डॉ. घनश्याम बादल
आश्विन मास की प्रतिपदा से शुरु श्राद्धपक्ष हिन्दुओं में आस्था व श्रद्धा के सथ मनाया जाता है। पुराणों में श्राद्ध के बारे में कहा भी गया है ‘‘श्रद्धया एव सिद्धयति श्राद्धं।’’ अर्थात् -श्राद्ध, श्रद्धा से ही सिद्ध होता है। अतः अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा के प्रतीक हैं श्राद्ध।
पितृपक्ष की कथाएं
पितृ पक्ष के महत्व को प्रतिपादित करती अनेक कथाओं में सबसे महत्वपूर्ण है भागीरथ द्वारा अपने चैसठ हजार पुरखों की मुक्ति के लिये कठोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न करके गंगा को पृथ्वी पर लाकर उनका उद्धार करने की कथा सबसे ज्यादा प्रचलित है। वहीं श्रीराम द्वारा भी अपने पिता दशरथ की असामयिक मृत्यु के बाद महर्षि वशिष्ठ के निर्देशानुसार उनका तर्पण किया गया था। महाभारत के युद्ध में जब सारे कौरव मारे गए तब श्री कृष्ण के सान्निध्य में युधिठिर द्वारा उनके तर्पण की कथा भी मिलती है।
क्या है मान्यता ?
कहते हैं कि जिस व्यक्ति का मृत्यु के पश्चात उपयुक्त विधि विधान से पिंडदान नहीं किया जाता उनकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती इसलिए हिंदू हर हाल में पितृपक्ष को मनाते है। वहीं आस्थावान लोग इस माध्यम से दान पुण्य करने व ब्राह्मणों को खुश करके उनके आशीर्वाद लेने का माध्यम बताते हैं।
खुश व तृप्त होते हैं पितर
श्राद्ध पक्ष हमें इहलोक व परलोक दोनों के ही अस्तित्व का आभास कराता है । पौराणिक ग्रन्थों में कहा गया है कि श्राद्ध पक्ष में हमारे पितर वायवीय, अदृश्य रूप में पृथ्वी पर आते हैं और अपनी संतति को अपनी आत्मा की शांति के लिये पिंडदान व तर्पण करते हुये देखकर तृप्त व प्रसन्न हो पुनः मोक्षधाम को चले जाते हैं । श्राद्धपक्ष आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से शुरु होकर सर्व पितृविसर्जनी अमावस्या तक एक पखवाड़ा चलता है इसी वजह से इस कालक्रम को श्राद्धपक्ष के नाम से जाना भी जाता है।
श्राद्ध नहीं तो मुक्ति नहीं
तर्पण का अर्थ है तृप्त करना, माना जाता है कि पितर पृथ्वी पर आकर, अपने वंशजों को सुखी व प्रसन्न देखकर तृप्त होते हैं । कहा जाता है कि जिन पितरों का तर्पण सही तरीके से नहीं हो पाता, वें भटकते रहते हैं और प्रेत योनि को प्राप्त होकर सांसारिक लोगों को परेशान करते हैं । जो व्यक्ति निःसंतान ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं वें ‘ऊत’ कहलाते हैं व अतृप्त भटकते रहते हैं । मान्यता है कि ऐसे पितरों की तृप्ति के लिये हरिद्वार में प्रेत शिला पर पितृपक्ष में पिंडदान करने से उन्हे मुक्ति की प्राप्त हो जाती हैं । पितरों की मुक्ति के लिए गया में भी श्राद्ध करने का विशेष महत्व बताया गया है ।
क्यों कहते हैं कनागत ?
श्राद्ध पक्ष या पितृपक्ष को ‘कनागत’ भी कहा जाता है व माना जाता है कि श्राद्ध पक्ष में पितर कौए के रूप में आकर श्बलि’ स्वीकार करते हैं। कुछ लोग श्रीराम द्वारा जटायु के तर्पण को भी इसका एक कारण बताते हैं। श्राद्धपक्ष में नई चीजें खरीदना निषिद्ध माना जाता हैं क्योंकि इस अवधि में हम अपने पितरों का शोक मनाते हैं।
अलग प्रदेश, अलग भोजन परंपरा
जहां उत्तर प्रदेश में अपने पितृों को खास तौर पर खीर पूरी के द्वारा प्रसन्न करने की परम्परा है वहीं राजस्थान में उन्हे उनकी पसंद के पकवान खिलाकर प्रसन्न किया जाता है। खीर के अलावा वहां उनके भोजन में मूली की सब्जी व जलेबी अनिवार्य रुप से बनाई जाती है अब इसके पीछे कौन सा कारण है यह तो पता नहीं पर, हां आयुर्वेद में मूली को गरिष्ठ भोजन पचाने का अचूक हथियार माना जाता है शायद इसी लिए वह श्राद्धों में भोजन का अनिवार्य हिस्सा बन गई है।
संकल्प व आचमन
पितरों के तर्पण के लिये संकल्प व आचमन आवश्यक माने गए हैं अतः ऐसे ब्राह्मण को ही भोजन कराना चाहिये जिसे यें दोनों विधि विधान अच्छी तरह से आते हों। इस अवधि में सामिष भोजन व तामसी सोच को बंद कर देना चहिए। शुद्ध व सात्विक विचारों के साथ श्राद्ध करने पर पितर प्रसन्न भाव से अपने धाम जाकर साल भर के लिये सो जाते हैं व उन्हे आत्मिक शांति मिलती है।
क्या करें क्या न करें
श्राद्ध पक्ष में जानकारों का मानना है कि भूमि पर सोना चाहिए प्रतिदिन स्नान करना चाहिए टन तथा मन दोनों को शुद्ध एवं सात्विक रखना चाहिए साफ-सुथरे कपड़े पहनना चाहिए एवं प्रतिदिन ईश्वर की वंदना के साथ-साथ अपने पितरों को भी याद करना चाहिए श्राद्ध पक्ष में स्त्री संसर्ग एवं नए वस्त्र आभूषण आदि की खरीदारी वर्जित मानी गई है साथ ही साथ मांसाहार एवं मदिरा सेवन को भी निषिद्ध माना गया है।
श्राद्ध पर परंपरा एवं विज्ञान मतांतर
जहां परम्परावादी समाज श्राद्धपक्ष को गहन आस्था व श्रद्धा से मनाता है वहीं कुछ लोग श्राद्धपक्ष की प्रासंगिकता व उसके वैज्ञानिक आधार पर उंगली भी उठाते हैं। आर्यसमाजी व परलोक में यकीन न रखने वाले इसे अंधविवास मानते हैं। उनके अनुसार मानव, भौतिक शरीर नष्ट होते खत्म हो जाता है तब श्राद्ध करने से कुछ हासिल नहीं होता पर, इनके अनुसार कमाई के लालच में एक खास वर्ग के लोग इसे जिंदा रखे हैं और वें आम लोगों की डराने की हद तक जाकर स्वार्थ पूरा कर रहे हैं। अब, सच क्या है कहा नहीं जा सकता। पर, भारत में सदियों से पितृपक्ष मनता रहा है और आस्थावान लोग इसे मनाते भी रहेंगें ऐसी संभावना है।
विज्ञान भी नहीं करता खारिज
आज विज्ञान व वैज्ञानिक भी जन्म पुनर्जन्म को एक सिरे से खारिज नहीं करते, तब श्राद्ध पक्ष को एकदम से ही खारिज नहीं कर सकते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्ट कहा गया है ‘‘हन्यो न हन्यामानो जीवात्मा’’ और चैरासी लाख यौनियों में भटक कर, अच्छे कर्म करने से ही मानव योनि मिलती है। मान्यता है कि पितरों का तर्पण व पिंडदान करने से उन्हे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
(आलेख में व्यक्त लेखक के विचार निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)