गौतम चौधरी
एक बार फिर पश्चिम एशिया में युद्ध छिड़ गया है। इस बार की लड़ाई तब प्रारंभ हुई जब फिलिस्तीनी इस्लामिक आतंकवादी संगठन, हमास के लड़ाकों ने बीते 7 अक्टूबर को इजरायली सीमा में घुसकर उसके सैंकड़ों नागरिकों को न केवल बंदी बनाया, अपितु बड़ी संख्या में लोगों की हत्या भी कर दी। हमास के लड़ाकों ने जमीन, आसमान और समुद्र तीनों तरफ से इजरायल पर हमला बोला। इस हमले की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमास के आतंकियों ने महज 20 मिनट के अंदर इजरायल पर 5 हजार से अधिक मिसाइलें दागे। इस लड़ाई का कारण क्या है, इसके परिणाम क्या होंगे और इस लड़ाई में कौन-सा देश प्रत्यक्ष एवं कौन परोक्ष भूमिका निभा रहा है? उन तमाम विषयों पर पड़ताल जरूरी है लेकिन उससे पहले यह जानना जरूरी है कि सचमुच मुसलमान और यहूदी, एक-दूसरे के एतिहासिक दुश्मन हैं?
आइए सबसे पहले यहूदी कौन है और उनका क्या चिंतन है, उसको समझते हैं। ईसा से 2000 साल पहले दुनिया में मूर्ति पूजा व्यापक पैमाने पर होती थी। यहां यह बताना जरूरी है कि मानव सभ्यता के साथ दुनिया में तीन प्रकार के धार्मिक चिंतन का विकास हुआ है। पहला, प्रकृति एवं पितरों की पूजा। इस धार्मिक चिंतन के निक्षेप आज भी दुनिया भर में देखने को मिलते हैं। दूसरा, मूर्ति या प्रतीकों की पूजा। इसके भी अवशेष बड़े पैमाने पर विद्यमान हैं। तीसरा, निराकार सर्वशक्तिमान परमात्मा की पूजा। वर्तमान युग में इसका प्रभाव ज्यादा देखने को मिलता है। यदि हिन्दू चिंतन की बात करें तो इसमें तीनों ही धार्मिक सोच का समावेश है।
यहूदियों के पितामह और उनके प्रथम पैगम्बर इब्राहिम ने सबसे पहले अक्केडिया में मूर्तिपूजा का विरोध किया। उन्होंने ईश्वर को देह रूप मानने से इनकार कर दिया। मूर्तिपूजा के विरोध की वजह से इब्राहिम के पूरे कबीले को अक्केडियन राज्य के ऊर प्रदेश यानी अपनी जन्मभूमि छोड़कर जाना पड़ा। कहा जाता है कि मूर्तिपूजा से व्यथित होकर इब्राहिम ने ईश्वर की खोज में अपने कबीले के साथ एक लम्बी यात्रा प्रारंभ की। इब्राहिम और उनके कबीले ने मूर्ति पूजा के विरोध में ही ऊर को छोड़ा। इसका उल्लेख हजरत मूसा द्वारा रचित तोराह में दर्ज है। इस कबीले के यर्दन नदी की तराई के प्रदेश में पहुंचने के बाद प्रथम इजराइली प्रदेश की नींव पड़ी। मगर दो सदी बाद ही यहां बसे यहूदियों को भीषण अकाल का सामना करना पड़ा। अकाल की विभिषका से बचने के लिए इब्राहिमी कबीले ने मिस्र जाकर शरण ली। एक सदी बीतते बीतते मिस्र के राजा और वहां की प्रजा ने इन यहूदियों को गुलाम बना लिया।
ईशा से 1300 वर्ष पहले हजरत मूसा ने इब्राह्मनों को मिस्र की गुलामी से मुक्ति दिलाई। उन्होंने इन इब्राह्मन यहूदियों के लिए पांच पवित्र पुस्तकें रची जिन्हें तोराह यानी ईश्वर का संदेश कहा जाता है। हजरत मूसा के समय ही मिस्र से लेकर मध्य एशिया तक धार्मिक विचारों में व्यापक बदलाव आया। हजरत मूसा के नेतृत्व में यहूदी जीत रहे थे और अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे। इस बीच रोमन साम्राज्य का उदय हुआ और यहूदियों को आस्था के आधार पर रोमनों ने संघर्ष करना पड़ा। यहूदियों की कई मान्यताओं में से एक मान्यता संदेशवाहकों का धरती पर आना भी है। इसी मान्यता के आधार पर जिशस क्राइस्ट एक नया चिंतन लेकर आए लेकिन यहूदियों ने इसे मानने से इनकार कर दिया, जबकि रोमन साम्राज्य के राजा कंस्टेनटाइन ने ईसाई धर्म स्वीकार लिया। क्राइस्ट का चिंतन बड़े पैमाने पर दुनिया को प्रभावित किया। चूकि ईसाइयों का यह मानना है कि जिसस को सूली पर चढ़ाने में यहूदियों ने बड़ी भूमिका निभाई, इसलिए वे उनके खिलाफ हो गए। यूरोप या ईसाई नेतृत्व वाले देश में यहूदियों के खिलाफ एक अलग प्रकार का आक्रोश था, जिसके कारण यूरोप में यहूदियों के खिलाफ अत्याचार होते रहे।
आगे चल कर मक्का नामक धार्मिक नगर में मुहम्मद इब्न अब्दुल्लाह अल हाशिम नामक एक महान धार्मिक नेता का जन्म हुआ। उन्होंने घोषणा की कि उन्हें जिब्राइल नामक देवदूत ने दर्शन दिया और नए धार्मिक चिंतन के बारे में बताया है। उस चिंतन और आस्था को इस्लाम के नाम से जाना गया। यह चिंतन भी यहूदियों के उसी चिंतन पर भाग है, जिसमें संदेशवाहक के आने की परिकल्पना की गयी है। मुहम्मद इब्न अब्दुल्लाह अल हाशिम को उनके अनुयायियों ने प्रेम से मोहम्मद पैगंबर कहना प्रारंभ किया। अरब में नए दीन के प्रणेता पैगंबर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यहूदियों से हमदर्दी दिखाई। मोहम्मद पैगंबर ने यहूदियों को सम्मान दिया। यूरोप या रोमन साम्राज्य से लुटे-पिटे यहूदी अरब में आकर बसने लगे। यह सिलसिला लगातार जारी रहा। जब ओटोमन यानी उस्मानिया सल्तनत ने सत्ता संभाली तो उन्होंने यहूदियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया। कुल मिलाकर यह कहना उचित होगा कि यहूदियों को जब यूरोप से खदेरा गया तो इस्लामी सल्तनत ने उन्हें पनाह दी। यहूदियों का मुसलमानों के साथ कोई झगड़ा नहीं था। दोनों एक-दूसरे के करीबी थे। अब दोनों की लड़ाई कब प्रारंभ हुई? इस पर भी विहंगम दृष्टि डालने की जरूरत है।
रोमन साम्राज्य का पतन हो गया। उस पतन में उस्मानिया सल्तनत की भी बड़ी भूमिका मानी जाती है। रोमन साम्राज्य के स्थान पर यूरोप में कई शक्तियां खड़ी हुई। उसमें फ्रांस के नेपोनियन बोनापार्ट सबसे शक्तिशाली बनकर सामने आए और उन्होंने मिस्र पर आक्रमण कर पहली बार मुसलमानों को हरा, इतिहास की धारा मोड़ दी। बोनापार्ट इंग्लैंड से हार गए। बोनापार्ट को सिकस्थ देने के बाद इंग्लैंड बड़ी शक्ति के रूप में उभरा और लगभग 200 वर्षों तक दुनिया के बड़े भूभाग पर शासन किया। इस दौर में उस्मानिया सल्तनत भी कायम रहा। फिरंगी इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि आने वाले समय में उन्हें उस्मानिया सल्तनत और मुसलमानों से खतरा हो सकता है। इसलिए फिरंगियों ने मुस्लिम दुनिया को तीन भागों में विभाजित कर दिया। पहला, तुर्की की खिलाफत समाप्त कर वहां अतातुर्क मुस्तफा को सत्ता सौंपा। दूसरा, सऊदी अरब को अलग देश बनाया और वहां वहाबी इस्लाम की नींव डाली। तीसरा, अरब की धरती पर यहूदियों को लाकर बसा दिया। सच पूछिए तो यहूदी और मुसलमान एतिहासिक रूप से एक-दूसरे के साथ रहे हैं। यहूदियों की असली लड़ाई तो यूरोपियों या ईसाइयों के साथ रही है।
अंग्रेजों ने अपनी लड़ाई को ढंकने और अरब पर नियंत्रण के लिए यहूदियों को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा किया है। फिलहाल यहूदी मुसलमानों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। अब इंग्लैंड चित्र से नेपथ्य में है। लेकिन दुनिया में दो प्रभावशाली देश, (अमेरिका और रूस) अपनी साम्राज्यवादी मनोवृत्ति के कारण पश्चिम एशिया को बूचड़खाना बनाए हुए है। इजरायल को अपनी धरती प्राप्त हो चुकी है। उसे अरब का नेतृत्व करना चाहिए और वहां शांति स्थापना का प्रयास करना चाहिए। वहीं दूसरी ओर, सऊदी अरब, तुर्कीय और ईरान को भी वर्तमान सत्य, इजरायल को मान लेना चाहिए। ऐसा जब तक नहीं होगा तब तक पश्चिम एशिया इसी तरह युद्ध की विभीषिका झेलता रहेगा और आम व निर्दोष लोग मारे जाते रहेंगे।