हसन जमालपुरी
शिक्षा वह नींव का पत्थर है जिस पर कोई भी समुदाय अपनी प्रगति का विशाल भवन खड़ा कर सकता है। दुनिया के लगभग सभी महापुरुषों ने शिक्षा पर विशेष जोड़ दिया है। शिक्षा के बारे में बाबा साहब डाॅ. भीमराव अंबेडकर का कहना है कि शिक्षा वह ताकत है जिससे व्यक्ति सिंह की तरह दहाड़ सकता है। सच पूछिए तो शिक्षा की शक्ति है। अगर कोई किसी के उपर शासन करता है तो उसके पीछे की ताकत शिक्षा ही है। शारीरिक शक्ति भी मायने रखता है लेकिन शिक्षा दैहिक शक्ति के सामने बेहद कमजोर है। दुनिया के प्रत्येक समुदाय ने अपने-अपने तरीके से शिक्षा को महत्व दिया है। इस्लाम में भी शिक्षा और कौशल विकास की प्राप्ति को प्रोत्साहित किया जाता रहा है। इस्लाम की धार्मिक पुस्तक हदीस में मोहम्मद साहब को यह कहते हुए दर्शाया गया है कि ‘‘यदि ज्ञान प्राप्त करने के लिए चीन तक की भी यात्रा करनी पड़े मो संकोच नहीं करनी चाहिए। उस हदीस में उध्रित चीन देश की यात्रा का मतलब दूर देश की यात्रा से है।
विश्व इतिहास के पन्नों में यह साफ शब्दों में दर्ज है कि चिकित्सा शास्त्र एवं गणित के विकास में इस्लाम की बड़ी भूमिका है। इस्लामिक समय के राजाओं ने कई तकनीकों का विकास किया जिससे अब तक लोग लाभ उठा रहे हैं और आने वाली पीढ़ियां न जाने कितने समय तक लाभ उठाती रहेगी। मुसलमानों ने व्यापार में भी उत्कृष्ट प्रदर्शन किए हैं। खगोल शास्त्र से लेकर विज्ञान और विभिन्न प्रकार की तकनीक तक का विकास इस्लाम के अनुयायियों ने की है। हालांकि मौजूदा हालात कुछ और हैं। इस्लाम के मानने वाले तकनीक एवं विज्ञान की पढ़ाई करने से वेहतर धार्मिक शिक्षा को समझते हैं, जिसका वर्तमान समय में बेहद सीमित उपयोग है। कुरान मजीद की आयतों को रटने एवं हदीस-ए-पाक को रट लेने के ज्ञान की आधी-अधूरी ही जानकारी होगी। इससे बेहतर होगा कि विषय को समझें और दीनी के साथ ही साथ आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर दुनिया की चुनौतियों को स्वीकार करें।
सच पूछिए तो इस्लाम वर्तमान दौर नकारात्मकता से भरा हुआ है। इस पतन का एक कारण यह है कि मुस्लिम समुदाय शिक्षा के प्रति अपने दृष्टिकोण में विभाजित है। जहां कुछ का मानना है कि केवल धार्मिक ज्ञान की प्राप्ति जरूरी है, वहीं कुछ का मानना है कि केवल सांसारिक ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है। नतीजतन, या तो बच्चों को नियमित शिक्षा के लिए स्कूलों में भेजा जाता है या उन्हें धर्म सीखने के लिए मदरसों में मौलवियों के हवाले कर दिया जाता है। यहां बता दें कि मदरसे बोर्डिंग स्कूलों की तरह होता है, जहां दूर-दराज के शहरों से बच्चे तब तक ठहरने के लिए आते हैं, जब तक कि वे धर्म के कई बुनियादी पहलुओं को नहीं सीख लेते हैं, जिसमें अरबी भाषा, कुरान और हदीस सीखना शामिल होता है। अधिकांश मदरसों में, शिक्षा शायद ही कभी अन्य विषयों की दी जाती है। मसलन, मदरसों में गणित, विज्ञान, सामाजिक और राजनीतिक अध्ययन की पढ़ाई नहीं होती है। हां, कुछ बड़े मदरसों में अन्य धर्मों की किताबें जरूरी पढ़ाई जाती है लेकिन आधुनिक शिक्षा नहीं दी जाती है। मदरसों में चिंता की एक और बात है। अधिकांश मदरसे अपनी प्राथमिक भाषा के रूप में उर्दू का उपयोग करते हैं। नतीजतन, मदरसों से आने वाले बच्चे एक नियमित स्कूल में अपने आपको हीन महसूस करने लगते हैं। इन बच्चों के साथ भाषा एक बड़ी बाधा बन जाती है क्योंकि अधिकांश नियमित स्कूल अंग्रेजी माध्यम के होते हैं। इसलिए मदरसों में धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ औपचारिक शिक्षा पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही मदरसों के बुनियादी ढांचे में बदलाव की भी जरूरत है।
इस संबंध में मालवानी स्कूल सह मदरसे के संस्थापक सैयद अली ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है, जो स्वागत योग्य है। अली ने मलाड, महाराष्ट्र स्थित एक जामिया तजवीदुल कुरान मदरसा और नूर मेहर उर्दू स्कूल की आधारशिला रखी है। अमूमन मदरसे के अधिकांश शिक्षक अपने पाठ्यक्रम में आधुनिक विषयों को शामिल करने से हिचकिचाते हैं, सैयद एएन ने मदरसा के मूल पाठ्यक्रम के साथ प्रयोग किया और इसे स्कूल और मदरसे के शिक्षकों की मदद से औपचारिक शिक्षा प्रणाली के साथ एकीकृत कर दिया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि कई स्कूल के कई पासाउट हाफिज मुख्यधारा की नौकरियां लेने में भी सक्षम हो गए हैं। इसका परिणाम बहुत सकारात्मक दिख रहा है। ये विद्यार्थी अब आर्थिक दृष्टि से मजबूत हो गए हैं। इसके साथ ही मदरसे के 22 हाफिजों ने हाल ही में एसएससी परीक्षा पास की है। पिछले 10 वर्षों में, 2000 में संस्थान की स्थापना के बाद से, 97 हाफिज ने एसएससी परीक्षा उत्तीर्ण की है और समाज में सम्मानजनक नौकरियां प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली।
सैयद अली ने भारतीय मुसलमानों को एक रास्ता दिखाया है। उन्होंने मिसाल पेश की है। इसे देश के अन्य मदरसों में भी दोहराया जा सकता है। संस्थान की सफलता से पता चलता है कि मदरसा जाने वाले लाखों बच्चों को एक उपयुक्त नौकरी मिल सकती है, यदि औपचारिक प्रणाली को मदरसा पाठ्यक्रम के साथ एकीकृत किया जाए तो शिक्षा जगत में क्रांति लाई जा सकती है। इससे इस्लाम को भी फायदा होगा। यह बच्चों को ऐसे करियर के प्रति प्रोत्साहित करने में मदद करेगा जो उन्हें वित्तीय स्थिरता की ओर ले जाएगा।
सुधार घर से शुरू होता है। सशक्त व्यक्ति सशक्त परिवार की आधारशिला रख सकता है। सशक्त परिवार ही सशक्त समाज का निर्माण करता है। सशक्त समाज से सशक्त राष्ट्र की आधारशिला रखी जा सकती है। भारत में मदरसों की कमी नहीं है। बस मदरसों में दीनी के साथ आधुनिक शिक्षा को जोड़ने की जरूरत है। इसे जोड़ कर मुसलमानों का तो कल्याण हो ही सकता है साथ में देश को भी फायदा होगा।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)