचारी होते हैं उसी प्रकार पंचायती राज के अधीन वे अधिकारी और कर्मचारी हों। तभी सत्ता का ग्रामीण क्षेत्रों में हस्तांतरण संभव हो पाएगा। 

स्थानीय राजनीति के कारण भी पंचायती प्रणाली प्रभावित हो रही है। हालांकि पंचायती प्रणाली में दलगत व्यवस्था नहीं है लेकिन दलों के नेता पंचायती प्रणाली को प्रभावित करते हैं। इन दिनों यह ज्यादा प्रभावी हो गया है। यदि ऐसा है तो इस प्रणाली में भी दलीय व्यवस्था लागू कर देनी चाहिए लेकिन जबतक दलीय व्यवस्था लागू नहीं हो पा रहा है तबतक दलों को इस प्रणाली से दूरी बनाने की जरूरती है। इधर के दिनों में पंचायती चुनाव में भ्रष्टाचार, हिंसा और पैसा सिर चढ़ कर बोलने लगा है। पश्चिम बंगाल इसका एक बड़ा उदाहरण है। इससे जब तक पंचायतों को मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक पंचायती व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर सकती है। 

देश में सबसे बेहतर पंचायती व्यवस्था केरल की बताई जाती है। यहां यह व्यवस्था इसलिए बेहतर तरीके से कम कर रही है कि यहां की राज्य सरकार ने इसके लिए एक अलग से आयोग का गठन किया है। देश के अन्य राज्यों को भी केरल की व्यवस्था का अध्ययन करना चाहिए। कुछ मामले में बिहार सरकार ने भी बढ़िया काम किया है। बिहार में न्याय पंचायत की व्यवस्था अनुकर्नीय है। जिस प्रकार बिहार में मुखिया के साथ ही सरपंच का चुनाव होता है उसी प्रकार अन्य प्रदेशों में भी हो तो बेहतर परिणाम आएंगे। बिहार में धीरे-धीरे पंचायती व्यवस्था सशक्त हो रही है। इधर के दिनों में बिहार सरकार ने 29 की जगह पंचायतों को 35 काम सौंपें हैं। यह सराहनीय कदम है। पंचायती राज प्रणाली में जो प्रयोग बेहतर है उसे अन्य राज्यों को भी अपने अनुकूल अपनाना चाहिए। इससे पंचायती संस्थाएं सशक्त होगी और इससे देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। 

देश चाहे जितना तरक्की कर ले। हम चांद पर पहुंच जाएं लेकिन जब तक हमारा गांव सशक्त नहीं होगा तब तक देश का विकास अधूरा ही रहेगा। गांधी जी का यही स्वप्न था कि देश का प्रत्येक पंचायत अपने स्व के संसाधनों से संचालित हो। उन्होंने अपने कई भाषनों और आलेखों में साफ-साफ कहा है कि यदि गांव स्वावलंबी नहीं हुआ तो देश फिर से गुलाम हो जाएगा। पंचायत को सशक्त और मजबूत इसलिए भी होना होगा क्योंकि इससे हमारी आंतरिक सुरक्षा जुड़ी हुई है। अमृतकाल के इस दौर में हमें एक संकल्प यह भी लेना चाहिए कि हम अपने गांव और ग्रामीण सरकार को मजबूत करेंगे।  

(आलेख में व्यक्त लेखक के विचार निजी हैं। इससे जनलेख का कोई लेनादेना नहीं है।)

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