पूर्ण बर्बादी के मुहाने पर जोशीमठ, खानाबदोश बनती आम जनता

पूर्ण बर्बादी के मुहाने पर जोशीमठ, खानाबदोश बनती आम जनता

कंचन/अजय सिन्हा

प्रकृति पर मानवीय विजयों के कारण हमें अत्यधिक इतराना नहीं चाहिए, क्योंकि वह हर ऐसी विजय का हम से प्रतिशोध लेती है। यह सही है कि प्रत्येक विजय से पहली बार प्रथमतः वे ही परिणाम प्राप्त होते हैं जिन का हमने भरोसा किया था, पर द्वितीयतः और तृतीयतः उस के परिणाम बिल्कुल ही भिन्न तथा अप्रत्याशित होते हैं, जिनसे अक्सर पहले परिणाम का असर जाता रहता है।

  • फ्रेडरिक एंगेल्स

प्रकृति ने धरती पर कई जगह स्वर्ग से सुंदर स्थानों का निर्माण किया है। उन्हीं में से एक है भारत का उत्तराखंड जो देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। यह कभी उत्तरप्रदेश का हिस्सा था। भारत में पूंजीवादी विकास के एक दौर के बाद यह जर्जर बनता जा रहा है। विकास के नाम पर प्रकृति का अतिदोहन और लूट-खसोट एकाधिकारी वित्तीय पूंजीवाद की आम प्रवृत्ति है। इसलिए हर जगह की तरह इसके भी पर्यावरण पर पड़ने वाले बाह्य दबाव ने यहां की जलवायु में असंतुलन पैदा करके वर्षों पहले बर्बादी के कई तरह के लक्षण प्रकट करने लगे थे। तापमान का बढ़ना और ग्लेशियर का खिसकना इनमें से एक है जिससे यह पूरा सुरमई स्थान कल को धंस कर पूरी तरह विलोपित हो सकता है। इसी तरह अनियमित वर्षा, सर्दियों की बर्फ में कमी, फसलों के मौसम में आकस्मिक और दूरगामी बदलाव, अनियंत्रित आकस्मिक बाढ़ (जैसा कि 2013 और 2021 में देखा गया) की स्थिति इस जगह की बर्बादी के आम लक्षण बन चुके हैं। यहां के वायुमंडल, पर्वत-पहाड़, जंगल, नदियां, हरियाली, आदि वर्षों से विनाश की कगार पर आ खड़े हैं। जोशीमठ की पूर्ण बर्बादी की संभावना से लोग अभी भावनात्मक तौर पर उबरने की कोशिश ही कर रहे थे कि दो से तीन दिन पहले नैनीताल के नामी बैंड स्टैंड के बारे में यह जानकारी मिलने लगी कि वह (बैंड स्टैंड) झील की तरफ झुक चुका है और उसमें विलीन होने वाला है। यही नहीं, यह सूचना भी आ रही है कि आसपास की जमीनें, सड़कें और दीवारें दरकने लगी हैं। कहने का मतलब, बात सिर्फ चमोली जिला के जोशीमठ, उत्तरकाशी के मस्ताड़ी गांव, नैनीताल झील या बदरीनाथ की ही नहीं पूरे उत्तराखंड तथा पहाड़ों व जंगलों में रहने वाली हर उस जगह की है जहां बर्बादी और पूर्ण सफाये के लक्षण साफ-साफ दिख रहे हैं। पूरे विश्व में फैले सैंकड़ों ही नहीं हजारों जगहों की स्थिति जोशीमठ जैसी ही है। इतना ही नहीं, पूरी पृथ्वी, पूरा प्राकृतिक जगत और पृथ्वी के लोग दृ सभी पूंजी के लूट और अत्याचार से अस्तित्व के संकट से ग्रस्त हो चुके हैं। जोशीमठ के पूर्ण ध्वंस पर आ खड़ा होने को इसी नजरिये से देखने की जरूरत है।

धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में इस जगह के अस्तित्व का सवाल वर्षों नहीं दशकों पुराना है। जैसे-जैसे यह आधुनिक सुविधाओं से लैस होता गया, जीवन-जीविका के साधन और रोजगार की लालसा में प्रदेश व देश के कोने-कोने से लोग भी यहां आकर बसने लगे। जब मोदी सरकार आई तो इस जगह को विश्व प्रसिद्ध हिंदू और सारी आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस धार्मिक पर्यटन स्थल बनाने की कवायद ने तेजी पकड़ी। ”चार धाम महामार्ग परियोजना” ख्1, का उद्घाटन दिसंबर 2016 में स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने किया था, हालांकि इसके पहले की अलग-अलग सरकारों के समय ही इस जगह पर बड़े-बड़े होटल और आरामगृह तथा सड़कों का निर्माण किया जा चुका था। बिजली परियोजनाओं और इसी तरह की कई अन्य परियोजनाओं के शिलान्यास हो चुके थे। जब मोदी के समय में कॉर्पोरेट की कुदृष्टि इस क्षेत्र पर पड़नी शुरू हुई, तो यह और भी निश्चित हो गया कि मलबे से बने पत्थरों की ढेर पर टिका यह पहाड़ी क्षेत्र, जो पहले से ही अवैज्ञानिक और निर्मम कटाव झेल रहा था, अब बहुत बड़े पैमाने पर पूंजीवादी मुनाफे हेतु अतिदोहन का शिकार होगा। लेकिन तब तक प्रकृति के प्रत्याक्रमण की दुदुंभी बज गई। इतिहास ने करवट लेनी शुरू कर दी है। अब वहां पर जा बसे लोग वापस मैदानों में आ रहे हैं या लाये जा रहे हैं। लेकिन जैसे मुनाफे कमाने के मोह को कॉर्पोरेट और सरकारें नहीं छोड़ पा रहे हैं, वैसे ही पूंजी का मोह लोग भी नहीं छोड़ पा रहे हैं। लेकिन मानो प्रकृति के दरबार ने यह अंतिम फैसला दे दिया है कि सब कुछ छोड़ के भागो या फिर सर्वनाश के लिए तैयार हो जाओ। परिणामस्वरूप मकान, होटल, रिसॉर्ट, दुकान, स्कूल, सड़कें, नाले, टनल, पालतू जानवार एवं मवेशी सब के सब वहीं छूटने वाले हैं। बात उलट गयी है। वहां दशकों से बसे लोगों के क्रंदन की आवाजें पहाड़ों के दरकन को चीरती समतल मैदानों तक पहुंच रही हैं। लेकिन सवाल है कि क्या ये क्रंदन की चीत्कार और आवाजें बड़ी पूंजी के कप्तानों और सरमायेदारों तथा उनकी दलाल सरकारों के कानों तक पहुंचती हैं? क्या अब भी वे अपने अधिकतम लाभ के लिए प्रकृति का अतिदोहन बंद करने को तैयार हैं? हम जानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। आज के दिल्ली का निजाम तो कॉर्पोरेट का हमसफर बन मानो नशे में चूर ही बैठा है। वह उल्टी ही दिशा में सक्रिय है। वह इस ध्वंस की फैली सूचना को उन बड़ी परियोजनाओं को बदनाम करने की साजिश करार दे रही है। तो क्या सरकार यह चाहती है कि लोग या तो धंस कर मर जाएं या चुपचाप वहां से हट जाएं, लेकिन मुआवजे की मांग आदि के नाम पर हल्ला या शोर न मचायें, ताकि परियोजनाएं और नीतियां बदनाम न हों? पहले सरकार बड़े पूंजीपतियों की सरपरस्त बन कई महीनों तथा वर्षों तक अंधी-बहरी बनी रहती है। जब आसमान सर पर टूटने लगता है, जैसे कि आज जब जोशीमठ की विपदा दुनिया को रूला रही है, तो मोदी की सरकार वहां की बदइंतजामी और पैदा हुए बुरे हालात की सूचना पर प्रतिबंध लगाने में व्यस्त है। वहां से आते समाचार और सूचनाओं को दबाने में लगी है। सेटेलाइट से जोशीमठ की ली गई तस्वीरों को हटाने को कह रही है। लोगों का सही से पुनर्वास हो इसके लिए कोई काम कर रही है या नहीं कर रही है पता नहीं पर इसका प्रचार कल को खूब किया जाएगा। इसका सबसे अच्छा तरीका यही है कि बर्बादी की सूचना ही मत आने दो, या आये भी तो बहुत ही कम आये।

उत्तराखंड के चमोली जिले में लगभग 20 से 25 हजार घरों की आबादी का एक छोटा सा शहर है जोशीमठ, जो एक पुराने भूस्खलन क्षेत्र पर स्थित है। यह मुख्य रूप से कहें, तो हिमोढ़ (उवतंपदम), यानी पिघले ग्लेशियर के द्वारा लाये व जमा किये गये मिट्टी एवं पत्थर के मलबे पर खड़ा है। माना जाता है कि यह शहर करीब 100 साल पहले बसा है। भू-वैज्ञानिकों की मानें, तो आज जोशीमठ का वह आधार जिस पर वह विराजमान है कमजोर पड़ गया है, क्योंकि वह मिट्टी व पत्थर मिश्रित मलबे से बना है। संक्षेप में कहें तो यह शहर पिघले ग्लेशियर से बने अपेक्षाकृत विशालकाय पत्थर पर खड़ा है जो तापमान में वृद्धि से खिसकना शुरू कर दिया है। यूं तो इस जगह को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है और यह क्षेत्र हिंदुओं के धार्मिक स्थल बद्रीनाथ और केदारनाथ धाम का मुख्य प्रवेशद्वार भी है, लेकिन आपदा के कई मंजर देख चुकी इस भूमि को बचाने कोई देवता अभी तक अवतरित नहीं हुए हैं। यहीं से सिखों के धार्मिक मंदिर हेमकुंड साहिब की यात्रा भी की जाती है। यह यूनेस्को (न्छम्ैब्व्) की विश्व विरासत सूचि में शामिल फूलों की घाटी का प्रवेश द्वार भी है। यहीं शीतकालीन पर्यटकों का प्रसिद्ध गंतव्य स्थल औली भी स्थित है जहां लोग स्कीइंग का लुत्फ उठाने भी आते हैं। यानी, कई महत्वपूर्ण जगहों तथा पर्यटन स्थलों का प्रवेश द्वार होने के कारण ही जोशीमठ रोजगार का एक बड़ा केंद्र बन कर उभरा जिसकी लालसा में लोग यहां आकर बसने लगे। इसी के साथ यहां होटलों व आरामगृहों जैसी बड़ी इमारतें बननी शुरू हुईं। 1872 में यहां घरों की संख्या 455 थी, जो अब बढ़कर 20 हजार से ज्यादा हो चुकी हैं। मलबे से बने पत्थर के ऊपर खड़े इस शहर में जब मानव गतिविधियों ने जोर पकड़ा तो फिर वह घटने का नाम नहीं लिया। आज उस मलबे पर दबाव कितना बढ़ा है हम अंदाज लगा सकते हैं। धरती के अंदर स्थित ग्लेशियर रूपी पत्थर तापमान वृद्धि के साथ पिघलने लगा और परिणामस्वरुप मलबे के पत्थर अपनी जगह से खिसकने लगे। घरें-इमारतें और सड़कें सभी दरकने लगीं। कुछ धंस भी गयीं। अक्टूबर 2021 में पहली बार जोशीमठ के गांधीनगर और सुनील वार्ड में चैड़ी दरारे दिखीं। फिर साल 2022 के मध्य में रवि ग्राम वार्ड में भी ऐसी ही दरारे देखी गयीं। अभी ताजा घटना 2 जनवरी 2023 की है जहां अचानक विस्फोट की आवाज से जब वहां के वासियों की आधी रात को नींद खुली, तो कई मकान धंसते पाये गये और फिर कई इमारतों में बेहद चैड़ी दरारें पायीं गयीं।

भूमि की नाजुकता को देखते हुए निर्माण कार्य पर रोक लगाने के संदर्भ में मिश्रा कमिटी की रिपोर्ट के बाद कई अन्य विशेषज्ञों की रिपोर्टें भी आयीं और प्रकाशित हुईं। सवाल है, फिर भी यहां आबादी को क्यों बसने दिया गया तथा नई-नई आधुनिक विशालकाय परियोजनाओं के तहत निर्माण कार्य करने, खासकर निजी कंपनियों को बड़े-बड़े स्ट्रक्चर बनाने और टनल बनाने के लिए सतह के नीचे खनन करने, आदि के लिए निवेश करने की अनुमति क्यों स्वीकृत हुईं? स्वयं सरकार द्वारा भारी पैमाने पर आधारभूत संरचनाओं (जैसे चारधाम महामार्ग परियोजना तथा एनटीपीसी आदि) के निर्माण का काम हाथ में क्यों लिया गया?

18 सदस्यीय मिश्रा कमिटी की रिपोर्ट में, जिसके बारे में कहा जाता है कि इससे अधिक भविष्यसूचक रिपोर्ट कोई और दूसरी नहीं हो सकती है, जो कहा गया वह संक्षेप में यह है रू “जोशीमठ पश्चिम और पूर्व में क्रमशः कर्मनासा और ढकनाला से बंधी पहाड़ी के मध्य ढलानों में स्थित है। इसकी दूसरी तरफ धौलीगंगा और अलकनंदा बहती है। जोशीमठ एक प्राचीन भूस्खलन क्षेत्र पर स्थित है। इसके नीचे कोई चट्टान नहीं बल्कि रेत और पत्थर का जमाव है। उचित जल निकासी सुविधाओं का अभाव भी भूस्खलन का कारण बनता है। इसलिए यह एक बस्ती के लिए उपयुक्त नहीं था। पहाड़ों के किनारों को काटने से नवीन खतरनाक भूस्खलन ट्रिगर हो सकता है। विस्फोट, भारी यातायात, आदि से उत्पन्न कंपन सतह से संतुलन बनाने वाले नीचे स्थित प्राकृतिक कारकों में असंतुलन पैदा करेगा।” इसलिये, इस कमिटी ने स्पष्ट रूप से बता दिया कि अगर ऐसा विकास जारी रहा तो यह पूरी तरह जमींदोज हो सकता है।

1876 में ही गठित एम सी मिश्रा कमिट के रिपोर्ट में कही उपरोक्त बातों के ही नहीं लोगों के कड़े विरोध के बावजूद हम यह पाते हैं कि 1980 में यहां पर एक निजी कंपनी को “हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट” आबंटित कर दिया गया। साल दर साल सड़कों के और निजी कंपनियों के निर्माण कार्य में बढ़ोतरी होती गयी। अवैज्ञानिक तरीके से पहाड़ों की तोड़-फोड़ की गई और इसे लगातार जारी रखा गया। इसे ढंकने के लिए सरकार कह रही है कि स्थानीय लोगों का निर्माण कार्य इस विनाश के लिए जिम्मेवार है। जबकि कोई भी यह देख सकता है कि मुनाफे की भूख ने सरकारों के आंख पर पट्टी बांध दी है। 2006 में एक और परियोजना दृ एनटीपीसी की परियोजना (तपोवन विष्णुगड़ हायड्रो पॉवर प्रोजेक्ट) दृ को लोगों के विरोध के बावजूद लाया गया। इस परियोजना की हेड रेस टनल जोशीमठ के नीचे से, यानी भूगर्भीय रूप से नाजुक क्षेत्र से होकर गुजरती है। यह ध्यान रखना चाहिए कि परियोजना की अनुमति के लिए भूवैज्ञानिक जांच करना होता है। इसे न कराकर छज्च्ब् द्वारा नियुक्त एक निजी कंपनी को इसके लिए लगाकर इसकी खानापूर्ति कर दी गई। इसलिए सुरंग खोदने की अनुमित बिना किसी दिक्कत के मिल गई। सुरंग संरेखण के माध्यम से ओवरबर्डन की गहराई को स्थापित करने के लिए कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ी। भूवैज्ञानिक डॉ. पियुष रौतेला के दारा इस संबंध में जारी की गई एक रिपोर्ट को भी सरकार ने अनसुना कर पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। ख्3, पहाड़ों को खोद-खोदकर छलनी करने का काम हो या उनकी कटाई कर सड़क निर्माण का कार्य हो, किसी को भी रोका नहीं गया। सभी को आज यह तथ्य मालूम हैं कि जोशीमठ के वाशिंदे और वहां की प्रकृति का प्रतिनिधित्व करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों और भूवैज्ञानिकों की दलीलें भी कभी नहीं सुनी गईं। इसलिए ही 2003 से अभी तक न जाने कितने ही भूस्खलन हुए। 2013 और 2021 में अप्रत्याशित बाढ़ की विभीषिका आईं। 2016 की भारी वर्षा में पिथौरागढ़ के सैकड़ों पर लोगों की लाशें बिछ गईं। हजारों घर टूट गये। इस तरह विस्थापन के दिल दहलाने वाले मंजर देखे गये। पूंजीवादी व्यवस्था में सरकारें पूंजीपतियों के दलाल की भूमिका निभाती हैं। जोशीमठ मामले में भी यही साबित हुआ। वर्तमान की भाजपा सरकार और अन्य सरकारों के बीच सिर्फ इतने का फर्क है कि यह ज्यादा नंगे स्वरूप में पूंजीपति वर्ग के हितों को आगे बढ़ाती है। बस इतने का ही फर्क है।

आज से करीब 164 साल पहले विश्व सर्वाहरा के महान शिक्षक फ्रेडेरिक एंगेल्स की यह पंक्ति उपरोक्त बातों को सारगर्भित रूप में इस तरह पेश करती है – “राजनीतिक अर्थशास्त्र व्यापार के विस्तार के एक स्वाभाविक परिणाम के रूप में अस्तित्व में आया, और इसके प्रकटीकरण के साथ अस्तित्व में आये प्रारंभिक अवैज्ञानिक मोल-भाव की विधि को स्वच्छंद (लाइसेंसशुदा) धोखाधड़ी – सम्पन्नीकरण के एक पूर्ण विज्ञान – के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया, यानी संपन्नीकरण के एक पूर्ण विज्ञान में बदल दिया गया है।”

उत्तराखंड के भूवैज्ञानिकों के अनुसार, जोशीमठ नगर बहुत जल्द ही पूर्ण रूप से भूस्खलन की प्रक्रिया के कारण पूरी तरह वापस धरती में समाहित हो जाएगा। इसलिए लोगों को अपना जीवन बचाना है तो उनको अपने धंसते घरों को छोड़कर राहत शिविरों की ओर विस्थापन करना होगा। पिछले कई महीनों में यह नगर करीब कई इंच नीचे धंस गया है। इंडियन स्पेस रिसर्च ऑरगनाइजेशन के अनुसार, 27 दिसंबर 2022 से 8 जनवरी 2023 के बीच 5.4 सेंटीमीटर नीचे धंस चुका है। पिछले 6 हफ्तों में जोशीमठ के करीब 700 घरों में दरारें आ गई हैं और 478 घरों सहित 2 होटलों को खतरे के दायरे में बताया जा रहा और हजारों लोगों को दशकों से बने अपने घर का परित्याग कर रोते-बिलखते हुए राहत शिविर के तरफ बढ़ना पर रहा है। सरकार के तरफ से पूर्व की आपदाओं की तरह ही इस बार भी बड़े-बड़े झूठे वायदों का पिटारा मिला है। उत्तराखंड में बीते 9-10 सालों में बाढ़ और भूस्खलन से कई घर, खेत-खलिहान, मवेशी चपेट में आये, लेकिन सरकारी मुआवजे की बातें महज बातें ही रहीं। इसलिए इस बार भी, कुछ दिनों पहले चमोली के डीएम की घोषणा के मुताबिक आपदा से प्रभावित या राहत शिविर में रहने वाले लोगों को मात्र 6 महीने के लिए 4000 रुपया प्रति महीना, किराया के रूप में देने की सरकारी घोषणा की गई है। सोशल मिडिया वाॅयरल हो रही सूचना पर यदि भरोसा करें तो इतना भी नहीं मिल रहा, बल्कि कितने तो ऐसे हैं जो अपने बचे-खुचे पैसे से अपना निजी सामान किराए के दूसरे मकानों में पहुंचा रहे हैं।

संक्षेप में कहें तो पर्यावरण संकट से पृथ्वी और मानवजाति का बचाव आज निजी संपत्ति और मुनाफे पर आधारित पूंजीवाद के पूर्ण रूप से खात्मे की मांग कर रहा है। लेकिन क्या हम इस सच्चाई के लिए तैयार हैं? जहां पृथ्वी पर मानव इतिहास करीब ढाई लाख साल पुराना है, वहीं पूंजीवादी उत्पादन सम्बंध करीब 200 से 300 साल पुराना है। इस पूंजीवादी उत्पादन की निर्णयाक विशेषता यह है कि इसमें उत्पादन मानव श्रम शक्ति के सामान्य रूप से माल में परिवर्तित हो जाने पर आधारित है। इसी से मानव श्रम की पूंजीवादी लूट की वह आधारशिला रखी गयी है जिसके तहत स्वर्ग सी सुंदर हमारी प्रकृति भी, जो मानव जीवन को सींचने और उसके चतुर्दिक विकास में महान भूमिका निभाती आई है, लूट-खसोट की चीज बन कर रह गयी है। निस्संदेह, इस धरती के गर्भ में मौजूद संसाधान की अहर्निश (पल-पल) लूट से हमारी पृथ्वी आज वेंटीलेटर पर अपनी आखिरी सासें लेती प्रतीत हो रही है। आज इजारेदार वित्तीय पूंजी के वर्चस्व का युग है। इजारेदार वित्तीय पूंजीपति पूरी दुनिया के श्रम से उत्पन्न अधिशेष को अपनी मुट्ठी में करने की होड़ के बाद अब प्रकृति के अधिकतम दोहन की ओर मुड़ चुके हैं जिससे मानवजाति को आज महाविनाश और महाआपदाओं के मंजरों का सामना करना पड़ रहा है। अगर हम आगे भविष्य में भी इसे यूं ही लूटमार मचाने के लिए छोड़ देते हैं, तो आगे और भी अधिक भयंकर आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। जोशीमठ इसका एक छोटा सा उदाहरण मात्र है।

इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य हिमालय के चारधाम तीर्थस्थलों- केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को हाईवे के माध्यम से आपस में जोड़ना, कनेक्टिविटी में सुधार करने के लिए दृ दो लेन, 12 बाईपास सड़कें, 15 बड़े फ्लाईओवर, 101 छोटे पुलें, 3596 पुलियों और दो सुरंगों के साथ 900 किमी क्षतिग्रस्त राजमार्गों का नवीनीकरण करने और पर्यटन की पहले से बढ़ी हुई गति को सुगम यतायात के लिए 10 मीटर चैड़ी सड़के बनाने का है। बहाना यह बनाया गया कि उत्तराखंड की अर्थव्यस्था में पर्यटन रीढ़ की हड्डी है। सरकार की दूसरी दलील ‘राष्ट्र हित’ के मुखौटे में लायी गई। कहा गया कि ये नवनिर्मित पुलें और सड़कें चीन की सीमा तक सुरक्षा बलों की पहुंच आसान बनाएगी और किसी भी मौसम में जवानों तथा भारी मशीनों-हथियारों की तैनाती आसान हो जायेगी। यानी इस परियोजना को हर हाल मे लागू करने की मोदी सरकार की जिद है। जबकि यह सर्वविदित है कि इस परियोजना से सिर्फ उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पूरे देश की प्रकृति और पर्यावरणीय जीवन को बहुत जल्द ही जर्जर अवस्था में धकेल दिये जाने तथा प्राकृतिक आपदाओं की बड़े पैमाने पर आमद को निमंत्रण देने का खतरा बढ़ा है। इस बाबत समय-समय पर दायर दर्जनों याचिकाओं को खारिज कर उच्चतम न्यायालय ने भी इस खतरे की आमद पर मुहर लगा दी। इसके बाद इसे रोकने की सारी कोशिशों का अंत हो गया। अब सिर्फ प्रकृति के प्रलयकारी प्रकोप के विस्फोट के द्वारा ही इस दुष्टता को रोका जा सकता है।

एमसी मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट

सरकार द्वारा 1976 में कमेटी गठित की गयी थी। करीब 50 साल पहले सरकार ने गढ़वाल के तत्कालीन कलेक्टर एमसी मिश्रा को यह देखने के लिए नियुक्त किया था कि जोशीमठ क्यों धंस रहा है। सनद रहे कि भूवैज्ञानिक डॉ. पियुष रौतेला के द्वारा 2010 में एक रिपोर्ट जारी किया गया जिसके माध्यम से जोशीमठ की बिगड़ती स्थिति के बारे में सरकार को इन स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी गई थी – “हेड रेस टनल की खुदाई के लिए टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) लगाई गई थी। 24 दिसंबर 2009 को, इसने शेलोंग गांव के पास अलकनंदा के बायें किनारे से लगभग 3 किमी अंदर एक जल-वाहक स्तर को पंचर कर दिया। यह साइट औली के नीचे कहीं सतह से एक किलोमीटर से अधिक नीचे थी। जलभृत डिस्चार्ज लगभग 600-700 लाख लीटर प्रतिदिन था। जलभृत से पानी के अचानक बह जाने के कई तरह के प्रभाव होंगे, आसपास के झरने सूख जाएंगे। जोशीमठ के आसपास की बस्तियों को गर्मी के मौसम में पीने के पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा।”

(इस आलेख के दोनों लेखक, साम्यवादी चिंतनधारा से संबद्ध हैं। आलेख में व्यक्त विचार दोनों के निजी हैं। इससे जनलेख पबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)

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