तो क्या डॉक्टरों की अनभिज्ञता के कारण भारत में फैल रहा ब्लैक फंगस?

तो क्या डॉक्टरों की अनभिज्ञता के कारण भारत में फैल रहा ब्लैक फंगस?


नर्मदेश्वर प्रसाद चैधरी

कोरोना वायरस का संक्रमण दुनियाभर में है लेकिन ब्लैक फंगस के मामले सिर्फ भारत में ही आ रहे हैं। एक्सपर्ट्स के मुताबिक भारत में डायबिटीज को लेकर लापरवाही, एक ही मास्क को बार-बार पहनने और यहां की वातावरण की परिस्थितियां भी एक कारण हो सकती हैं। बिना डाक्टर की सलाह के दवाओं को लेना, स्टेरायड्स का मिसयूज, एक ही मास्क को बार-बार पहनना भी संभावित कारण हो सकते हैं। डायबिटीज, इंडस्ट्रियल आक्सीजन का इस्तेमाल भी फंगल इन्फेक्शन का संभावित कारण हो सकता है।

देश में कोरोना महामारी के साथ ब्लैक फंगस (म्यूकोरमायकोसिस) का भी कहर टूट रहा है। कमजोर इम्युनिटी और स्टेरायड को इसका जिम्मेदार बताया जा रहा है। डाक्टरों की इस पर अलग अलग थ्योरी पेश की जा रही है लेकिन सवाल ये उठ रहा है कि जिस तरह भारत में ब्लैक फंगस बेकाबू हो रहा है उस तरह किसी अन्य देश में नहीं देखा जा रहा। देशभर में अबतक कुल 11 हजार से अधिक ब्लैक फंगस के मामले सामने आ चुके हैं। वहीं कई राज्य पहले ही म्यूकोरमायकोसिस को महामारी अधिनियम के तहत अधिसूचित बीमारी घोषित भी कर चुके हैं। भारत में ब्लैक फंगस से जो पीडित पाए जा रहे हैं, ज्यादातर कोरोना संक्रमण या फिर शुगर के मरीज हैं।

डाक्टरों के अनुसार भारत में कमजोर इम्यूनिटी वाले मरीजों में कोरोना वायरस संक्रमण के अलावा अन्य बीमारियों का खतरा भी बढ़ा है। माना जा रहा है कि खास तौर पर गंदे मास्क का लगातार प्रयोग, उच्च मधुमेह और कुछ मामलों में औद्योगिक आक्सीजन, जिस पर लोग ज्यादा निर्भर हैं, समेत अन्य कारणों से फंगल इंफेक्शन पनप रहा हैं। इसके अलावा शरीर में कम इम्युनिटी के कारण भी मरीजों में ब्लैक और वाइट फंगल इन्फेक्शन पैदा हो रहा है। शार्प साईट आई हास्पिटल्स के डाक्टर के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका के रोग नियंत्राण और रोकथाम केंद्र के आंकड़ों के अनुसार, म्यूकोरमायकोसिस या ब्लैक फंगस की मृत्यु दर 54 प्रतिशत है।

शार्प साईट आई हास्पिटल्स के निदेशक और सह संस्थापक डा. बी कमल कपूर ने बताया कि भारत की वयस्क आबादी में मधुमेह के अनुमानित 73 मिलियन मामले हैं। रोग प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए स्टेरायड का उपयोग करने से भी मधुमेह का स्तर बढ़ जाता है जिससे मधुमेह संबंधी जटिलताएं भी बढ़ जाती हैं। भारतीयों में डाक्टर के परामर्श के बिना खुद दवाएं लेना भी बीमारियों को बढ़ाने का कारण है जिसकी वजह से मरीजों के ठीक होने में सामान्य से अधिक समय लगता है। इस कारण मरीजों में ज्यादा जटिलताएं पैदा हो रही हैं और कई प्रकार के इन्फेक्शन भी बढ़ रहे हैं।

भारत में दो चीजें मुख्य हैं। कई लोग शुगर को रोजाना चेक नहीं करते या तो दवाई नहीं खाते। लोगों का मानना होता है कि यदि एक बार दवाई शुरू कर दी तो जिंदगी भर दवाई लेनी पड़ेगी। भारत के मुकाबले दूसरे अन्य देशों में अनमानिटर्ड स्टेरायड का इस्तेमाल नहीं हुआ है।

जब रिसर्च होगी, तब पूरी तरह से पता चल सकेगा कि ऐसा क्यों हुआ? कि हमारे यहां साफ सफाई न रहना भी एक कारण हो सकता है। लोग इस्तेमाल हुए मास्क को फिर इस्तेमाल कर रहे हैं। क्या भारत की जनसंख्या अधिक होने के कारण भी ऐसा है ? कि यदि हम यूएस और भारत की एक फीसदी आबादी की तुलना करें तो दोनों में फर्क होगा क्योंकि वो कहने में एक फीसदी हैं लेकिन नंबर्स अलग-अलग होंगे।

ये भी एक कारण हो सकता है, लेकिन जिस तरह से हमारे यहां मामले आ रहे हैं, वो अन्य जगहों पर नहीं दिख रहे। इसका जवाब तभी मिल सकता है जब अन्य देशों के मधुमेह के शिकार मरीजों की तुलना अपने देश से हो और देखा जाए कि हमारे यहां और अन्य देश में मधुमेह की जो प्रिवेलेन्स है उसके मुकाबले क्या हमारे यहां फंगस की प्रिवेलेन्स ज्यादा आ रही है?

ब्लैक फंगस की खासियत ये भी है कि इससे ग्रसित मरीज कभी घर नहीं बैठ सकता। उसे अस्पताल जाना ही होगा। कोरोना संक्रमित, कम प्रतिरक्षा प्रणाली वाले लोग जो लंबे समय से आईसीयू में रहे, कैंसर, कीमोथेरेपी वाले मरीज, स्टेरायड के उपयोग करने वाले मरीज और अनियंत्रित मधुमेह से पीडि़त मरीजों में ज्यादातर फंगस से ग्रसित हो रहे हैं। विश्व में अधिकतर फंगल इंफेक्शन भारत से रिपोर्टेड है। बाकी छोटे देशों में जनसंख्या कम है और कुल मामले भी कम हैं। भारत में सेकंड वेव के आखिरी पड़ाव में भी सवा लाख मामले कोरोना संक्रमण के आ रहे हैं।

आस्ट्रेलिया में कुल 30 हजार कोरोना संक्रमित मरीज सामने आए हैं। इसके अलावा भारत में ब्लैक फंगस के सबसे अधिक मामले सामने आए हैं। डाक्टरों के अनुसार, ब्लैक फंगस अलग-अलग तरह से नाक के नथुने, साइनस, रेटिना वाहिकाओं और मस्तिष्क को प्रमुखता से प्रभावित करता है। हमारे यहां अधिक मात्रा में स्टेरायड लेना, यहां की वातावरण की परिस्थितियां भी एक कारण हो सकती हैं। इसके अतिरिक्त कारण इंडस्ट्रियल आक्सीजन का इस्तेमाल करना, जिंक का ज्यादा इस्तेमाल होना, ये सब भी कारण हो सकते हैं लेकिन ये अभी तक सिर्फ थ्योरी हैं। कुछ भी अभी तक साबित नहीं हो सका है।

भारत में लोगों ने लापरवाही बरती, दवाइयों के मामले में घर पर भी स्टेरायड लें रहे थे। ब्लैक फंगस उन मरीजों में ज्यादा देखा जा रहा है जिन्होंने अपना ध्यान रखा है या प्राइवेट अस्पताल में जिनका इलाज हुआ है। सरकारी अस्पताल में ऐसे कम मरीज देखे गए हैं। उपरोक्त आधार पर यह कहा जाना कि पूरी गलती मरीज की हैं क्योकि वह बीमार हुआ, गलत है जिस प्रकार एक वकील किसी का मुकदमा लड़ता हैं और जीत जाता हैं तो कहते हैं कि मैंने मुकदमा जिता दिया और हार गए तो कहते हैं, केस में दम नहीं था इससे हार गए। यहां एक बात की जानकारी लेना चाहूंगा कि मधुमेह का मरीज इलाज हेतु चिकित्सक के पास जाता हैं। जो दवा लिखी जाती हैं, मरीज खाता है और कभी कभी मरीज लम्बे समय तक वह दवा लेता हैं पर दवा तो चिकित्सकीय परामर्श से ले रहा हैं। आज व्यक्तिगत स्वच्छता की बात करें कि मास्क का सही उपयोग न करना या एक ही मास्क का लम्बे समय तक उपयोग करना यह गलत हैं पर औद्योगिक आक्सीजन का उपयोग मरीज तो नहीं करता। उसका उपयोग हास्पिटल में डाक्टर्स द्वारा किया जाता हैं कि औद्यगिक आक्सीजन ,लम्बे समय तक देना व अस्पताल में चेहरे, नाक की सफाई न होने से मरीज ब्लैक फंगस से संक्रमित होते हैं।

स्टेरायड्स भी चिकित्सक चमत्कारी लाभ के लिए शुरुआत करते हैं। मरीज स्वयं इसका जानकार नहीं होता। कहने का आशय यह है कि इस रोग को बढ़ावा देने का मुख्य कार्य चिकित्सकों का है परन्तु अपनी कमी को ढाँकने के लिए मरीज पर दोषारोपण करना जरुरी हैं। कौन हाईएस्ट ब्राडेस्ट स्पेक्टरम एंटीबायोटिक्स उपयोग करते हैं क्योकि पहले ऊँची से ऊँची दवायंे देकर मरीज की इम्युनिटी पावर बिगाड़ी और फिर प्रतिरोधक क्षमता कम की और वह ठीक हो गया तो सफलता हमारी और मर गया तो मरीज की असफलता।

पूरा खेल अंधाधुंध चल रहा है। चिकित्सकों में एक मत नहीं हैं। दो पाटन के बीच में जनता पिस रही हैं। तर्क अलग अलग हो सकते हैं पर सत्य एक ही होता है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। इससे जनलेख प्रबंधन की सहमति जरूरी नहीं है।)

(युवराज)

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