राकेश सैन
पंजाब के लोगों में निहंगों के प्रति विश्वास की प्रतीक है यह लोकोक्ति ‘आ गए निहंग-बूहे खोल देयो निसंग’ अर्थात निहंग आ गए हैं और अब शंका रहित हो कर अपने दरवाजे खोल सकते हैं। इस लोकोक्ति से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी समय गुरु गोबिन्द सिंह जी की इस लाडली सेना के प्रति लोगों में कितना विश्वास था और इतना प्रेम कि लोग मुगलों के विरोध व धमकियों के बाद भी इनके लिए अपने घर के दरवाजे खोल देते थे। निहंग शब्द का स्मरण होने पर ध्यान में आता है नीली-पीली वेशभुषा, ऊंची झालरदार पगडियां, एक हाथ तलवार और दूसरे में माला, पगड़ी में सुदर्शन चक्र की भान्ति छल्ले और कमर कस्से डाल कर घोड़े पर सवार या पैदल सिपाही।
वह सिपाही जिसने अबदाली जैसी दानवी सेना तक को मजा चखाया और केसरी ध्वज अफगानिस्तान की सीमा के अन्दर तक झुला दिया था। जहां इनकी छावनी लगती या डेरा लगता वह स्थान ही निर्भीक हो जाता परन्तु, दिल्ली सीमा पर चल रहे विवादित किसान आन्दोलन के बीच निहंगों द्वारा एक दलित सिख लखबीर सिंह की की गई नृशंस हत्या ने निहंगों के प्रति समाज की धारणा को गहरी ठेस पहुंचाई है। पंजाबी लेखक सरदार वरिन्दर सिंह वालिया के अनुसार, इस घटना के जिम्मेवार लोगों को अगर ‘हैवान’ भी कहा जाए तो एक यह उनके लिए छोटा शब्द ही पड़ेगा। असल में सिंघू मोर्चे पर लखबीर सिंह की लाश नहीं बल्कि ‘बाणी और बाणे’ की मर्यादा को तार-तार कर लटकाया गया महसूस हुआ।
हत्या आरोपी निहंगों ने आरोप लगाया कि लखबीर सिंह वहां पर उपस्थित ‘सर्बलोह ग्रन्थ’ की बेअदबी कर रहा था। आरोपी निहंगों ने न तो कथित बेअदबी के प्रमाण देने जरूरी समझे और न ही लखबीर सिंह को पुलिस के हवाले करना। पहले तो उसे गाजर-मूली की तरह काटा गया और बाद में उल्टा लटका दिया गया। अत्याचार की पराकाष्ठा देखें कि जब वह रहम की भीख मांग रहा था तो निहंगों ने बरछों से उस पर कई वार किए और उसकी जिस बेदर्दी से हत्या की उसे देख कर औरंगजेब जैसे दुष्ट की आत्मा भी काम्प उठे।
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने जिस निहंग परम्परा को स्थापित किया व अकाल पुरख अर्थात साक्षात ईश्व की फौज कहलाई। श्री हरिमन्दिर साहिब की बेअदबी करने वाले मुगल सरदार मस्सा रंघड़ का सिर नेजे पर टांग कर लाने वाले भाई सुक्खा व सरदार मेहताब सिंह भंगू के मुखारविन्द से अकसर यह निकलता था कि ‘आपि न डरउ न अवर डरावउ’ अर्थात न तो आप डरो और न ही किसी और को डराएं। गुरु गोबिन्द सिंह कहा करते थे न तो किसी से डरें और न ही डराएं परन्तु पिछले कुछ समय में ऐसी घटनाएं घटीं कि आज ‘निहंग’ नाम सुनते ही भय का सा वातावरण बन जाता है। कोरोनाकाल में लॉकडाउन के नियम लागू करते हुए निहंगों ने जिस तरह पंजाब के पटियाला जिले में एक पुलिस अधिकारी का हाथ काट डाला, 26 जनवरी 2021 को नई दिल्ली में पुलिस वालों पर तलवारें चला कर कईयों को घायल किया और अब लखबीर सिंह की नृशंस हत्या की जिससे बाणी और बाणे अर्थात गुरु साहिबानों के सिद्धान्तों व निहंग सिंह के पहनावे और पदवी की बेअदबी हुई है।
शर्म की बात तो यह है कि आरोपी निहंगों को अपने किए पर पछतावा भी नहीं और वे इस तरह का काम भविष्य में करने की भी धमकी दे रहे हैं। इन निहंगों के अत्याचार करने के दौरान पीछे से ‘जो बोले सो निहाल’ के नारे भी लगते रहे। दूसरी ओर इस घटना के बाद हमारे समाज का क्रूर चेहरा भी उभर कर सामने आया है। हत्या के बाद पंजाब पहुंचे आरोपी निहंगों के गले में फूलमालाएं डाली गईं और उसे कौम के नायकों की तरह पेश किया गया। लखबीर सिंह की पाश्विक हत्या को पूरी दुनिया ने देखा परन्तु मरने के बाद भी उस पर अत्याचारों का सिलसिला रुका नहीं। अपने आप को मानवधर्मी होने का दावा करने वाले पंजाबी समाज ने तो मानो लखबीर सिंह के मामले में जैसे अत्याचारों के नए किर्तीमान स्थापित करने की ठान ली।
लखबीर की बहन ने लोगों से तंग आकर गांव छोडने का निर्णय लिया और उसकी पत्नी ने अपने ससुराल लौटने से इंकार कर दिया है। पुलिस की सुरक्षा के बीच हुए अन्तिम संस्कार के दौरान अरदास की रस्म भी नहीं करने दी गई। इलाके का कोई ग्रन्थी अन्तिम अरदास करवाने नहीं पहुंचा। गांव के लोगों ने लखबीर सिंह की लाश के साथ जो व्यवहार किया उसे देख कर तो असुरों की आत्मा भी शरमा जाए। लखबीर की लाश को श्मशानघाट ले जाया गया तो किसी ने वहां की बिजली बन्द कर दी। इससे परिजनों ने मोबाइल व वाहनों की लाइटें जला कर प्रकाश करने का प्रयास किया। लखबीर की लाश पर केरोसिन छिडक कर अन्तिम संस्कार किया गया और लाश से प्लास्टिक कवर भी नहीं हटाया गया। यहां तक कि परिवार वालों को मृतक अन्तिम दर्शन भी नहीं करने दिए। अन्तिम संस्कार से पहले श्री गुरु ग्रन्थ साहिब सत्कार कमेटी के सेवादार तरलोचन सिंह सोहल ने घोषणा कर दी कि शव का अन्तिम संस्कार नहीं करने दिया जाएगा। पुलिस के समझाने पर वह इसके लिए राजी हुआ, लेकिन स्थानीय लोगों को इसमें शामिल नहीं होने देने की शर्त रख दी।
इसके बाद गांव की महिला सरपंच के पति व जिला परिषद सदस्य मोनू चीमा ने भी इण्टरनेट मीडिया पर लाइव होकर कहा कि गांव के लोग इस फैसले पर सहमत हैं। परिवार के लोगों में गांव वालों की भय इस कदर देखा गया कि लखबीर को मुखाग्नि देने वाले ने अपना मुंह कपड़े से ढका हुआ था ताकि कोई उसकी पहचान न कर सके। लोगों का बदला हुआ व्यवहार देख कर मृतक की छोटी बेटी कुलदीप कौर बार-बार पूछती है कि ‘डैडी ने इहो-जिही की गलती कित्ती सी जिस नाल पिण्ड वाले रुस्से बैठे ने (पिता जी ने ऐसी क्या गलती कर दी कि गांव वाले रूठे हुए हैं)।’ परिवार की आर्थिक हालत इतनी कमजोर थी कि वे अन्तिम संस्कार तक का खर्च वहन कर पाने में असमर्थ थे। समाज की परम्परा के अनुसार, ऐसी हालत में समाज सहायता के लिए सामने आता है परन्तु लखबीर सिंह को मानवता का स्पर्श नसीब नहीं हुआ और लाश लेकर आए पुलिस वालों ने यह व्यवस्था की।
वञ्चित समाज और सिख पन्थ का चोली दामन का साथ रहा है। साल 1699 को बैसाखी वाले दिन खालसा पन्थ की स्थापना के समय अधिकतर इन्हीं वर्गों के लोग अपना बलिदान देने के लिए गुरु गोबिन्द सिंह जी के सम्मुख प्रस्तुत हुए। गुरु साहिबानों की मुगलों के साथ हुई लड़ाईयों में इन्हीं वर्गों के लोग अपने गुरु साहिबानों के साथ कन्धे से कन्धा जोड़ कर दुश्मनों से लोहा लेते रहे हैं। इन्हीं वर्गों के सिख पन्थ के प्रति बलिदान, त्याग, सेवा, समर्पण, शौर्य के चलते गुरु गोबिन्द सिंह जी कहते थे –
जुद्ध जिते इनही के प्रसादि,
इनही के प्रसादि सु दान करे।
अघ औघ टरै इनही के प्रसादि,
इनही की किरपा फुन धाम भरे।
इनही की प्रसादि सु विदिआ लई,
इनही की किरपा सभ सत्रु मरे।
इनही की किरपा से सजे हम हैं,
नही मो सो गरीब करोर परे।।
जब श्री गुरु तेग बहादुर जी को मुगलों ने शहीद कर दिया तो नई दिल्ली के चान्दनी चैक से गुरु साहिब का पवित्र शीश वञ्चित वर्ग से सम्बन्धित भाई जैता जी ही वहां से बड़ी चतुराई व बहादुरी से उठा लाए और श्री आन्दपुर साहिब जा कर उनके सपुत्र श्री गुरु गोबिन्द सिंह को सुपुर्द कर दिया। खुश हो कर गुरु साहिब ने आशीष दिया ‘रंगरेटा-गुरु का बेटा।’ परन्तु आज कुछ मार्ग भटक चुके निहंगों ने गुरु साहिबानों के वचनों अनुसार उनके बेटों में से ही एक की नृशंस हत्या कर गुरुओं की बाणी व निहंगों के बाणे की मर्यादा को तार-तार करके रख दिया। पूरी दुनिया ने सोशल मीडिया के माध्यम से लखबीर सिंह पर होने वाले अत्याचारों को देखा और निहंगों के इस कृत्य से पूरी दुनिया में सिख समाज की छवि बिगड़ी है जिसकी क्षतिपूर्ति होने में लम्बा समय लग सकता है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेना-देना नहीं है।)