हसन जमालपुरी
ऐतिहासिक तौर पर धर्मान्तरण एक बड़ी बहस का विषय रहा है। खासतौर पर जब इस्लाम की बात की जाती है तब इस बहस को और बल मिलने लगता है। धर्मान्तरण का इतिहास अपने आप में विवादित रहा है। विल दुरांट जैसे इतिहासकार का कहना है कि इस्लाम में धर्मान्तरण ताकत व तलवार के बल पर होता रहा है, किन्तु मार्सल होडाग्सन ने इसका खंडन करते हुए कहा है कि इस्लाम धर्म के विस्तार में भाईचारा व करूणा के सिद्धांत समावेश होना, नस्ल-भेद को नकारना तथा शांति पर जोर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
इस्लाम की अबतक की उपलब्धियों के संबंध में यह कहा जा सकता है कि जहां भी इस धर्म ने अपनी जड़ें फैलाई, वहां इसने स्थानीय संस्कृति को खत्म नहीं किया अपितु घुलमिल कर अपने लिए एक जगह बनाई। यही नहीं वहां के सांस्कृतिक विकास में अपना अहम योगदान दिया। इस्लाम के विस्तार में नाविकों, व्यापारियों, यात्रियों और सूफी-संतों का बड़ा योगदान रहा है। हालांकि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इस्लाम धर्मावलंबियों ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया। इस्लाम के मानने वाले एक से बढ़ कर एक क्रूर शाहंशाह हुए हैं लेकिन इनको इस्लाम के सूफीवाद ने कभी मान्यता प्रदान नहीं की। भारत व इंडोनेशिया दुनिया के ऐसे प्रमुख देश हैं जहां इस्लाम तो गया लेकिन अरबी संस्कृति नहीं जा पायी।
ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी कि इन स्थानों पर रहने वाले लोग इस धर्म की ओर खींचे चले गए, बल्कि इसके मानने वालों में विद्यमान चरित्र, ईमानदारी, करूणा व मोहब्बत ने स्थानीय लोगों को इस धर्म के प्रति आकर्षण पैदा किया और स्थानीय लोग इस्लाम को मानने लगे। इंडोनेशिया के मामले में वहां के लोग इस्लाम को आस्था के तौर पर अपनाए हुए हैं लेकिन जातीय-संस्कृति व परंपराओं को वे आज भी जी रहे हैं। उनकी पुरानी परंपरा आज भी जिंदा है। यह छोटी बात नहीं है।
भारत के मामले में भी कुछ ऐसा ही है। हालांकि विगत 50 वर्षों से इस्लाम की कट्टरता और अरबीपरस्तिी सोच ने भारत को बुरी तरह प्रभावित किया है लेकिन आज भी भारतीय मुसलमानों में अपनी माटी, अपनी संस्कृति और उपमहाद्वीपीय सोच के प्रति जबर्दस्त आकर्षण दिखता है। भारत में पश्चिम एशिया से आने वाले व्यापारियों व सूफी-संतो ने कभी यहां के नागरिकों पर अरबी-संस्कृति को थोपने की कोशिश नहीं की बल्कि उन्होंने खुद को भारतीयता व यहां के धर्म में ढाला और वे यहां की मिश्रित संस्कृति का हिस्सा बन गए। यह आज भी चल रही है। भारत में सूफीवाद का पदार्पण फारस और अरब से हुआ है। जब भारत में सूफीवाद आया तो यहां की संस्कृति को प्रभावित करना प्रारंभ किया। फिर भारतीय भक्ति आन्दोलन के साथ मिलकर सूफीवाद ने एक नए धर्म को पैदा कर दिया जिसे दुनिया सिख पंथ के रूप में जानती है। सिख धर्म इस्लामिक सूफीवाद और भारतीय भकित आन्दोलन का फ्यूजन है।
इसलिए, यह कह सकते हैं कि इस्लाम के मानने वालों ने ना तो किसी पर इस धर्म को अपनाने के लिए दबाव डाला और ना ही किसी प्रकार का प्रलोभन दिया। दरअसल, पवित्र कुरान बड़े व्यवस्थित ढंग से किसी भी प्रकार के धर्मान्तरण को नकारता है। इस संदर्भ में कुरान में कहा गया है कि ‘‘इस धर्म में किसी प्रकार की मजबूरी नहीं है। कुरान बड़ी स्पष्टता से अच्छे व बुरे रास्ते में भेद बताता है। जो कोई ‘तागूत’ यानी ईश्वर के अलावा अन्य की पूजा में यकीन नहीं करता है और अल्लाह में यकीन करता है, उसने ऐसे विश्वसनीय हाथों को थाम लिया है, जो कभी उसका साथ नहीं छोड़ेगा।’’
असल में, इस्लामी साहित्य में धर्मान्तरण की कोई स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत नहीं की गयी है। इस धर्म के संदेशवाहकों को स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि वे अपने मजहब को दूसरों पर नहीं थोपें। बहरहाल, इतिहास बताता है कि ऐसे अनगिनत उदाहरण भी है जिनके अनुसार धर्मान्तरण जैसी घटनाएं हुई है, किन्तु वे उदाहरण इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पर्याप्त नहीं है कि इस्लाम धर्म को दूसरों पर थोपा गया। अगर यह प्रथा किसी रूप में भी जारी है तो मुस्लिम-समुदाय की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह कुरान ए पाक के अनुसार व्यवहार करें और सामूहिक रूप से इस प्रथा को खत्म करने की दिशा में कदम उठाएं।
(लेखक के विचार निजी हैं। इससे जनलेख का कोई लेना-देना नहीं है।)