धार्मिक स्थलों पर लाउडीस्पीकर विवाद का इस्लामिक समाधान

धार्मिक स्थलों पर लाउडीस्पीकर विवाद का इस्लामिक समाधान

खुशबू खान

इन दिनों धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर के प्रयोग को लेकर राजनीतिक माहौल गर्म है। इस मामले में कुछ धार्मिक संगठनों ने भी बयान जारी किए हैं। यही नहीं सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर बहस तेज हो गयी है कि धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर का प्रयोग किया जाए या नहीं। कुछ लोग इसके खिलाफ तर्क दे रहे हैं तो कुछ इसके पक्ष में भी हैं।

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने लगभग सभी धार्मिक संगठनों को अपने आस्था स्थल से लाउडस्पीकर हटाने को कहा है। योगी के नेतृत्व वाली सरकार ने साफ शब्दों में कहा है कि यदि धार्मिक केन्द्रों से बाहर लाउडस्पीकर की आवाज जाती है तो इसे अनुचित माना जाएगा और इसके खिलाफ तत्काल शासन द्वारा कार्रवाई की जाएगी। इन तमाम बहसबाजी के बीच हमें उन चंद धार्मिक संगठनों के मिजाज को भी परखना चाहिए धार्मिक समाज को नियंत्रित करने का दावा करता है।

इस्लाम के पांच धार्मिक कर्मकांडों में से एक, नमाज के दौरान लाउडस्पीकरों के उपयोग और लाउडस्पीकरों पर ध्वनि की विस्तार सीमा पर सवाल का जवाब देते हुए, दारुल उलूम देवबंद के दारुल इफ्ता (इस्लामिक मामलों पर फतवा जारी करने के लिए उलेमा के आधिकारिक समूह) ने कहा, फतवा: 1431/1053/0=1433 ‘‘अगर इमाम की आवाज मुसल्लियों (इमाम के पीछे नमाज में शामिल होने वाले) तक नहीं पहुंच रही है तो लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करना जायज है, हालांकि इसका इस्तेमाल न करना ही बेहतर है। अगर लाउडस्पीकर लगा हो, तो यह आवश्यक है कि आवाज उस क्षेत्र तक हो जहां मुक्तादी मौजूद हैं। उस क्षेत्र से अधिक या बाहर आवाज फैलाना उचित नहीं है और यदि आम जनता को इससे कोई समस्या महसूस होती है तो यह बिल्कुल अवांछनीय है। इससे बचा जाना चाहिए।’’ भारत के एक अन्य प्रमुख इस्लामिक मदरसा, दारुल उलूम नदवतुल उलमा ने रमजान के पवित्र महीने के दौरान घोषणाओं के लिए लाउडस्पीकरों के उपयोग पर लखनऊ के एक कर्नल (सेवानिवृत्त) शमशी के एक प्रश्न के उत्तर में स्पष्ट रूप से आगाह किया कि ‘‘लाउडस्पीकर का उपयोग करने से पहले गैर-मुस्लिमों और बीमार व्यक्तियों पर उचित ध्यान दिया जाना चाहिए।’’

उपरोक्त दो फतवों के आलोक में हम मुसलमानों को इस मामले पर आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। कई जगहों पर रमजान के पवित्र महीने के दौरान, सुबह 3 बजे से ही लाउडस्पीकर बजने लगते हैं, जिससे मुसलमानों को जागने, सेहरी खाने आदि का निर्देश मिलता है। इतना ही नहीं, शुरुआती घंटों में जब बाकी दुनिया सो रही होती है, कुछ मौलाना लाउडस्पीकर के माध्यम से उपदेश देना शुरू कर देते हैं, इस बात की परवाह किए बिना कि इससे बड़े पैमाने पर लोगों को असुविधा होती है, जिसमें मुसलमान भी शामिल हैं और गैरमुसलमान भी। यही नहीं इसमें बीमार भी शामिल हो सकते हैं, जिसके बारे में फतवा साफ तौर पर चेतावनी देता है।

इस्लामिक दुनिया और चिंतन के जानकारों का दावा है कि इस धर्म में पड़ोसियों को लेकर कई सहिष्णु बातें कही गयी है। यह केवल काल्पनिक चिंतन नहीं है यह धार्मिक कर्मकांड का हिस्सा भी है। इस्लाम में पड़ोसी के अधिकारों पर इतना जोर दिया गया कि कि उनकी सुरक्षा और उनके अधिकारों की हिफाजत के लिए सच्चे इमान वालों को आगे बढ़ कर सहयोग करने को कह दिया गया। एक हदीस में, पवित्र पैगंबर ने कहा कि एक आदमी जिसका पड़ोसी उसके कुकर्मों से सुरक्षित नहीं है, वह इस्लाम में विश्वास नहीं करता है। मुसलमानों को आज उच्च ध्वनि वाले लाउडस्पीकर के उपयोग के कारण पड़ोसियों को होने वाली असुविधा के बारे में सोचने की जरूरत है। इस्लाम को आदर्श धर्म के रूप में सभी को राहत प्रदान करने के लिए लाया गया था। आज, मुसलमान बहुत से लोगों को ऐसी गतिविधियों में लिप्त होकर परेशान कर रहे हैं जो इस्लाम की शिक्षाओं के विपरीत हैं।

गांधी जी ने एक बार कहा था कि आंख के बदले आंख पूरी दुनिया को अंधी बना देगी। इस चिंतन को लाउडस्पीकर विवाद से भी समझा जा सकता है। समुदायों के बीच नफरत पैदा करने की कोशिश कर रहे चरमपंथी तत्व गैर-मुसलमानों द्वारा अपने त्योहारों के दौरान लाउडस्पीकर के इस्तेमाल का हवाला दे रहे हैं। आरोपों के गुण-दोष में जाए बिना, मुसलमानों को गांधी जी और पैगंबर मुहम्मद की शिक्षाओं को याद रखना चाहिए। प्रत्येक मुसलमान की यह जिम्मेदारी है कि वह सैद्धांतिक रूप से इस्लाम का पालन करे और ऐसी किसी भी चीज से दूर रहे जिससे पड़ोसियों को असुविधा हो या गैर-मुसलमानों के बीच इस्लाम की छवि खराब हो। इस्लाम एक मानवतावादी धर्म है और इसे इसी रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। हर विद्वान मुसलमान एक बूढ़ी औरत की कहानी से वाकिफ है, जो पैगंबर मुहम्मद के ऊपर कचरा फेंकती थी। उस बूढ़ी औरत के प्रति पैगंबर मुहम्मद की दयालु और क्षमाशील प्रतिक्रिया वर्तमान मुसलमानों के आगे बढ़ने के लिए एक आदर्श उदाहरण है। वैसे शासन और सत्ता के द्वारा कुछ तथ्यों को थोपा जाना भी उचित नहीं है लेकिन शासन का तरीका अपना होता है। समाज अपने ढंग से समस्याओं का समाधान निकालता है।

इस्लाम के इतिहास में इस प्रकार के कई समस्याओं का समाधान आसानी से निकाल लिया गया है। दुनिया एक बार फिर इस्लाम की ओर देख रही है। यदि इस दिशा में इस्लामिक बिरादरी पहल करता है तो दुनिया में एक बड़ा संदेश जाएगा। इससे इस्लाम की छवि पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

(आलेख में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)

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