वामपंथ/ आतंकवाद के नाम पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने 45 लाख से ज्यादा निर्दोषों को मार डाला

वामपंथ/ आतंकवाद के नाम पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने 45 लाख से ज्यादा निर्दोषों को मार डाला

गुरप्रीत चोगावाँ

अमेरिकी साम्राज्यवाद के बर्बर अपराधों का पर्दाफाश करने वाली एक दिल-दहलाने वाली रिपोर्ट सामने आई है। इस रिपोर्ट को संयुक्त राज्य अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी में ‘द कॉस्ट ऑफ वॉर’ (युद्ध की कीमत) नामक एक प्रोजेक्ट के तहत प्रकाशित किया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 2001 में हुए हमले के बाद से, अमेरिका के तथाकथित “आतंकवाद के खलिाफ युद्ध” में 45 लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और 38 लाख लोग, जिनमें ज्यादातर बच्चे हैं, बेघर हो गए हैं। अमेरिका ने आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया, यमन और मध्य पूर्व के कई अन्य देशों में अपने सैनिकों को तैनात किया। इन युद्धों का असल मकसद मध्य-पूर्व और मध्य एशिया क्षेत्र में अमेरिकी साम्राज्यवाद के हितों को सुरक्षित करना था। अमेरिकी हमलों के कारण इन देशों में कृषि और बुनियादी ढाँचा पूरी तरह से नष्ट हो गया है और ज्यादातर आबादी भुखमरी की स्थिति में है। स्वास्थ्य सुविधाओं का लगभग पूर्ण अभाव है। इराक, सीरिया, लीबिया में हिंसा के कारण लोग लगभग नारकीय स्थिति में जीवन जी कर रहे हैं। इन दो दशकों में अमेरिका के चार अलग-अलग राष्ट्रपतियों ने ना केवल इन युद्धों को जारी रखा, बल्कि कई नए युद्धों की शुरुआत भी की। सीरिया और लीबिया पर सबसे ज्यादा बम गिराने वाले बराक ओबामा को तो “शांति” का नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है। आइए देखें कि कैसे अमेरिका ने “शांति और लोकतंत्र” के नारे के नाम पर विभिन्न देशों में लोगों का कत्लेेआम किया।

अफगानिस्तान

9 सितंबर 2001 को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर एक आतंकी हमला हुआ, जिसमें 3000 लोग मारे गए। दरअसल इन आतंकियों को अमेरिका ने ही शीत युद्ध के दौरान रूस के खलिाफ इस्तेमाल करने के लिए तैयार किया था। इन्हें प्रशिक्षण और हथियारों की आपूर्ति अमेरिकी सेना ने करवाई थी। लेकिन बोतल से निकाला गया यह जिन्न बाद में खुद अमेरिकी हुक्मरानों पर ही बरस पड़ा। इस हमले को भी अमेरिकी शासकों ने अपनी सैन्य योजनों को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया। अक्टूबर 2001 में अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया। इस हमले के लिए अफगान तालिबान द्वारा अलकायदा और ओसामा बिन लादेन को शरण देने को बहाने के रूप में इस्तेमाल किया गया। असल में, अफगानिस्तान के क्षेत्र का अमेरिकी साम्राज्यवादियों के लिए एक विशेष युद्धनीतिक महत्व है। अफगानिस्तान मध्य एशिया के तेल भंडार तक पहुँचने का प्रवेश द्वार है। मध्य एशिया के देश रूसी साम्राज्यवाद के प्रभाव क्षेत्र में थे। अमेरिका इस क्षेत्र में रूस और चीन के प्रभाव को कम करना चाहता था। इसकी सीमा चीन, ईरान जैसे देशों से लगती है, जो अमेरिकी साम्राज्यवाद के दुश्मन हैं। अफगानिस्तान में विभिन्न प्रकार के खनिजों का भंडार भी हैं। इसके अलावा अफगानिस्तान अफीम की खेती और व्यापार का भी केंद्र है। इन्हीं सब कारणों से अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया। इस हमले में जल्द ही तालिबान की सरकार को उखाड़ फेंका गया और अमेरिका की पिट्ठू सरकार को सिंहासन पर बिठाया गया। लेकिन 20 साल के युद्ध के बाद भी अमेरिका इस क्षेत्र में पैर नहीं जमा सका और 2021 में अमेरिका को हार कबूल करनी पड़ी और शर्मनाक तरीके से वहाँ से भाग निकला। लेकिन दो दशक लंबे इस युद्ध ने अफगानिस्तान पर भयानक प्रभाव छोड़ा। पूरे देश में भयानक बमबारी की गई। इस बमबारी में स्कूल, अस्पताल, यहाँ तक कि आम नागरिकों के घरों को भी निशाना बनाया गया। अफगानिस्तान और इससे सटे पाकिस्तान के इलाकों में अमेरिकी बमबारी से 70 हजार से ज्यादा नागरिक मारे गए। अफगान पुलिस और सेना के 69 हजार और अमेरिकी सेना के खलिाफ लड़ने वाले 52,093 लड़ाके भी इसी युद्ध में मारे गए। वर्ष 2021 तक अफगानिस्तान में 60 लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए। इस विस्थापन का मुख्य कारण अमेरिका द्वारा थोपा गया युद्ध है। 20 वर्षों के युद्ध के कारण आज अफगानिस्तान में 95ः लोग भुखमरी की स्थिति में हैं। अमेरिकी बमबारी के कारण स्वास्थ्य सुविधाएँ लगभग ना के बराबर हैं। जनवरी से मार्च 2022 के बीच 13,000 नवजात शिशुओं की मौत हुई। 39 लाख बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं। 10 लाख बच्चे लगभग मौत की कगार पर हैं। इन सभी मौतों के लिए सीधे तौर पर अमेरिकी शासक जिम्मेदार हैं।

इराक

2003 में, अमेरिका और उसके सहयोगियों ने इराक पर युद्ध की घोषणा कर दी। आधिकारिक तौर पर इस हमले का कारण इराक में बड़े पैमाने पर तबाही मचाने वाले हथियारों की मौजूदगी और आम नागरिकों पर हो रहे इनके इस्तेमाल को बताया गया। यह सरासर झूठ था, जिसका अमेरिका और उसके सहयोगी ब्रिटिश शासकों के पास कोई ठोस प्रमाण भी नहीं था। इसके अलावा इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के अलकायदा से जुड़े होने की आशंका भी जताई गई। इसका असली कारण सद्दाम हुसैन की वे नीतियाँ थीं, जिन्होंने इराक में अमेरिकी डाॅलर के इस्तेमाल को कम करना था। अडाॅलरीकरण के ये कदम अमेरिकी साम्राज्यवाद को मंजूर नहीं थे। इराक की सरकार और लोगों के खलिाफ नफरत फैलाने के लिए अमेरिकी मीडिया ने अपने प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह प्रचार 9ध्11 के बाद हुए मुस्लिम विरोधी प्रचार का ही हिस्सा था। इराक युद्ध में अमेरिकी साम्राज्यवाद ने बर्बरता की सारी हदें पार कर दी। आठ साल तक चले इस युद्ध में दस लाख लोग मारे गए थे। इस युद्ध में, 4 लाख 40 हजार इस्तेमाल किए जा चुके यूरेनियम बम गिराए गए, जिससे इराक में कैंसर जैसी बीमारियाँ व्यापक रूप से फैल गईं। इराक की स्वास्थ्य व्यवस्था को जानबूझकर निशाना बनाया गया। यहाँ तक कि बच्चों के अस्पतालों पर भी बम गिराए गए। इस युद्ध के कारण 18 हजार से ज्यादा डॉक्टर इराक छोड़कर दूसरे देशों में चले गए। इससे स्वास्थ्य सुविधाएँ पूरी तरह बंद होने के कगार पर पहुँच गई हैं। इराक में छोटे बच्चों की मौत के प्रमुख कारणों में हैजा, तपेदिक जैसी बीमारियाँ हैं, जो युद्ध से पहले इतनी व्यापक नहीं थीं। इराक में 90 लाख से ज्यादा लोग उजाड़े का शिकार हुए हैं। अमेरिकी सेना ने आठ साल तक इराक पर कब्जा करके रखा और दिखावे के लिए एक कठपुतली “लोकतांत्रिक” सरकार भी बनाई। अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने इराक में शिया-सुन्नी सांप्रदायिकता को भी हवा दी।

इतने बड़े पैमाने पर मानवता की हत्या करने के बाद भी अमेरिका इराक में घातक हथियारों की मौजूदगी को साबित नहीं कर पाया है, लेकिन फिर भी उसने इराक युद्ध के लिए कभी माफी नहीं माँगी है। इस युद्ध की तैयारी बहुत पहले से ही शुरू हो गई थी। अमेरिका, जिसने इराकी राष्ट्रपति सद्दाम पर रासायनिक हथियारों का आरोप लगाया था, ने खुद ही इराक युद्ध में नागरिकों पर सफेद फास्फोरस का इस्तेमाल किया, जो नमी के संपर्क में आते ही गंभीर रूप से चमड़ी और आँखों को जला डालता है। इसके अलावा इराक की अबू-घरीब जेल में निर्दोष लोगों पर अमानवीय अत्याचार किए गए। इस घटना की तस्वीरें सामने आने के बाद भी इसके लिए जिम्मेदार किसी भी अधिकारी को कोई बड़ी सजा नहीं दी गई।

अमेरिका ने इराक और अफगानिस्तान के अलावा पिछले 20 सालों में लीबिया, सीरिया और यमन में भी लोगों का कत्लेेआम किया है। हालाँकि इन युद्धों की खास बात यह रही कि अमेरिका ने इराक के बाद इन देशों में सीधी सैन्य कार्रवाई नहीं की, बल्कि लीबिया और सीरिया के मामले में उसने ज्यादातर हवाई हमले किए या किसी एक या दूसरे गुट को अपना समर्थन देकर इन क्षेत्रों पर अप्रत्यक्ष युद्ध थोप दिया। सीरिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद के हमलों और गृहयुद्ध के कारण 65 लाख लोग देश के भीतर विस्थापित हुए हैं और 56 लाख लोग दूसरे देशों में शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं। सीरिया में चल रहे युद्ध में भी अमेरिकी और रूसी साम्राज्यवादियों द्वारा समर्थित गुट ही आपस में लड़ रहे हैं।

2001 के बाद से आतंकवाद के खलिाफ युद्ध के नाम पर लोगों पर थोपे गए इन युद्धों में 9 लाख 37 हजार लोग सीधे तौर पर और लगभग 36 लाख लोग युद्ध से पैदा हुई गरीबी, खाद्य संकट, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और बीमारियों के कारण मारे गए हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से यह मानवता का सबसे बड़ा नुकसान है, जिसका मीडिया में ज्यादा जिक्र नहीं किया जाता है। इन युद्धों के बाद भी अमेरिकी साम्राज्यवाद अपनी इन युद्ध परियोजनाओं से पीछे नहीं हटा। अब अमेरिका दक्षिण-चीन सागर में साम्राज्यवादी चीन से भिड़ने की तैयारी कर रहा है। मार्च 2023 में ही अमेरिकी सरकार ने रक्षा बजट में 2022 की तुलना में 100 अरब डॉलर की बढ़ोतरी कर दी है। यह इस बात का संकेत है कि निकट भविष्य में अमेरिका और साम्राज्यवादी चीन और रूस की आपसी कलह और तीखी होगी। इस तरह संसार पर एक बार फिर और बड़े युद्धों का खतरा मँडरा रहा है। अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान, इराक और अन्य देशों पर थोपे गए युद्धों का मकसद इन देशों के आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों को जब्त करना और इन देशों को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाना और इस प्रकार साम्राज्यवादी ताकतों को कमजोर करना है। युद्धों और सैन्य कार्रवाइयों के जरिए साम्राज्यवादी मेहनतकश जनता को लूटने की अपनी नीतियों को ही आगे बढ़ाते हैं। कभी यह कूटनीतिक तरीके से किया जाता है तो कभी युद्ध के जरिए। इन युद्धों के अंत के लिए साम्राज्यवाद और पूँजीवाद का अंत एक आवश्यक शर्त है। सिर्फ और सिर्फ समाजवाद का रास्ता ही मानवता को इन युद्धों से मुक्त करा सकता है।

(लेखक साम्यवादी मासिक हिन्दी के संपादक मंडल सदस्य हैं। आलेख में व्यक्त विचार आपके निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)

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