बुर्जुगों की प्यार मोहब्बत की रिवायत के खिलाफ फतवे मुसलमानों की गैरत पर हमला

बुर्जुगों की प्यार मोहब्बत की रिवायत के खिलाफ फतवे मुसलमानों की गैरत पर हमला

सूफी कौसर मजीदी

वर्ष 1947 में हमारे बुर्जुगों के पास दो विकल्प थे। एक तो जिन्ना के नापाक सपनो का पाकिस्तान और दूसरा हमारे बुजुर्गों की अजमत और वकार का निशान हिन्दुस्तान। एक तरफ मुसलमानों का कथित इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान था तो दूसरी तरफ 85 प्रतिशत से अधिक हिन्दू आबादी पर आधारित पंथनिरपेक्ष हिन्दुस्तान। एक तरफ मुसलमान आस पड़ोस का माहौल रखने वाला पाकिस्तान था तो दूसरी तरफ मुख्तलिफ रवायात पर अमल पैरा हिन्दू पड़ोसियों का हिन्दुतान। एक तरफ जिन्ना की खुरेज सियासत का मकबरा पाकिस्तान तो दूसरी तरफ ख्वाजा मोइउद्दीन चिश्ती का हिन्दुस्तान। चारो तरफ खूनी पसमंजर के दिल दहराले वाले हालात थे, ऐसे में हमारे बुजुर्गों ने जिन्ना के होशरूबाई तिलस्म के मजहर मुसलमानों की हुकूमत वाले पाकिस्तान को लात मार कर 85 प्रतिशत से अधिक हिन्दू आबादी पर आधारित हिन्दुस्तान को अंगीकार किया।

अपने हम शया हिन्दुओं और दिगर मजाहिब के लोगों के सुख दुख में साथ चलने के वादों के साथ हिन्दुओं में रहने का अज्मलिया, यह जानते हुए कि मंदिरों की घंटियों की आवाजें, देवी जागरण और भागवत कथाओं के नजरों से दो-चार होना होगा, इन सब के दरमयान अपनी इस्लामी मजहबी रसुमात निभानी होगी। यह सब जानने के बाद भी हमारे बुजुर्गों ने हिन्दू आबादी को अपना बड़ा भाई समझते हुए उनके साथ अपने दामनों का वावस्ता किया और भारत की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी ने उन्हें अपने गले से लगाया। बाराबरी के हुकूक देने हुए बहुसंख्यक हिन्दू समाज के विद्वानों की बड़ी संख्या में स्थापित संविधान सभा द्वारा भारत को पंथनिर्पेक्ष राज्य बनाते हुए मुसलमानों को बराबरी के अधिकार दिए। यही नहीं अल्पसंख्यकों को वह भी अधिकार प्रदान किए गए, जो किसी इस्लामिक देश, खासकर पाकिस्तान में सोच पाना भी संभव नहीं है।  

एक बार नहीं कई बार देश ने राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, गृहमंत्री, कई राज्यों में मुख्यमंत्री और राज्यपाल सहित देश के सर्वोच्च पदों पर मुसलमानों को आसीन कराया। देश के प्रशासनिक सेवा, विदेश सेवा, तकनीकी सेवा, अभियंत्रण सेवा, कृषि सेवा आदि उच्च प्रशासनिक पदों आज मुसलमान बरे गुमान से आसीन हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल, न्याय, मनोरंजन सहित हर क्षेत्र में मुसलमानों को समान अवसर प्रदान किए जा रहे हैं। भारत के संविधान की महानता को कहां तक बखान किया जाए, मुस्लिम नेतृत्व द्वारा देश विभाजित कराए जाने की विभीषिका को स्पष्ट देखने के बाद भी भारतीय संविधान में मुस्लिम नेतृत्व के द्वार को बंद नहीं किया।

इन सब सत्य एतिहासिक तथ्यों के बाद आज जब कोई कट्टरपंथी मौलवी, मुल्ला किसी 150 साल पहले के मौलवी के फतवे की बिना पर यह कहता है कि हिन्दू के त्योहार पर मिठााई खरीदने मात्र से ही मुसलमान काफीर हो जाता है, तो मन को पीड़ा होने के साथ साथ शर्म भी महसूस होती है। भारत, इस देश की महानता और इस देश के बहुसंख्यकों की दरियादिली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बहुसंख्यकों के खिलाफ मुस्लिम धर्म गुरु फतबे जारी करते हैं और इस देश का सहिष्णु हिन्दू समाज उनके खिलाफ केवल लोकतांत्रिक और संविधान सम्मत प्रतिक्रिया मात्र व्यक्त करता है। अगर इसी प्रकार के कृत्य कोई हिन्दू या गैर मुसलमान किसी मुस्लिम देश में करे तो उसकी हत्या तय है। भारत में ऐसी कोई बात नहीं है। इसलिए हमें थोड़ा सतर्क तो होना ही पड़ेगा। हमारे मदसे में  आज खुलेआम वो फतवे पढ़ाए जा रहे हैं, जिसके मुताबिक होली का रंग अगर जिश्म पर पड़ जाए तो अल्ला कयामत के दिन उसका उतना हिस्सा काट देगा। क्या फालतू की बात हम अपनी पीढ़ी को पढ़ा रहे हैं।

एक पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में यह फतवा देना कि ‘‘गैर मुसलमानों को उनके त्योहार पर बधाई देने से मुसलमान काफिर हो जाता है।’’ हास्यास्पद है कि ऐसे आपराधिक फतवे वो मुल्ला देते हैं जो खुद अपनी विचारधारा के विपरीत मुसलमानों को काफिर मानते हैं। सच तो यह है कि संविधान विरुद्ध ये अनैतिक फतवे इंसानियत के भी खिलाफ हैं, क्योंकि हिन्दुओं के साथ मेलजोल रखना गुनाह होता तो इस्लामिक राष्ट्र के विकल्प के बाद भी हमारे बुजुर्ग भारत को अपना भविष्य नहीं बनाते।

होली के रंग से रंगजदा हिस्सा काट दिया जाएगा तो बाबा बुल्ले शाह, ‘‘होली खेलूं मैं पढ़ के विसमिल्ला’’ न गाते और आनंद मनाते। आलमपनाह वारिश पाक अपने दर पर होली न खिलवाते, बाबा निजामुद्दीन औलिया और मखदुम शाह सफी की दरगाहों पर दिवाली के दिए न जलाए जाते। हिन्दुओं के रश्मोंरिवाज अगर नाजाजय और हराम होते तो चिश्ती खानकाहों पर बसंत के उत्सव न मनाए जाते। भजन सुनने से कोई काफिर हो जाता तो सैयद इब्राहिम उर्फ रसखान अब्दुल, रहीम खानखाना, मलिक मोहम्मद जायसी कभी भजन न लिखते, मौलाना हसरत मोहानी श्रीकृष्ण को कृष्ण अल्लैइस्लाम नहीं कहते। अल्लामा इकबाल मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को इमामे हिन्द से न नवाजते।

हमारे बुजुर्ग इन सब बातों से आशना थे, यही वजह थी कि अपनी रिवायात पर अमल पैरा रहते हुए उन्होंने भारत को अपना भविष्य बनाया। आज बुजुर्गों की रूह यकीनन इन मुल्लाओं के तकफीरी फतवों को देखकर मायूस होंगी। इन बातों के आलोक में मैं भारत के मुसलमानों से पूछना चाहता हूं कि 800 साल पहले के हमारे बुजुर्गों की प्यार मोहब्बत की निवायत, के खिलाफ मोहब्बतों को तोड़ने वाले फतबे और फरमान क्या मुसलमानों की गैरत पर हमला नहीं है?

(लेखक सूफी खानकाहों वाले संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। आलेख में व्यक्त विचार इनके निजी हैं। जनलेख प्रबंधन का इससे कोई लेना देना नहीं है।)  

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate »