उदय चन्द्र सिंह
दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलने की परंपरा इस प्रगतिशील युग में भी विश्व के अनेक भागों में जहां तहां देखी जाती हैं। विशेष पर्वों अवसरों पर इसका आयोजन किया जाता है। भारत, स्पेन, बल्गारिया एवं फिजी के अनेक संप्रदायों में यह धार्मिक क्रिया कलापों का एक अंग है। आत्म शुद्धि तथा व्याधियों के उपचार के रूप में नंगे पैर आग पर चलना, अग्नि नृत्य करना यूनान और फ्रांस में लोगों के पूजा उपचार का एक अभिन्न भाग है। इसे वे देवताओं की कृपा तथा मंत्र शक्ति का चमत्कार मानते हैं।
एक बार भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद बिहार के दौरे पर गये थे। रांची में उरांव तथा मुण्डा जनजाति के लोगों ने उन्हें अपना एक करतब देखने के लिए आमंत्रित किया। वे उस समय आश्चर्य में पड़ गए जब अनेक युवक पंक्तिबद्ध होकर धधकते हुए अंगारों पर चलने लगे। उनमें से एक भी व्यक्ति के पैर में जलने का कोई चिन्ह तक नहीं था। आग पर चलने की इस विद्या को जनजातियों ने देवी देवताओं से जोड़ रखा है।
यूनान में वीणा की लहरी पर अग्नि नृत्य आज भी देखने को मिलता हैं। वहां आइयाएलोमी नामक गांव में प्रति वर्ष सन्त कास्टेंटाइन और सन्त हेनोन के सम्मान में कई दिन तक चलने वाले उत्सव का आयोजन होता है। इसका समापन अंतिम दिन अंगारों पर चलने के साथ होता है। आग पर चलने वालों को ’अनास्ते नैराइड्रस’ कहा जाता है। सूर्यास्त के पश्चात आरम्भ हुआ यह नृत्य तब तक चलता रहता है जब तक अंगारे राख के ढेर में न बदल जाए। उनका विश्वास है कि सन्त कास्टेन्टाइन की देवी शक्ति उनकी रक्षा करती है तथा रोगों से मुक्ति दिलाती है।
दक्षिण अफ्रीका के नेटाल प्रान्त में भी आग पर चलने का रिवाज है। यहां इसे एक प्रकार की धार्मिक पवित्राता के रूप में किया जाता है। इस उत्सव में जो लोग शामिल होते हैं उन्हंे दस दिन पूर्व से स्त्राी संपर्क, मांस, मदिरा आदि का परहेज करना पड़ता है। इसका वर्णन करते हुए हाले विलियम नामक एक अंग्रेज विद्वान ने लिखा है कि ऐसे अवसर पर वे लोग 20 फुट लम्बे, 90 फुट चैड़े तथा दो-तीन फुट गहरे गढ़े में लकडियां जलाकर धधकते कोयले की आग तैयार कर लेते हैं। आग पर सबसे पहले पुजारी के पैर पड़ते हैं जिसके नेतृत्व में यह उत्सव मनाया जाता है। उसके पीछे उसके भक्त पंक्तिबद्ध होकर चलते हैं। इनमें से किसी के पैर में भी जलने के कोई चिन्ह नहीं मिले। इन पुजारियों का कहना है-ईश्वर विश्वास एवं शारीरिक तथा मानसिक पवित्राता की शक्ति ही हम लोगांे को जलने से बचाती है।
दक्षिण भारत के चिंगलपेट जिले में एक उत्सव के समय अनेक अंग्रेजों ने सैकड़ों भारतीयों को मंत्रोच्चार करते हुए पंक्तिबद्व होकर धधकते अंगारों पर चलते देखा था। पैरों में कोई रसायन लेप लगाकर चलने जैसी शकांओं का निराकरण भी परीक्षण करके देखा गया था फिर भी किसी के पैर पर जलने के कोई निशान नहीं देखे गये।
इससे प्रभावित होकर लन्दन विश्वविद्यालय के कुछ मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने आग पर चलने की घटनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण करने की दृष्टि से एक समिति का गठन किया। परीक्षण के लिए उन्होंने खुदाबक्स नामक एक भारतीय जादूगर को तैयार किया। 25 फुट लम्बे 3 फुट चैड़े और एक फुट गहरे गड्डे को तप्त अंगारों से भर दिया गया। खुदाबक्श कुरान की कुछ आयतें पढ़कर उस पर चलकर पार कर गया। उसका कहना था कि अंगारों की तह कम से कम 9 इंच अवश्य होनी चाहिए अन्यथा पतली तह में जलने का भय रहता है।
एक सप्ताह बाद भी उसने यह प्रक्रिया को दोबारा करके दिखाया किन्तु तीसरी बार उसने यह कह कर चलने से इंकार कर दिया कि ’अब मेरा विश्वास डिग गया है। यदि अब चला तो जल जाऊंगा।‘ दोनों प्रयोगों के पूर्व और पश्चात खुदाबक्श के पैरों की पूरी जांच कर ली गई थी, जिसमें न तो किसी प्रकार के रसायन और न ही पैरों में कड़ापन पाया गया।
कुछ वर्ष पूर्व पश्चात इसी प्रकार का प्रदर्शन एक दूसरे भारतीय अहमद हुसैन ने वैज्ञानिकों के समक्ष किया था। हुसैन न केवल अकेले अंगारों पर चला था वरन् अनेक अंग्रेजों को भी अपने साथ 1262 डिग्री तापमान वाले अग्निपिण्डों पर चलाने में समर्थ हुआ था।
इंडोनेशिया (सुमात्रा) में जिन लोगों पर देवता आते हैं वे अपने मुंह में दहकते कोयले भर लेते हैं। मिश्र और अल्जीरिया के लोग सुर्ख अंगारों को अंगूर जैसे निकल जाते हैं, अल्जीरिया के फकीर लोहे की तपती सलाखों से अपने शरीर को दगवाते हैं।
इन चमत्कारिक घटनाओं का रहस्योद्घाटन करते हुए मूर्धन्य वैज्ञानिक एवं अनुसंधानकर्त्ता स्टीवन ने मनोविज्ञान की प्रमुख पत्रिका ’इथोज‘ में बताया है कि यह पदार्थ पर दिमाग के हावी हो जाने की प्रक्रिया है। इस कृत्य के समय ’फायर वाकर‘ अर्थात आग पर चलने वाले लोग तन्द्रा जैसी स्थिति में रहते हैं। इस सम्बन्ध में अनुसंधानरत वैज्ञानिक कैने ने अपने शोध निष्कर्ष में कहा है कि सम्मोहन की स्थिति में व्यक्ति को आग के संसर्ग से जलन महसूस नहीं होती।
आज भी झारखंड की राजधानी रांची में प्रतिवर्ष जगन्नाथपुर के भव्य मेले में अनेक आदिवासी ऐसे करतब दिखाते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि आग पर चलना एक शारीरिक एवं मानसिक कौशल है। इस का देवी देवता से कोई संबंध नहीं है क्योंकि घोर नास्तिक एवं जादूगर तक यह कौशल दिखा देते हैं।
भारत में बीसियों जगह जलती होली से निकलने की परंपरा है। यह कृत्य पण्डे पुजारियों के यहां पीढ़ी दर पीढ़ी होता चला आया है। उनके आचरण भी सामान्य लोगों जैसे औसत दर्जे के होते हैं। उनमें कोई सत्यवादी या योगी तपस्वी नहीं होता।
आग पर चलने को केवल जादुई कौशल कहा जा सकता है। इसके साथ अध्यात्म या साधना की कोई सिद्धि के जुड़े होने का कोई आधार नहीं है। बावजूद इसके यह अपने आप में रहस्य तो है ही।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)
(अदिति)