पुष्पिंदर
भोजन इंसान के ज़िंदा रहने के लिए लाज़िमी है। लेकिन मुनाफ़े पर आधारित यह पूँजीवादी व्यवस्था लोगों को ना केवल भूख से मार रही है, बल्कि लोगों को ज़हरीले खाद्य पदार्थ परोसकर उनकी सेहत के साथ भी बड़ा खिलवाड़ कर रही है। विज्ञान के कारण दुनिया के अनाज भंडार में काफ़ी बढ़ौतरी हुई है, तरह-तरह के उत्पाद आम लोगों को मिल सकते हैं, लेकिन आज का विज्ञान पूँजीवादी व्यवस्था की गिरफ़्त में होने के कारण लोगों के जीवन को बेहतर बनाने से ज़्यादा पूँजीपतियों के लिए ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने का ज़रिया बन गया है।
यह विज्ञान की ही उन्नति है कि पहले ऐसे बहुत से खाद्य पदार्थ जिनका लंबे समय तक भंडारण नहीं किया जा सकता था, अब उन्हें जल्दी खराब होने से बचाया जा सकता है। लेकिन अब यह पूँजीवादी व्यवस्था इस तकनीक का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग करती हुई बड़ी मात्रा में ऐसे रसायनों का उपयोग करती है जिनका मानव स्वास्थ्य पर हानिकारक असर हो रहा है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक़ अगर इन रसायनों का इस्तेमाल सीमित मात्रा से ज़्यादा किया जाए तो फ़ायदे के बजाय इंसान की सेहत का नुक़सान ज़्यादा होता है।
पिछले दिनों एक ख़बर बड़ी चर्चा में रही। हांगकांग के खाद्य सुरक्षा संस्थान ने 5 अप्रैल 2024 को भारत के मसालों की सबसे बड़ी कंपनी एम.डी.एच. और एवरेस्ट के पाँच मसालों की बिक्री पर रोक लगा दी। हांगकांग से पहले, ऑस्ट्रेलिया, बंगलादेश, मालदीव, सिंगापुर और संयुक्त राज्य अमेरिका (अमेरिका) स्वास्थ्य सुरक्षा का हवाला देते हुए भारत से बहुत सारे डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की बिक्री पर प्रतिबंध लगा चुके हैं। हांगकांग के इस संस्थान के अनुसार, एम.डी.एच. के मसालों में ज़रूरत से ज़्यादा एथिलीन ऑक्साइड की मात्रा पाई गई। एथिलीन ऑक्साइड एक ज्वलनशील गैस है जिसका उपयोग मसालों को लंबे समय तक संरक्षित करने के लिए किया जाता है। सेहत विशेषज्ञों के अनुसार एथिलीन ऑक्साइड सेहत के लिए बहुत ख़तरनाक है। एथिलीन ऑक्साइड का उपयोग औद्योगिक जाँच, कृषि कीटनाशकों, सूखी सब्ज़ियों और अन्य खाद्य पदार्थों में किया जाता है, लेकिन खाद्य सामग्री विशेष रूप से डिब्बाबंद में अत्यधिक मात्रा में इसका प्रयोग जीवन के लिए ख़तरनाक हो सकता है।
अमेरिका की खाद्य जाँच एजेंसी ‘एफ़.डी.ए.’ द्वारा साल 2002 से 2019 तक भोजन, फलों और अन्य डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों के नमूनों की जाँच के दौरान 5,115 फेल हो गए थे। अकेले साल 2023 के दौरान भारत के लगभग 30 खाद्य पदार्थ अमेरिका के स्वास्थ्य सुरक्षा मानकों को पूरा नहीं कर पाए। इनमें रामदेव भोजन पदार्थ प्राइवेट लिमिटेड के 19 नमूने, एम.डी.एच. के 7, एवरेस्ट मसाले के 2 और बादशाह मसाला का एक नमूना अमेरिका के स्वास्थ्य सुरक्षा मानकों में फेल हो गया। अमेरिकी खाद्य परीक्षण संस्थान ने कहा कि इन खाद्य पदार्थों में साल्मोनेला पाया गया था। साल्मोनेला असल में बैक्टीरिया का एक समूह है, जो लीवर से संबंधित बीमारियों, दस्त और पेट दर्द का कारण बन सकता है। आगे बात करें तो यूरोपीय खाद्य सुरक्षा संस्थान ने सितंबर 2020 से अप्रैल 2024 तक भारत से संबंधित लगभग 257 उत्पादों जैसे दवाएँ, मसाले, फल, डिब्बाबंद जूस आदि की बिक्री पर पाबंदी लगा दी है। यूरोपीय संघ के इस संस्थान का कहना है कि भारत से आने वाले खाद्य पदार्थों में ज़रूरत से ज़्यादा रसायन पाए गए, जो मानव स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं।
एक तरफ़ विदेशों में भारत के खाद्य पदार्थों पर सवाल उठ रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ भारत की ‘भोजन सुरक्षा और मानक अथॉरिटी’ कुंभकर्णी नींद सो रही है। विदेशों में भारत के जिन मसालों या डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की बिक्री पर पाबंदी लगी है, उन्हें लोगों के स्वास्थ्य को ख़तरे में डालते हुए देश के बाज़ार में धड़ाधड़ बेचा जा रहा है। ये पूँजीवादी कंपनियाँ मुनाफ़े के चक्कर में लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ कर रही हैं, लेकिन इसके बारे ना तो सरकारी संस्थान कुछ कर रहे हैं और ना मीडिया ध्यान दे रहा है। जब विदेशी मीडिया में भारत के खाद्य पदार्थों की थू-थू होने लगी तो भारत का सुरक्षा विभाग अचानक नींद से तो जागा, लेकिन इतना-सा मुँह खोलने के लिए कि “जिन देशों ने स्वास्थ्य सुरक्षा कारणों से सवाल उठाए हैं, उन उत्पादों के नमूनों की जाँच की जाएगी।”
कितनी जाँच की जाएगी, यह तो हम जानते ही हैं, लेकिन यहाँ एक और बात करनी ज़रूरी है कि भारत के लगभग दस राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में भोजन जाँच लैबों की भारी कमी है और खाद्य सुरक्षा अधिकारियों की संख्या भी बहुत कम है। ऊपर से बड़ी कंपनियों के राजनीतिक रसूख के कारण खुलेआम यह ज़हर आम लोगों को परोसा जा रहा है।
इसके साथ ही एक ख़बर नेस्ले से जुड़ी हुई है। नेस्ले 1866 में स्विट्ज़रलैंड में बनी एक कंपनी है। यह शुरुआत में नवजात शिशुओं के लिए दूध या उससे जुड़े पदार्थ बनाती थी। इसके बच्चों के खाद्य उत्पाद ब्रांड गेरबर, नेचरनैस, सेरेलैक और निडो हैं। संसार में इन ब्रांडों का लगभग 11.2 अरब डॉलर का कारोबार है। स्विट्ज़रलैंड की एक ‘पब्लिक आई’ नाम की संस्था ने अपनी एक रिपोर्ट पेश करते हुए कहा कि नेस्ले द्वारा तीन साल तक के बच्चों के लिए तैयार किए गए खाद्य उत्पादों में ज़रूरत से ज़्यादा चीनी की मात्रा पाई गई है। इंटरनेशनल बेबी फ़ूड एक्शन नेटवर्क ने नेस्ले के लगभग 115 उत्पादों की जाँच की। जाँच में पाया गया कि लगभग 94 फ़ीसदी बच्चों के खाद्य पदार्थों में शुगर की मात्रा ज़्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 3 साल तक की उम्र के छोटे बच्चों के भोजन में शूगर बिल्कुल नहीं होनी चाहिए।
हैरानी की बात यह है कि नेस्ले बच्चों के जिन उत्पादों के मामले में विकसित पूँजीवादी देशों जैसे अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि में जीरो शुगर पॉलिसी लागू करता है, लेकिन ऐसा तीसरा दुनिया के ग़रीब देशों के मामले में नहीं किया जाता। इस कंपनी द्वारा ग़रीब देशों में बच्चों को मीठे के रूप में ज़हर दिया जा रहा है। जानकारों का कहना है कि छोटे बच्चों के खाद्य पदार्थ जैसे दूध, शहद आदि में जीरो शुगर नीति के लिए उत्पादन के पैमाने सख़्त करने पड़ते हैं, जाँचें ज़्यादा करनी पड़ती हैं, जिससे ख़र्चा भी ज़्यादा होता है। ख़र्चे से बचने और ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा हथियाने के लिए नेस्ले मासूम बच्चों की ज़िंदगी से खिलवाड़ कर रही है। विश्व स्वास्थ्य संस्था के अनुसार, छोटे बच्चों के खाद्य पदार्थों में शूगर की मात्रा उनके स्वस्थ शारीरिक और मानसिक विकास में बाधा है। नवजात शिशु का पाचन तंत्र इस शुगर को पचाने के असमर्थ होता है, जिसके चलते बच्चों को गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है और उनमें मोटापा, डायबिटीज़, हृदय रोग, चमड़ी की समस्याएँ, दाँतों और मसूड़ों का कमज़ोर होना, रोगों से लड़ने की क्षमता में कमी आ जाना, यहाँ तक कि बच्चे की मानसिकता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। हालाँकि नेस्ले ने रिपोर्ट पर सार्वजनिक टिप्पणी करते हुए कहा है कि उसे बच्चों के स्वास्थ्य की चिंता है और 2024 के अंत तक तीसरी दुनिया के देशों में भी जीरो शुगर नीति पूरी तरह लागू कर दी जाएगी। लेकिन यह की जाएगी या किस हद तक की जाएगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा और जो ज़हर इसने और अन्य ऐसी कंपनियों ने आम लोगों को परोसा है, उसकी भरपाई कैसे होगी, इसके बारे में नेस्ले ने कोई बात नहीं की।
आज मुनाफ़े के लिए जो कंपनियाँ लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही हैं, इन पर सख़्ती से कारवाई होनी चाहिए और ज़हर बेचने का कारोबार करने वालों को सख़्त से सख़्त सज़ा मिलनी चाहिए। लेकिन मुनाफ़े पर आधारित यह व्यवस्था ऐसा नहीं कर सकती। लोगों को अच्छे भोजन, अच्छी रिहाइश, स्थाई तनाव मुक्त रोज़गार आदि का सवाल इस शोषण आधारित समाज बदलने से जुड़ा सवाल है और इस पूँजीवादी समाज को बदलकर ही लोगों के स्वास्थ्य में भी बड़े बदलाव किए जा सकते हैं।
(यह आलेख मुक्ति संग्राम नामक हिन्दी की मासिक पत्रिका से ली गयी है। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)