खुशबू खान
जिस व्यक्ति को स्वयं को पीड़ित दिखाने की आदत हो जाती है वह किसी न किसी तरीके से बार-बार स्वयं को पीड़ित साबित करने की कोशिश करता है। इसी तरह अगर कोई मनुष्य स्वयं को ताकतवर और काबिल साबित करने पर आमदा हो जाए तो वह वाकई में वैसा ही बन जाता है। हमारा मस्तिष्क एक सशक्त हथियार है। जैसा हम सोचेंगे वैसा ही बनेंगे। व्यक्तित्व के निर्माण में सोच का प्रभाव व्यापक पड़ता है। इस बात को अब विज्ञान भी मानने लगा है। निश्चित ही हालात, समाज तथा पूर्वाग्रहित नियम कायदों का इसमें अहम रोल होता है किन्तु खुद के निर्माण में स्वयं से अधिक कोई भी अन्य वस्तु प्रेरित नहीं कर सकती है। यह दर्शन सफलता का सूत्र है, जिसने निखत ज़रीन जैसी महिलाओं ने चरितार्थ किया है।
हाल ही में विश्व मुक्केबाजी में चैंपियन बनी हिन्दुतानी महिला, निखत ज़रीन ऐसी पांचवीं भारतीय महिला मुक्केबाज हैं, जिसने तुर्की के इस्तानबुल में संपन्न हुई विश्वस्तरीय प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया है। इस जीत के साथ इस 25 वर्षीय महिला ने भारतीय इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा लिया। उनके साथ अन्य हस्तियों में मैरिकाॅम, सरिता देवी, जैनी आरएल तथा लेखा केसी शामिल हैं। अपने जीवन के संघर्ष में निखत ज़रीन ने स्वामी विवेकानंद द्वारा कही गयी कई प्रसिद्ध पंक्तियों से प्रेरणा प्राप्त की, जिसमें उन्होंने कहा है, ‘‘अगर तुम स्वयं को कमजोर मानते हो तो तुम कमजोर हो जाओगे और अगर तुम स्वयं को शक्तिशाली मानते हो तो तुम शक्तिशाली हो जाओगे’’।
मुक्केबाजी एक ऐसा जोश से भरा खेल है जिसमें नाम कमाना इतना चुनौती भरा है कि कल्पना भी नहीं की जा सकती। ज़रीन द्वारा प्राप्त की गयी इस जीत ने उसे मैरीकाॅम जैसी महान मुक्केबाज की परछाई से बाहर ला खड़ा किया है। वह अपनी इस जीत को आगामी ओलंपिक खेलों में एतिहासिक जीत प्राप्त करने हेतु सीढ़ी के एक पायदान के तौर पर देखती है। जिसे अभी तक कोई भी भारतीय प्राप्त नहीं कर पाया है। जरीन को यह सफलता अनेक सेघर्षों के बाद मिली है। उन संघर्षों में से एक उनके कंधे पर लगी गंभीर चोट भी शामिल है, जिसके कारण जरीन एक वर्ष के लिए खेल के मैदान से दूर रही। अपने ही समाज के द्वारा अस्वीकार किए जाने से लेकर विश्व चैंपियनसीप बनने तक की निखत ज़रीन की कहानी में पुनः लौटने का बल, आत्म विश्वास तथा स्वयं को इसके काबिल मानना शामिल है। आज वे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक हैं, जो महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत है और सबसे जरूरी वे अल्पसंख्य समुदाय के लोगों के लिए एक सबक है, जो आजकल पीड़ित होने का रोना रोते रहते हैं।
वर्ष 2019 के एक आंकड़े के अनुसार मुस्लिम महिलाएं भारत की कुल आबादी का 6.9 प्रतिशत है। अपनी इस विशेष संख्या बल होने के बावजूद मुस्लिम महिलाओं को आम तौर पर उत्पीड़ित, सतई हुई तथा अनपढ़ के तौर पर देखा जाता है। हम मुस्लिम महिलाओं के प्रति होने वाले वर्ताव को नजरअंदाज नहीं कर सकते, जो उनके अपने समुदाय तथा संपूर्ण समाज द्वारा किया जाता है। इतना सब कहने के बाद मुस्लिम महिलाओं को अपनी पस्थितियों के प्रति जवाबदेह होना पड़ेगा। उन्हें एक अलग व्यक्ति के तौर पर अपनी कीमत समझनी होगी। स्वयं को सम्मान देना होगा और सभी कठिनाइयों के बावजूद कठोर परिश्रम करना होगा ता कि वे समाज की जिम्मेदार सदस्य बन सके।
तेलांगाना प्रांत के हैदराबाद शहर स्थित एक रूढ़िवादी इलाके में रहने वाली निखत ज़रीन के पिता जमील को अक्सर उनके रिश्तेदार अपनी बेटी के छोटे परिधान यानी निक्कर पहन कर खेलने की इजाजत देने के लिए जिल्लतें सहनी पड़ती थी। वाकायदा वह आज भी जारी है। वे सभी कठिनाइयों से जुझते हुए जमील ल ने अपनी बेटी निखत को अपने सपने पूरा करने की इजाजत दी तथा निखत ने भी अपने पिता का सिर नीचा नहीं होने दिया।
निखत की कहानी हमें बताती है कि मुस्लिम औरतों को गैरजरूरी और रूढ़िवादी अवरोधों को तोड़ना होगा। उन्हें अपनी आरामतलवी से बाहर निकलना होगा और स्वयं को पहचानने के लिए शिक्षित होना होगा। निखत ज़रीन की भांति लक्ष्य सिर्फ खेल में आगे निकलना नहीं है। बल्कि इसका केन्द्रीय भाव यह है कि हमें उसकी इस यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए, जो उसने अपने सपनों को पाने के लिए पूरी की। उसकी इस यात्रा से संघर्षों के दौरान स्थिर व अपने अंतिम लक्ष्य की तरफ ध्यान केन्द्रित रखने का सबक सिखा जा सकता है। भारत में रहने वाली मुस्लिम औरतों को अपने अपने खिलाफ उठती आवाज को शांत करना होगा ताकि वह पहले अपनी पहचान बनाए व फिर अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेना-देना नहीं है।)