क्रूर पूंजीवादी दौर में भारत का लोकतंत्र, लगातार घटती जा रही है सरकारी नौकरियाँ

क्रूर पूंजीवादी दौर में भारत का लोकतंत्र, लगातार घटती जा रही है सरकारी नौकरियाँ

लालचन्द्र

देश की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। स्वाभाविक है कि इस बढ़ती हुई जनसंख्या की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारी अमले का भी विस्तार होना चाहिए, कर्मचारियों की संख्या बढ़नी चाहिए। लेकिन हो रहा है इसका ठीक उल्टा। गौरतलब है कि जनसंख्या में बढ़ोत्तरी अपने आप में समस्या नहीं होती क्योंकि सामाजिक आवश्यकताएँ भी जनसंख्या के साथ बढ़ती हैं, उत्पादन की आवश्यकता बढ़ती है और यदि व्यवस्था ऐसी हो जिसका लक्ष्य सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना हो, तो हर हाथ को काम देना भी सम्भव होता है। साथ ही, प्राकृतिक संसाधन भी किसी कटोरी में रखी शक्कर नहीं है, जिसे इंसानियत खाते-खाते एक दिन खत्म कर देगी। यदि एक जनपक्षधर व्यवस्था हो तो वह प्रकृति के साथ एक ऐसा रिश्ता बना सकती है, जिसमें वह जितने संसाधनों का उपभोग करती है, उससे ज्यादा संसाधनों को पैदा करती है। इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का संकट भी व्यवस्था का पैदा किया संकट है, न कि यह केवल जनसंख्या के कारण पैदा हुआ है।

बहरहाल, हम देखते हैं कि सरकारी नौकरियों की स्थिति आज क्या हो गयी है। वित्त मंत्रालय की ओर से जारी नवीनतम ‘वेतन एवं भत्तों पर वार्षिक रिपोर्ट’ के अनुसार केन्द्र सरकार में कुल स्वीकृत पदों की संख्या 39.77 लाख रह गयी है जोकि पिछले 3 वर्षों में सबसे कम है। इनमें से 9.64 लाख पद खाली पड़े हैं, यानी इस वक्त केन्द्र सरकार के कुल कर्मचारियों की संख्या सिर्फ 30.13 लाख है। यह संख्या 2010 के बाद से सबसे कम है। इसमें सेना के पद शामिल नहीं हैं।

मोदी सरकार हर साल 2 करोड़ रोजगार देने का जुमला उछालकर 2014 में सत्ता में आयी थी। लेकिन रोजगार देने की बात तो दूर, पिछले नौ सालों में सरकारी विभागों, सार्वजनिक क्षेत्रों, निगमों से लेकर प्राइवेट सेक्टर तक में अभूतपूर्व रूप से छँटनी हुई है। जुलाई 2022 में केन्द्रीय कार्मिक राज्य मन्त्री जितेन्द्र सिंह ने लोकसभा में बताया कि मोदी सरकार के 8 वर्षों के कार्यकाल में लगभग 22 करोड़ लोगों ने नौकरी के आवेदन किये थे, जिसमें से केवल 7.22 लाख लोगों को ही नौकरी मिल पायी है।

मार्च 2021 से मार्च 2022 के बीच केन्द्र सरकार के कुल स्वीकृत पदों की संख्या में 58000 की कमी हो गयी। स्वीकृत पदों और कार्यरत कर्मचारियों की संख्या में कमी सभी विभागों में हुई है। रेलवे, रक्षा (नागरिक), गृह, डाक और राजस्व से जुड़े विभागों और मंत्रालयों में केन्द्र सरकार के 92 प्रतिशत पद होते हैं। सबसे अधिक नौकरियाँ देने वाला विभाग रेलवे है जिसमें लगभग 3 दशक पहले 18 लाख से अधिक कर्मचारी होते थे। लेकिन 1 मार्च 2022 को इसके कुल स्वीकृत पदों की संख्या थी 15.07 लाख जबकि कार्यरत कर्मचारी थे मात्र 11.98 लाख। यानी तीन लाख से ज्यादा पद खाली पड़े थे। इनमें बड़ी संख्या ऐसे पदों की है जो रेलों के संचालन और सुरक्षा से जुड़े हैं। जून में उड़ीसा में हुई भयंकर रेल दुर्घटना और आये दिन होने वाली रेल दुर्घटनाओं के लिए कर्मचारियों की भारी कमी एक बड़ा कारण है।

इसके बावजूद न सिर्फ खाली पदों पर भर्ती नहीं की जा रही है बल्कि पदों को ही कम किया जा रहा है। रक्षा मंत्रालय में कुल स्वीकृत नागरिक पदों की संख्या 5.77 लाख है जिसमें से 2.32 लाख पद खाली पड़े हैं। गृह मंत्रालय के 10.90 लाख स्वीकृत पदों में से 1.20 लाख पद खाली पड़े हैं। डाक विभाग में कुल स्वीकृत पद 2.64 लाख हैं जिसमें से एक लाख से ज्यादा पद खाली हैं। राजस्व विभाग में 1.78 लाख स्वीकृत पद हैं जिनमें से 74000 पद खाली पड़े हैं।
नरेंद्र मोदी ने पिछले अक्टूबर में 10 लाख सरकारी नौकरियाँ देने की घोषणा की थी लेकिन कहने की जरूरत नहीं कि यह भी इस सरकार की तमाम फर्जी घोषणाओं में से एक थी। असलियत यह है कि सभी विभागों में लगातार नियमित सरकारी कर्मचारियों की कटौती करके उनका काम बाहरी आउटसोर्सिंग एजेंसियों को दिया जा रहा है। हर विभाग में ठेके पर बेहद कम वेतन देकर काम पर रखे जाने वाले कर्मचारियों की संख्या बढ़ती जा रही है।

राज्य सरकारों की हालत इससे भी बुरी है। शिक्षकों और डॉक्टरों जैसे बुनियादी महत्व के पदों सहित हर विभाग में लाखों पद खाली पड़े हैं जबकि जनता जरूरी सेवाओं के अभाव से जूझ रही है और बेरोजगार नौजवान रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं। उल्टे सरकारें बेरोजगारों से ही भारी कमाई कर रही हैं। इसी वर्ष मार्च में मध्य प्रदेश विधानसभा में सरकार ने जानकारी दी कि पिछले सात वर्षों में प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने वाले एक करोड़ 24 लाख युवाओं से सरकार ने 424 करोड़ रुपये फीस के रूप में वसूले। अगर सभी राज्यों और केन्द्र सरकार द्वारा वसूली गयी रकम का हिसाब लगाया जाये तो वह लाखों करोड़ में होगी।

ऐसे में नौजवानों को एकजुट होकर रोजगार के सवाल पर एक बड़ा आन्दोलन खड़ा करना होगा। पिछले मार्च से देश के कई राज्यों में चलायी जा रही ‘भगतसिंह जनअधिकार यात्रा’ ने रोजगार के सवाल को खास तौर पर उठाया है। इसके माँगपत्रक में कहा गया है कि जिन पदों पर परीक्षाएँ हो चुकी हैं उनमें पास होने वाले उम्मीदवारों को तत्काल नियुक्तियाँ दी जायें। रिक्तियों की घोषणा से लेकर नियुक्ति पत्र देने की समय सीमा तय करके उसे सख्ती से लागू किया जाये। परीक्षा परिणाम घोषित होने के छह माह में नियुक्ति पत्र देना अनिवार्य किया जाये। जिन पदों पर भर्ती के लिए परीक्षाएँ आयोजित नहीं की गयी हैं, उन्हें तत्काल आयोजित किया जाये।

इसके अलावा सभी राजकीय व केन्द्रीय विभागों में खाली पड़े लाखों पदों को भरने की प्रक्रिया जल्द से जल्द शुरू की जाये। नियमित प्रकृति के कामों में ठेका प्रथा पर रोक लगायी जाये, सरकारी विभागों व निजी उपक्रमों में नियमित काम कर रहे सभी कर्मचारियों को तत्काल स्थायी किया जाये और ऐसे सभी खाली पदों पर स्थायी भर्ती की जाये।

इसने यह माँग भी की है कि देश में शहरी और ग्रामीण बेरोजगारों के पंजीकरण की व्यवस्था की जाये और रोजगार नहीं मिलने तक कम से कम 10,000 रुपये बेरोजगारी भत्ता दिया जाये। इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार ‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी कानून (बसनेगा)’ पारित करे। तब तक ‘मनरेगा’ के तहत सालभर के रोजगार और काम पर कम-से-कम न्यूनतम मजदूरी का कानूनी प्रावधान किया जाये। केन्द्र सरकार द्वारा ऐसे कानून को पारित किये जाने तक, राज्य सरकारें प्रदेश के स्तर पर ऐसा रोजगार गारण्टी कानून बनायें।

बेरोजगार युवकों से हर वर्ष की जाने वाली हजारों करोड़ की कमाई बन्द करने, नौकरियों के लिए आवेदन के भारी शुल्कों को खत्म करने और साक्षात्कार तथा परीक्षा के लिए यात्रा को निःशुल्क करने की भी माँग की गयी है। माँगपत्रक में कहा गया है कि देश में वास्तविक विकास के लिए जरूरी है कि शिक्षा, चिकित्सा, बुनियादी ढाँचे के निर्माण, आवास आदि की सुविधाओं के विस्तार के लिए नयी रिक्तियाँ निकाली जाएँ और उन पर भर्तियाँ की जायें।

फिलहाल मोदी सरकार इसके ठीक उल्टी चाल चल रही है। ऐसे में हमें भगतसिंह की इस बात को याद करना होगा – “अगर कोई सरकार जनता को उसके बुनियादी अधिकारों से वंचित रखती है, तो उस देश के नौजवानों का अधिकार ही नहीं बल्कि कर्तव्य है कि ऐसी सरकारें को बदल दें या ध्वस्त कर दें।”

(यह आलेख साम्यवादी पत्रिका ‘‘मजदूर बिगुल के जुलाई 2023’’ अंक लिया गया है। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)

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