पनिया के जहाज : तब उत्तर बिहार का लाइफ लाइन था बच्चा बाबू का स्टीमर

पनिया के जहाज : तब उत्तर बिहार का लाइफ लाइन था बच्चा बाबू का स्टीमर

आज की पीढ़ी को यह नहीं पता लेकिन अभी हाल तक बिहार की राजधानी पटना जाने के लिए उत्तर बिहार के निवासियों को बड़ी मशक्कत झेलनी होती थी। तब पटना को जोड़ने वाली महात्मा गांधी सेतु का निर्माण नहीं हुआ था। महात्मा गांधी सेतु के निर्माण के पहले उत्तर बिहार को राजधानी पटना से जोड़ने का एकमात्र मार्ग था जलमार्ग और इस पर सोनपुर के रईस बच्चा बाबू का स्टीमर चलता था। उत्तर बिहार से राजधानी जाने वाले, पहले पहलेजा तक की यात्रा बस और ट्रेन से करते थे फिर एलसीटी, महेंद्रु और बांस घाट के स्टीमर पर सवार होकर राजधानी पहुंचते थे। इनकी तयशुदा सीमा होती थी और इसके लिए टिकट लेकर लोगों को घंटों इंतजार करना होता था। स्टीमर की एक सेवा रेलवे से जुड़ा था जबकि दूसरा बच्चा बाबू की कंपनी का था।

रेलवे स्टीमर के अलावा पटना और पहलेजा घाट के बीच लोगों के लिए दो और स्टीमर सेवा चलती थी। बांस घाट से बच्चा बाबू की स्टीमर सेवा भी काफी लोकप्रिय थी। बच्चा बाबू सोनपुर के रईस थे, जिनकी निजी कंपनी बांस घाट से पहलेजा घाट के बीच स्टीमर सेवा का संचालन करती थी। बच्चा बाबू की कंपनी द्वारा संचालित स्टीमर सेवा का उपयोग बड़ी संख्या में लोग करते थे। इस सेवा की लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़ कर बोलता था। जब लोग राजधानी पटना से सफर करके अपने गांव पहुंचते थे तो हालचाल के साथ संबंधी ये भी पूछते कौन कि किस जहाज से आये हो, तो आने वाले जवाब देते बच्चा बाबू के जहाज से ही आए हैं।

जहाज के इस सफर में काफी वक्त जाया हो जाता था। इसलिए पढ़ाकू विद्यार्थी समय का सदूपयोग करने के लिए अपनी किताबें खोल कर जहाज में ही पढ़ने बैठ जाते थे। वहीं पटना के कुर्जी के पास मैनपुरा से चलती थी गंगा एलसीटी सर्विस की सेवा। एलसीटी मतलब लैंडिग क्राफ्ट टैंक। इस प्रकार की फेरी का इस्तेमाल माल ढुलाई के लिए किया जाता था। गंगा एलसीटी सर्विस पटना और पहलेजा के बीच माल ढुलाई का महत्वपूर्ण साधन थी। इसके आधार तल पर माल लोड किया जाता था और ऊपरी तल पर यात्रियों को बैठाया जाता था। आधार तल पर दो ट्रक, कुछ जीप, ढेर सारे खाने-पीने का सामान, मोटरसाइकिलें आदि बुक करके लादी जाती थीं। वहीं एलसीटी सेवा से सोनपुर मेले के समय बड़ी संख्या में हाथी घोड़े और दूसरे जानवर भी लाद कर इस पार से उस पार लाये जाते थे।

गंगा एलसीटी सेवा एक समय में पटना में गंगा नदी पर एक बंदरगाह की तरह हुआ करता था। अब ये सेवा बंद हो चुकी है, पर पटना के मैनपुरा में एलसीटी घाट नाम से इलाके का नाम अब भी मशहूर है। जहाज नहीं है बंदरगाह नहीं पर नाम में उसकी स्मृतियां आज भी कायम है, जैसे महेन्दु घाट। सम्राट अशोक के दो बेटे थे। एक का नाम कुणाल था, जो राजा बना जबकि बड़ा भाई महेन्द्र, बौद्ध भिक्षु हो गया। वही महेन्द्र अपनी बहन संघमित्रा के साथ श्रीलंका की एतिहासिक यात्रा की थी। महेन्द्र गांगा के जिस घाट से श्रीलंका के लिए प्रस्थान किया था वह घाट महेन्द्रु के नाम से जाना जाता है। एलसीटी कुछ इसी प्रकार आज तक प्रचलित है।

एलसीटी के लिए पटना में इस्तेमाल में लाये जाने वाले जहाज मूल ब्रिटिश रॉयल नेवी की ओर से विकसित किये गये थे। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान इनका कई जगह इस्तेमाल हुआ। पहले इनका नाम टैंक लैंडिग क्राफ्ट हुआ करता था। बाद में अमेरिका नामकरण प्रणाली के मुताबिक इनका नाम एलसीटी (लैंडिंग क्राफ्ट वेसल) हो गया। उन दिनों एक बात बड़ी मजे की होती थी। कोई भी जहाज जब अपने मंजिल तक पहुंचने वाला होता था, चाहे पहलेजा की तरफ हो या फिर पटना तरफ, जहाज किनारे लगने से पहले ही बड़ी संख्या में कुली पानी में कूद-कूद कर तेजी से चारों तरफ से जहाज में घुस आते थे। मानो वे जहाज पर हमला करने आये हों। उसके बाद वे अपने ग्राहकों की तलाश में जुट जाते किसे कुली चाहिए। जो हां कहता उसके सामान पर कब्जा कर लेते। उस जमाने में उत्तर बिहार के लोग बड़ी संाख्या में जूट के मील, जिसे स्थानीय भाषा में चटकल कहा जाता था, में मौसमी नौकरी करने पश्चिम बंगाल जाते थे। तब के जमाने में पश्चिम बंगाल में चटकल मिलों में आसानी से लोगों को काम मिल जाता था। भोजपुरिया गीत संगीत और स्मृतियों में आज भी बंगाल इसी कारण से लोगों के जेहन में कायम है। भिखारी ठाकुर से लेकर महेंद्र मिश्र तक लोक गायकों ने बंगाल के इन्हीं कामासूतो को देख कर अपने गीत गवनई को जीवंत किया।

हों, एक बात और! बीड़ी पीना, लूंगी पहनना और चाय का चस्का, बिहारियों को बंगाली बाबुओं ने ही लगाया। मसलन, ये तीन चीजें तो शर्तीया तौर पर बंगाल से ही बिहार आया। सोनपुर और पटना के बीच में चलने वाले जहाज में भी उस जमाने में टिकट के रेट के हिसाब से व्यवस्था होती थी वन क्लास और सामान्य क्लास गाड़ियों को लगने से लेकर समान तक की ढुलाई होती थी। पनिया जहाज के मालिकाना हक के कारण उस जमाने में सोनपुर के बच्चा बाबू, उत्तर बिहार के बड़े रईसों में शामिल थे। कहा जाता है कि इनकी आवासीय परिसर के अंदर मिनी चिड़ियाखाना था, जिसमें जंगली जानवर भी पाले जाते थे। यह कितना सही है, पता नहीं लेकिन आम लोगों के बीच इस बात की चर्चा तो थी ही।

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