सुशोभित
कन्नौज के ट्रैफिक सब इंस्पेक्टर आफ़ाक़ ख़ान लगातार बहुत लोकप्रिय होते जा रहे थे। वे निराले अंदाज़ में ट्रैफिक के नियम सिखाते हुए वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डालते। फ़ेसबुक पर उनके फ़ॉलोअर्स की सूची 2.3 मिलियन को लांघ गई है, जो सेलिब्रिटीज़ की ही होती है। इंस्टाग्राम पर भी वो एक मिलियन छूने वाले हैं। मुझे उनके वीडियो देखकर सदैव ही बहुत आनंद आया। उनमें उनकी नेकी, ईमानदारी, साफ़गोई, सरलता झलक उठती। वो लोगों में यातायात-चेतना लाने के लिए कमर कसे हुए थे। इसके लिए वो अपनी जेब से पैसा ख़र्च करके भी हेलमेट, स्टिकर आदि का वितरण करते। कोई कुछ ग़लत करते हुए पकड़ा जाता तो मीठी समझाइश देकर छोड़ देते, लेकिन उस समझाइश का वीडियो लाखों लोगों तक पहुँचकर जनचेतना जगाता। युवा उनके साथ सेल्फ़ी लेने लगे थे। लोग उनसे मिलने कन्नौज आते। उनके पैर छूते थे। एक बार तो एक हिन्दू साधु भी उनसे मिलने आ पहुंचे और उनकी खूब प्रशंसा की।
ख़ान साहब के वीडियो देखते समय मैं मुस्कराता, लेकिन मन में एक खटका भी लगा रहता कि कहीं इन पर बुरी नज़रें न टिक जाएँ। क्योंकि एक तो भारत जैसे मक्कारी-प्रधान, भ्रष्ट देश में अच्छा काम करने का गुनाह कर रहे थे और वैसा करके लोकप्रिय भी हो रहे थे। और दूसरे, उनके नाम में ख़ान लगा था। और बुरी नज़र लग ही गई!
ख़ान साहब के खिलाफ़ शिकायतें की गईं। कन्नौज एसपी ने उन्हें लाइन हाजिर कर दिया। शिकायत क्या थी? यह नहीं कि उन्होंने कोई बुरा काम या भ्रष्टाचार किया। बल्कि यह कि एक स्कूल के कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने पैग़म्बर साहब की किसी सीख का हवाला दे दिया। उन पर इलज़ाम लगा कि पुलिस की वर्दी में इस्लाम का प्रचार कर रहे थे! हिन्दू संगठनों की कुण्ठित-कुण्डलिनी जगी। उन पर कार्रवाई की मांग की जाने लगी। दबाव में आकर पुलिस अधीक्षक ने उन्हें लाइन अटैच कर दिया। नतीजा ये है कि कन्नौज की सड़कों को सुरक्षित बनाने के लिए आन्दोलन छेड़ा हुआ एक सरकारी अधिकारी अब फ़ील्ड में नहीं, पुलिस लाइन में रिपोर्ट कर रहा है।
क्या ईमानदारी से काम करने वालों की भारत में यही नियति है? जिस देश में गली-गली में भ्रष्ट हैं, चोर हैं, वहाँ क्या मेहनत करने वालों को इसी तरह से सताया जाएगा? और क्या भारत में किसी अधिकारी के द्वारा पैग़म्बर मोहम्मद का नाम लेना ग़लत है? क्या यही मापदण्ड राम का नाम लेने पर भी लगेगा? अगर वर्दी में रहकर किसी धर्म का कोई भी हवाला देना ग़लत है, तो यह नियम सब पर लागू क्यों नहीं किया जा सकता? जबकि हमारे यहाँ तो तिलकधारी, भगवाधारी अधिकारियों की कमी नहीं है, जो खुलकर धर्म-प्रचार करते हैं। पुलिस थानों के परिसरों में ही मंदिर बने होते हैं। हमारी सरकारी मशीनरी कुम्भ से लेकर राम मंदिर और काँवड़ यात्रा तक हिन्दुओं के धार्मिक आयोजनों में तन-मन-धन से समर्पित रहती है। तब प्रशासन के पंथनिरपेक्ष मानकों का उल्लंघन नहीं होता, पैग़म्बर का नाम लेने पर ही होता है?
अगर भारत एक सेकुलर देश है तो ऐसा नियम बनाया जा सकता है कि कोई भी शासकीय या संवैधानिक पदाधिकारी सार्वजनिक रूप से अपने धर्म का पालन नहीं करेगा। किन्तु तब भी, टीएसआई आफ़ाक़ ख़ान वर्दी में नमाज़ नहीं पढ़ रहे थे, उन्होंने एक भाषण के दौरान पैग़म्बर की एक नेक सीख का हवाला भर दिया था। क्या यह भी धर्म का प्रचार करना हुआ? क्या यही नियम बुद्ध या नानक के उपदेशों को सार्वजनिक रूप से बोलने वाले अधिकारियों पर भी लागू करने का साहस किया जा सकता है? सऊदी अरब से लेकर जोर्डन-ओमान तक घूमने वाले प्रधानमंत्री से अगर परदेश में किसी ने पूछ लिया कि आपके देश के एक डबल इंजन वाले राज्य में एक पुलिस अधिकारी को पैग़म्बर का नाम लेने पर दण्डित क्यों किया गया है तो वो क्या कहेंगे?
जबकि आलम तो यह है कि देश में सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग आज काम से ज़्यादा पूजा-पाठ कर रहे हैं, या कहें पूजा-पाठ का दिखावा कर रहे हैं। क्योंकि भगवान का भला कौन-सा ऐसा भक्त होगा, जो कैमरा लेकर मंदिर में जाएगा और नानारूपों में अपने भद्दे फ़ोटो खिंचवाएगा? यह भक्ति है या ढोंग है? आज जब धर्म को दुधारू गाय समझकर वोटों की राजनीति के लिए बेशर्मी से उसका दोहन किया जा रहा है और जहाँ ज़रूरत ना हो वहाँ भी धार्मिक प्रतीकों का निर्लज्ज-उपयोग किया जा रहा है (चन्द्रयान लैंडिंग स्थल का नामकरण शिवशक्ति, मनरेगा का नामकरण जी राम जी), वहाँ कोई ख़ान नामधारी अधिकारी अपने किसी उद्बोधन में पैग़म्बर का नाम तक नहीं ले सकता?
यह किस तरह का देश इनके द्वारा बनाया जा रहा है? क्या हिन्दू धर्म ने यही शिक्षा दी है कि भेदभाव करो? और क्या हिन्दू धर्म यही सिखाता है कि चाहे जितना झूठ बोलो, बेईमानी और भ्रष्टाचार करो, लेकिन सार्वजनिक रूप से राम नाम जप और पूजा-पाठ के ढोंग से सारे पाप धुल जाएँगे, सारे प्रारब्ध कट जाएँगे?
अब समझ में आया कि अतीत में जब तमाम धर्मनिरपेक्ष दल एकजुट होकर साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता से बाहर रखने की कोशिशें किया करते थे तो उसका क्या कारण था। वो सही थे। भूल तो भारत के मतदाताओं से हुई है!
आलेख सोशल मीडिया से लिया गया है। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इसे वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ध्यान में रखकर सार्वजनिक कर रहा हूं। आलेख से हमारे प्रबंधन को कोई सरोकार नहीं है।
