मुसलमानों को भारत के सामाजिक-परिवेश में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए

मुसलमानों को भारत के सामाजिक-परिवेश में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए

रजनी राणा

सन् 1857 के बाद भारत से मुसलमानों ने यह महसूस करना प्रारंभ कर दिया कि उनका शोषण किया जा रहा है तथा उन्हें राजनीति व सामाजिक तौर पर अलग-थलग किया जा रहा है। बहरहाल, उनकी यह दयनीय छवि को सामाजिक-आर्थिक तथा मिश्रित संस्कृति में उनके द्वारा की जाने वाली सक्रिय भागीदारी निभाकर बदला जा सकता है। किसी भी समुदाय का राजनीतिक-तुष्टिकरण व उन्हें प्राथमिकता न देते हुए उनके साथ किया जाने वाला बर्ताव उनकी तरकी व विकास नहीं करने वाला है। ऐसे समुदायों को अपने पैरों पर खड़ा होना होगा, ताकि वे हर क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए राष्ट्रीय-मुख्यधारा के साथ अपने आप को जोड़े रखें। इसके लिए भारतीय मुसलमानों को कुछ छोटे-छोटे प्रयास करने चाहिए।

कुरान मजीद इमान वालों को निर्देशित करता है, ‘‘बेशक, लोगों की स्थिति को अल्लाह तब तक नहीं बदल सकता जब तक वे अपने अंदर स्वंय बलाव न लाएं।’’ (13ः11)

भारतीय मुसलमान अपने समाज के अंदर शिक्षा का प्रचार-प्रसार कर समाज की तरक्की कर सकते हैं। यद्यपि शिक्षा किसी समुदाय के उत्थान में अहम रौल अदा करता है। इसलिए शिक्षा की ओर इन्हें ध्यान देना चाहिए। संभव हो तो समाज में कुछ रिवाजों को स्थानीय भाषा में संपन्न कराने की व्यवस्था करनी चाहिए, जैसे निकाहनामा आदि।

अपने टोले-मुहल्लों की साफ-सफाई में अपनी भूमिका सूनिश्चि करनी चहिए। इसके तहत अपने आसपास कूरा-कर्कट न फेंका जाए। स्वयं को अपने इलाके की तरक्की के लिए प्रस्तुत करें।

भारत में सरकारी संपत्तियों को क्षति पहुंचाना आम बात है। अन्य समुदायों की तरह मुस्लिम समुदाय में भी यह कमी है। बिजली आदि की चोरी भी आम बात है। अगर इस दिशा में आदर्श प्रस्तुत किया जाए तो समाज की तरक्की कोई रोक नहीं सकता है। यह केवल मुस्लिम समुदाय के लिए ही नहीं है। बड़े पैमाने पर बहुसंख्यक समुदाय में भी यह बीमारी है। मुसलमानों को आगे बढ़ कर अन्य समुदाय के लोगों को भी समझाना चाहिए। इससे जहां एक ओर सामाजिक सौहार्द बढ़ेगा वहीं मुसलमान समाज में आदर्श भी प्रस्तुत कर सकते हैं। कुछ लोगों ने इस दिशा में बहुत बढ़िया पहल किया है।

नौजवान अपना समय बर्बाद करने मोटार-साईकिलों में बगैर हेलमेट पहने व ट्रफिक नियमें को तोड़ने में अपनी बहादुरी समझते हैं। हालांकि यह केवल मुसलिम समुदाय में ही नहीं है। उत्तर भारत में यह ज्यादा देखने को मिलती है। दक्षिण भारत में रूल फैलो करने वालों की संख्या अधिक है। यदि इस दिशा में मुसलमान पहल करें तो बेहतर हो सकता है। वे इन चीजों का शब-ए-कद्र के अवसर पर खास खयाल रखें और बेवकूफी भरी हरकतें न करें।

जिन्हें कार्य करने की जिम्मेदारी सौंपी जाए, वे समुदाय की भलाई का कार्य करें तथा कमियां और गलतियां निकालकर उनका जिक्र सोशल मीडिया पर डालने से पहले उसे कई बार पढ़ लें साथ ही संवेदनशील तथ्यों को डालने से गुरेज करें। इससे समाज व देश की बदनामी तो होती ही है साथ में कानूनी दाव-पेंच के चक्कर में व्यक्ति कहीं का नहीं रहता है।

इसके लिए बहुत जरूरी है कि इस्लाम की गलत छवि पेश करने वाले उलेमा और मौलवियों से सतर्क रहें। बहुसंख्यक या अन्य अल्पसंख्यक समुदाय की तरह समाजिक समरसता एवं सौहार्द के लिए भी मुस्लिम युवाओं को आगे आना चाहिए। ये कुछ ऐसे छोटे प्रयास है, जिससे बड़े बदलाव की पृष्टभूमि तैयार की जा सकती है। वे दुनिया बदल सकतें हैं। साथ ही समाज का नेतृत्व भी कर सकते हैं। मुसलमान युवाओं को चाहिए कि समाज में जो दबे-कुचले हैं उसको न्याय दिलाने में अपनी भूमिका सूनिश्चि करें।

(लेखक के विचार निजी हैं। इससे जनलेख का कोई लेना-देना नहीं है।)

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