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राधाकान्त भारती
बिहारी की राजधानी पटना के दक्षिण-पश्चिम में मात्र 30 किलोमीटर की दूरी पर बसा ऐसा स्थान है, जहां किसी जमाने में इस्लाम के रहस्यवादी चिंतकों की एक पूरी पीढ़ी निवास करती थी। यदि आप बिहार गए और मनेर की लड्डू नहीं खाई तो आपका बिहार गया सफल नहीं माना जाएगा। यह वही मनेर शरीफ है, जहां से किसी जमाने में लड्डू बनती थी और मुगल बादशाह जहांगीर को भेज दी जाती थी। मिथक हो या सत्य लेकिन स्थानीय लोग बताते हैं कि मुगल सुल्तान जहांगीर इस लड्डू के इतने दिवाने थे कि लड्डू लाने के लिए मुगलिया सल्तनत ने घुड़सवारों की एक पूरी पल्टन बना रखी थी। मनेर शरीफ किसी समय सोन और गंगा नदी के संगम पर बसा हुआ था। आज का मनेर एक छोटा-सा कस्बा है, वही करीब दो हजारों घरों का और सड़क के किनारे कुछ दुकानें हैं जिसमें दैनिक जीवन में काम आने वाली चीजें मिल जाती हैं। यहां का नुक्दी का लड्डू बहुत मशहूर है।
मनेर किसी समय मुस्लिम संस्कृति का बिहार में सबसे पुराना केंद्र था। ग्यारहवीं शताब्दी में और उसके बाद भी यह सूफी फकीरों का आध्यात्मिक केंद्र बना रहा। यहां समूचे हिंदुस्तान से सूफी संत आया करते थे और सूफी मत के फैलाव के लिए उपाय सोचा करते थे। मनेर के पाक फकीरों की संगति में आने के लिए सूबेदारों, रईसों, मुगलों और पाठन सामंतों में होड़ मची रहती थी।
मध्ययुग के मुस्लिम इतिहास में मनेर का नाम बड़ी इज्जत के साथ लिया गया है। आज भी मुसलमानों के दिल में इसके प्रति बहुत आदर है। साल में यहां दो बार दो फकीरों की पुण्य तिथि मनायी जाती है। उस समय धर्म-प्राण मुसलमानों का बड़ा मेला लगता है।
कहा जाता है कि मनेर में पहले एक रक्षा-दुर्ग भी था। परंपरा से कहानी चली आती है और चट्टानों पर खुदे लेखों से भी साबित होता है कि इतिख्तयारूद्दीन मोहम्मद बिना बख्तियार की लड़ाई के बहुत पहले मनेर तुर्को के कब्जे में था।
इतिहास कहता है कि अरब के फकीर हजरत मोमिन को मनेर के राजा ने बहुत सताया तो वे मदीना वापस चले गये और जेरूसलम के हजरत ताज फकीह के सेनापतित्व में दरवेशों की एक फौज लेकर मनेर लौटे। राजा हार गया और 576 हिजरी यानी सन् 1180 में खुदा के बंदों ने किले पर अधिकार जमा लिया। मनेर के उत्तर पूरब कोने पर अब भी ऊंचा गढ़ है। वही राजा का किला था।
मनेर में इस समय दो दरगाह हैं, बड़ी और छोटी। बड़ी दरगाह बिहार के मुसलमानी धर्म-स्थानों में सबसे ज्यादा पवित्रा गिनी जाती है। इसमें महान सूफी संत हजरत मखदूम यहिया मनेरी की कब्र है। मखदूम साहब सन् 1291 ई॰ में मरे थे। वे हजरत ताज फकीह के पोते थे। बिहार के मुसलमान संतों के वे सरदार थे। देश के मुसलमान फकीरों में उनका नाम आज भी बड़े अदब से लिया जाता है।
बड़ी दरगाह के दक्षिण में ताजुद्दीन खंडगाह साहब की मजार है। वे महसूद गजनी के भतीजे थे। दरगाह के उत्तरी फाटक पर सिंह शार्दूल है। एक सिंह एक हाथी को अपने चारों पंजों से दबोचे हुए है। यह मध्ययुग की मूर्ति है। कहा जाता है कि सुलतान सिकन्दर लोदी भी किसी समय इस दरगाह का दर्शन करने आये थे। यह जगह इतनी पाक मानी जाती थी।
छोटी दरगाह में शाह दौलत का मकबरा है। शाह दौलत हजरत शाह यहिया के खानदान के थे। यह बड़ी खूबसूरत इमारत है। समूची दरगाह चुनार के सुंदर पत्थर से बनी है। यह बिहार के मकबरों में सबसे बढ़ चढ़ कर है। दरगाह एक चैकोर ऊंचे चबूतरे पर बनी है। इसका कमरा गोल है और चारों तरफ बरामदा है।
बरामदे की ऊंची छत में बड़ी कारीगरी से फूल-पत्ती और रेखागणित के चित्रा से बने हुए हैं और कुरान शरीफ की आयतें भी बड़ी सुन्दर रीति से काढ़ी गयी हैं। पत्थर की इन नक्काशियों की तुलना प्रसिद्ध फतेहपुर सीकरी की उत्तम से उत्तम नक्काशियों से की जा सकती हैं। दरगाह के भीतर दोनों तरफ पत्थर के ऊंचे-ऊंचे खम्भे हैं और उनके बीच में एक पतली दीवार है और उस पर खड़ी कारनिस बनी हुई है जो बड़ी शानदार है। पांत में ताखे भी बने हुए हैं जिनके मेहराब में पत्थर की ही जालियां हैं जो मन को मुग्ध कर देती हैं।
समाधि को साया देता हुआ गुंबज बड़े अनोखे ढंग का है। मखदूम शाह दौलत की कब्र बीच में है, उसके पूरब की ओर उनकी बीवी की है। बादशाह जहांगीर के समय में इब्राहिम खां फतेहजंग बिहार और बंगाल का सूबेदार था। उसी ने इस दरगाह को बनवाया था। मखदूम शाह की कब्र के पांव के नीचे की ओर उसकी कब्र है।
दरगाह के अहाते में ही पश्चिम की तरफ एक मस्जिद है जिसमें गुम्बज नहीं हैं लेकिन उस पर एक लम्बी मेहराबदार छत है जो सन् 1619 में बनी थी। दक्षिणी कोने पर जमीन के अंदर एक कोठरी है। कहा जाता है कि हजरत मखदूम शाह दौलत इसमें बैठकर खुदा का ध्यान करते थे। दरगाह के उत्तर जो दरवाजा है, वह उसी धज का है जैसा मुगलकाल के आरंभ में बनता था। उसकी छत गुम्बजनुमा है और उसके किनारे पर ऊंची मीनारें हैं। दरवाजे के दोनों तरफ अठपहली मोटी मीनारें हैं जिनमें छत पर जाने के लिए सीढियां बनी हुई हैं। दरवाजा और मीनारों के आगे की ओर जालीदार खिड़कियां और मुम्बजदार सोफे बने हुए हैं जिनसे इसकी शोभा बहुत बढ़ जाती है।
दरगाह के दक्षिण एक तालाब है जिसका रकबा पांच एकड़ है। इसमें पानी उत्तर-पश्चिम के कोने में एक सुरंग से आता था लेकिन अब सोन नदी दूर हट गयी है, इसलिए सुरंग की राह से पानी अब बरसात में ही आ पाता है।
इब्राहिम खाँ फतेहजंग, जिसने दरगाह बनवायी थी मिर्जा गयास बेग का बेटा था। वह पहले गुजरात में बख्शी बाहाल हुआ था। जब वह नौजवान था, तब मखदूम साहब का चेला हो गया था। वह बिहार और बंगाल का सूबेदार हुआ और सन् 1622 तक रहा। शहजादा खुर्रम के साथ लड़ते-लड़ते वह मारा गया था।
दरगाह में फारसी अक्षरों में जो शिलालेख है, उसके अनुसार उक्त संत का देहांत सन् 1600 ई॰ में हुआ था। उस लेख में कहा गया है कि उक्त संत दुनियां के कुत्बों में कुत्ब थे। वे मजहब के नेता थे। सूरज और चांद से ज्यादा तेजवाले थे। उनमें पैगम्बर के सब गुण और चमत्कार भरे थे। मनेर शरीफ धर्म के नेताओं की कब्रों से भरा पड़ा है।
छोटी दरगाह से पश्चिम मखदूम शाह बारन मलिकुल उलमा की कब्र है। ये हजरत शेरशाह सूरी के पीर थे। ढाई कंगूरे की मस्जिद के पास हजरत मोमिन आरिफ की कब्र है और वदखन के तंगूर किलो खां की कब्र भी पास ही में है।
मनेर के राजा के राजमहल की मर्दाना बैठक पत्थर के चालीस पायों और एक ही पत्थर की छत का दालान थी। राजा को परास्त करने के बाद हजरत ताज फकीह साहब ने वहीं आराम किया था।
कहा जाता है कि राजा के राजमहल के एक दालान में हजरत मखदूम यहिया पैदा हुए थे। वहां एक अनोखी चैकी थी जो काठ के एक ही टुकड़े की बनी थी। इसी चैकी पर बैठकर हजरत मखदूम शरफुद्दीन की मां इबादत किया करती थी। हजरत रूकनुर्द्दीन मर्घिलानी चिश्तिया संप्रदाय के सूफी थे जो हजरत मखदूम यहिया के गुरू थे। उनकी समाधि भी वहीं है।
इस विवरण से स्पष्ट है कि मनेर का एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व रहा है और यह अब नये पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित हो रहा है। साथ ही मनेर सर्व धर्म समन्वय का प्रतीक भी बन गया है।
(उर्वशी)
वर्त्तमान परिदृश्य जहां नफरतों का बाज़ार गर्म है जहां तथाकथित देशभक्ति एक विशेष समुदाय को लक्षित कर दर्शाया जारहा है वहीं आपका ये लेख साझी विरासत /संस्कृति को भारत में फिर से गहरी जडें जमाने में मील का पत्थर साबित होगा । पुनः लेख के लिए साधुवाद