राजनीतिक हिंसा बंगाल की संस्कृति बन गई

राजनीतिक हिंसा बंगाल की संस्कृति बन गई

आशीष वशिष्ठ

पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव में हुई हिंसा और उत्तर भारत के कई राज्यों में भारी बारिश से पैदा हुए हालातों पर इस हफ्ते पंजाबी अखबारों ने अपनी राय बड़ी प्रमुखता से रखी है। पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव के दौरान हुई हिंसा पर जालंधर से प्रकाशित जगबाणी लिखता है, हिंसा पश्चिम बंगाल में चुनावों का अभिन्न अंग बन चुकी है। वहां 2013 के पंचायत चुनावों में हुई हिंसा में कम से कम 80 लोग तथा 2018 के चुनावों में 13 लोग मारे गए थे। इस साल वोटिंग से पहले 27 लोग मारे गए जबकि मतदान के दौरान हुई झड़पों में 18 लोग मारे गए। अखबार लिखता है, राज्य की 42 संसदीय सीटों की बड़ी संख्या ग्रामीण इलाकों में होने के कारण इन चुनावों के जरिए सभी पार्टियों ने 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले अपनी शक्ति को जांचने की कोशिश की है। पंचायत चुनाव को प्रदेश में लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है। अखबार आगे लिखता है, इस हिंसा ने हमारे चुनावी प्रबंधन पर भी सवालिया निशान लगा दिए हैं। लोकतंत्र के सबसे निचले पायदान के चुनाव में यदि इतनी हिंसा हो रही है तो 2024 के लोकसभा के चुनावों में क्या होगा?

जालंधर से प्रकाशित अजीत लिखता है, पंचायती राज व्यवस्था को स्थापित हुए कई दशक बीत चुके हैं लेकिन ऐसा लगता है कि जिस भावना से इसे शुरू किया गया था, वह काफी हद तक लुप्त हो चुकी है। जो कुछ पचायंत चुनाव में पश्चिम बंगाल में देखने को मिला वो दशकों पहले बिहार में देखने को मिलता था, लेकिन अब ऐसा लगता है कि वह इस प्रतिस्पर्धा में काफी पीछे छूट गया है। अखबार आगे लिखता है, इन चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को बड़ी जीत मिली है। ममता बनर्जी ने कहा है कि इस बार हम लोकसभा चुनाव भी जीतेंगे, लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा, क्योंकि लोकसभा चुनाव की कमान भारत चुनाव आयोग के हाथ में होगी, न कि राज्य चुनाव आयोग के हाथ में।

पंजाबी जागरण लिखता है, पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव में वोटिंग के दिन भीषण हिंसक घटनाओं का होना निश्चित तौर पर अकेले इस राज्य के लिए ही नहीं बल्कि देश के नागरिकों के लिए चिंता का विषय है। इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि पंचायत चुनाव के दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा की आशंका पहले से ही थी लेकिन इसे रोका नहीं जा सका। राज्य चुनाव आयोग चाहे कुछ भी दावा करे, वह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में असमर्थ रहा है। अखबार आगे लिखता है, पंचायतों पर कब्जा करने की इस होड़ में खून-खराबा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि ग्रामीण विकास के लिए भारी मात्रा में धन उपलब्ध है और यह किसी से छिपा नहीं है कि विकास कार्यों के लिए जारी धन का एक बड़ा हिस्सा कैसे भ्रष्ट तत्वों की जेब में चला जाता है।

सच कहूं लिखता है, राजनीतिक हिंसा अब पश्चिम बंगाल की संस्कृति बन गई है। वहां ज्यादातर चुनाव हिंसा के बिना खत्म नहीं होते। शुरुआत में सभी राजनीतिक दल एक-दूसरे पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाते हैं, जिसमें आम लोगों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। अखबार आगे लिखता है अगर हालात ऐसे ही रहे तो पश्चिम बंगाल में राजनीतिक दलों से लोगों का भरोसा उठ जाएगा और लोग वोट देना बंद कर देंगे।

चंडीगढ़ से प्रकाशित पंजाबी ट्रिब्यून लिखता है, पंचायत चुनाव में इतने बड़े पैमाने पर हिंसा चिंता का कारण है। यह घटना सामाजिक संघर्ष के साथ-साथ इस तथ्य को भी दर्शाती है कि समाज और राजनीतिक दल लोकतंत्र की मूल भावनाओं को पहचानने से इनकार कर रहे हैं। हिंसा से प्राप्त शक्ति समाज में एकता और समानता स्थापित नहीं कर सकती। अज दी आवाज ने लिखा कि, इन दिनों पश्चिम बंगाल में जो हो रहा है वह चुनावी माहौल बनने पर अन्य राज्यों में भी देखा जाएगा।

उत्तर भारत के कई राज्यों में भारी बारिश से हुई बर्बादी पर अजीत लिखता है, पंजाब, जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड इस आंधी-तूफान से बेहद प्रभावित हुए हैं। जान माल के नुकसान के लिए भारी बाढ़ और बारिश को दोषी ठहराया जा सकता है, लेकिन सरकारों के लिए यह बेहद जरूरी है कि वह समय रहते ऐसी मुसीबतों का सामना करने के लिए खुद को तैयार कर लें।

पंजाबी ट्रिब्यून लिखता है, शहरी क्षेत्रों में अंधाधुंध निर्माण और योजना की कमी नुकसान की मुख्य वजह हैं। कई शहरों में, प्राकृतिक जलस्रोतों को या तो अवरुद्ध कर दिया गया है या उनके रखरखाव की उपेक्षा की गई है। कई स्थानों पर पानी के बहाव क्षेत्र पर कब्जा कर निर्माण कर लिया गया है। इसके अलावा शहरी नियोजन की कमी भी हर जगह दिखाई देती है। इंसान का लालच हर जगह हावी दिखता है।

पंजाबी जागरण लिखता है, पंजाब के ज्यादातर रिहायशी इलाकों में बरसात का पानी भर गया। उधर, हिमाचल प्रदेश के मनाली शहर में ब्यास ने कहर बरपाया है। कुल मिलाकर प्रकृति के प्रकोप के कारण इंसानी इंतजाम पूरी तरह से लचर साबित हो रहे हैं। बाढ़ के कारण ऐसी तबाही कुछ सालों में नहीं तो हर साल होती है, लेकिन सरकारें इससे कोई सबक नहीं लेतीं और इस संकट से निपटने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए जाते।

चढ़दीकलां लिखता है, पिछले कई दिनों की बारिश में उत्तर भारत में पहाड़ों से लेकर मैदानों तक जो तबाही मची है, वह भविष्य के लिए एक बड़ी चेतावनी है। वैसे तो पिछले कई सालों से बारिश के मौसम में नदियों का भयानक और विनाशकारी रूप देखने को मिलता रहा है, लेकिन इस बार की बारिश ने और भी भयानक रूप दिखाया है। मोहल्लों और सड़कों पर पानी जमा हो गया है, जिससे लोगों का घर से निकलना मुश्किल हो गया है। ऐसे में शहरी नियोजन पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं।

देशसेवक लिखता है, बारिश से पहले शहरों में नदी-नालों आदि की सफाई और सीवेज आदि पर करोड़ों रुपये खर्च कर दिए जाते हैं, लेकिन जब पानी आता है तो इंतजाम कहीं नजर नहीं आते। ग्लोबल वार्मिंग के दौर में क्या सरकारें पहले से ही 25-30 फीसदी अधिक बारिश के बारे में नहीं सोच सकतीं?

पंजाब टाइम्स लिखता है, बेशक बाढ़ को प्राकृतिक आपदा कहा जा रहा है लेकिन यह भ्रष्टाचारियों द्वारा पैदा की गई आपदा है। भ्रष्टाचार ने पूरी व्यवस्था को खोखला कर दिया है। शहरी विकास से जुड़े विभागों में भ्रष्टाचार सबसे ज्यादा है। नई कालोनियां बनाने और विकास कार्य करते समय जल निकासी पर ध्यान नहीं दिया जाता। बारिश ने सारे भ्रष्टाचारियों की पोल खोल दी है। बाढ़ रोकने के नाम पर पिछले 7 दशकों से भ्रष्टाचार हो रहा है, कोई पूछने वाला नहीं है।

अज दी आवाज लिखता है, वर्षा जल के संरक्षण या उसकी शीघ्र निकासी के नये तरीके खोजना जरूरी हो गया है। अखबार आगे लिखता है कि, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खटटर ने इस मामले में बहुत ही समझदारी भरी बात कही है कि जिन इलाकों में बाढ़ आई है वहां का पानी बाढ़ मुक्त इलाकों में पहुंचाया जाए।. उन्होंने बाढ़ के पानी का भंडारण करने को भी कहा है। असल में जब पूरी दुनिया के सामने पानी का बड़ा संकट है, तब हमारे आसपास का यह पानी व्यर्थ जाकर हमारी संपदा को नष्ट कर रहा है। देश में बाढ़ जल प्रबंधन के लिए बड़े पैमाने पर प्रबंधन नीति बनाने का अभी भी समय है। रोजाना स्पोक्समैन लिखता है, प्रकृति को नष्ट करने की मानव की जिद ही इस विनाश का मुख्य कारण है। लेकिन आज हर कोई एक दूसरे पर दोषारोपण करेगा। दरअसल, गलती हम सभी की है।

(युवराज)

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)

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