सुखबिंदर
पूरी दुनिया में आर्थिक असमानता लगातार बढ़ती जा रही है। एक तरफ़ अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है और दूसरी तरफ़ मज़दूर-मेहनतकश जनता ग़रीबी-बदहाली के गड्ढे में और ज़्यादा धँसती जा रही है। इन हालात में जनता में आक्रोश भी बढ़ता जा रहा है। पिछले समय में नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और अन्य देशों में यह आक्रोश व्यापक स्तर पर देखने को मिला है।
हमारे देश भारत में भी अमीरी-ग़रीबी की खाई चिंताजनक रूप में बढ़ती जा रही है। कुछ ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने मिलकर कुछ दिन पहले ‘एम3एम हुरुन इंडिया रिच लिस्ट 2025’ जारी की है। इस सूची में उन्होंने भारत के 1,000 करोड़ रुपए से ज़्यादा संपत्ति वाले 1,687 व्यक्तियों को शामिल किया है, जिनकी कुल संपत्ति 167 लाख करोड़ रुपए है, जो कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग आधा बनता है। इस सूची में दर्ज 451 नाम मुंबई से, 223 दिल्ली से और 116 बेंगलुरु से हैं। नीरज बजाज और बजाज ग्रुप के परिवार की संपत्ति में पिछले साल के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा, 43 प्रतिशत, की वृद्धि हुई है।
इस सूची के अनुसार भारत में 358 अरबपति (अमेरिकी डॉलर के अनुसार) हैं। यह संख्या पिछले साल से 24 ज़्यादा है और 2012 के मुक़ाबले यह संख्या छह गुना ज़्यादा है। आर्थिक असमानता कितनी भयानक हद तक बढ़ चुकी है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सबसे अमीर 10 लोगों के पास देश की कुल दौलत का 27 प्रतिशत है, जिनमें सिर्फ़ अंबानी और अदाणी के पास 12 प्रतिशत है। मुकेश अंबानी ने 9.55 लाख करोड़ रुपए की संपत्ति के साथ गौतम अदाणी को फिर से पीछे छोड़ दिया है। गौतम अदाणी 8.15 लाख करोड़ रुपए की संपत्ति के साथ सूची में दूसरे नंबर पर है। तीसरे नंबर पर रोशनी नाडर मल्होत्रा और उनका परिवार है, जिसकी संपत्ति 2.84 लाख करोड़ रुपए है।
इसके अलावा नए शुरू हुए आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (ए.आई.) प्लेटफ़ॉर्म पर्पलेक्सिटी का मालिक अरविंद श्रीनिवास 21,190 करोड़ रुपए की संपत्ति के साथ भारत का सबसे कम उम्र का अरबपति बन गया है। बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख़ ख़ान भी पहली बार 12,490 करोड़ रुपए के साथ अरबपतियों की सूची में शामिल हुआ है। जारी हुई रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि पिछले दो साल में भारत में हर हफ़्ते औसतन एक नया अरबपति पैदा हुआ है। पूँजीपति वर्ग के पास जमा हुई यह धन-दौलत मज़दूर-मेहनतकश आबादी की तीखी लूट का नतीजा है।
आर्थिक असमानता का ज़मीनी स्तर का एक नमूना देखिए। एक तरफ़ मुकेश अंबानी का घर “एंटिला” है, जो 400,000 वर्ग फ़ुट जगह पर बना हुआ है। इस घर में हेल्थ क्लब, हैलीपेड, 21 लिफ़्ट, 600 से ज़्यादा नौकर हैं। इस घर का बिजली का बिल ही 80 लाख से अधिक आता है। यह घर जितनी जगह पर बना हुआ है, उतनी जगह में हज़ारों ग़रीब झुग्गियों में रहते हैं, जबकि अंबानी के घर में केवल 6 लोग हैं। इसी अंबानी के घर के सामने झुग्गियों में रहने वाली एक औरत ने कहा दृ ‘कभी-कभी बुरा लगता है कि मैं और अंबानी दोनों ही इंसान हैं, लेकिन मैं 4,000 रुपए महीने पर गुज़ारा करती हूँ और फ़र्श पर सोती हूँ और वह (अंबानी) एक स्वर्गनुमा महल में रहता है।’ यह तो पूँजीवादी समाज की असमानता का एक उदाहरण है।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूँजीवादी व्यवस्था वाले देशों के शासकों ने ‘कल्याणकारी राज्य’ की नीतियाँ अपनाईं। इन नीतियों के तहत लोगों को तात्कालिक तौर पर कुछ सहूलतें दी गईं। मुफ़्त इलाज, मुफ़्त शिक्षा आदि से लोगों को शांत रखने की कोशिश की गई। पेंशन, सब्सिडियों आदि के मिलने से कुछ हद तक लोगों का जीवन आसान हुआ। राजकीय उद्योगों में मेहनतकश आबादी के एक हिस्से को पक्का रोज़गार भी मिला। निजी क्षेत्र में बड़ी पूँजी और टैक्स लगाए गए, कुछ हद तक मज़दूरों के लिए क़ानूनी श्रम अधिकार लागू हुए, लेकिन यह सब पूँजीवादी शासकों की दरियादिली नहीं थी, बल्कि मज़दूरों-मेहनतकशों के क़ुर्बानियों भरे आंदोलनों के दबाव और डर के कारण ही हुक्मरान जनता को कुछ अधिकार देने पर मजबूर हुए थे।
1980 आते-आते कल्याणकारी राज्य में पूँजीपतियों का दम घुटना शुरू हो गया था। मुनाफ़े की दर के कम होने के कारण पूँजीपति वर्ग को नई आर्थिक नीति की ज़रूरत महसूस हुई, जिसके कारण “नवउदारवाद” का जन्म हुआ, जिसके बाद पहले से ही मौजूद आर्थिक असमानता में अत्यधिक इज़ाफ़ा हुआ। पूँजी का केंद्रीकरण सब सीमाएँ लाँघ गया है, जिसके कारण समाज का वर्गीय विभाजन और तीखा होता जा रहा है। मध्य वर्ग का दायरा लगातार सिकुड़ रहा है। ग़रीब किसान, छोटे दुकानदार आदि बड़ी पूँजी के मुक़ाबले में टिक नहीं सकते, जिससे ये तेज़ी से मज़दूर और अर्ध-मज़दूर क़तारों में शामिल हो रहे हैं। मज़दूर वर्ग के श्रम की लूट तीखी होती गई है। ऐसे वक़्त में तमाम जनता में बेचौनी लगातार बढ़ रही है। शासकों के लिए पुराने ढंग से राज करना मुश्किल होता जा रहा है। इसी कारण दुनिया-भर में सत्ता द्वारा जनता का दमन बढ़ता जा रहा है। इन दमनकारी सरकारों का एक मक़सद तो बढ़ती असमानता के कारण पैदा हुए जनाक्रोश को दबाना है। दूसरा और भी तेज़ी से नवउदारवादी नीतियों को लागू करके अपने आकाओं के मुनाफ़े बढ़ाना है। लेकिन जनता भी हर ज़ुल्म चुप करके नहीं सहती रहेगी। दुनिया-भर में मेहनतकशों में आक्रोश बढ़ रहा है, जो विभिन्न रूपों में फूट रहा है। असमानता पूँजीवादी व्यवस्था का अटल नियम है, जिसे इस समाज में कभी भी पूरी तरह ख़त्म नहीं किया जा सकता। पूरा पूँजीवादी प्रचार तंत्र जनता में यह भ्रम खड़ा करता है कि चुनावों के ज़रिए जनपक्षधर सरकार चुनकर जनता की समस्याओं का हल हो सकता है। असल में जब तक मुनाफ़े पर टिकी मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था कायम रहेगी, जब तक उत्पादन के साधनों पर, राज्य व्यवस्था पर पूँजीपति वर्ग का क़ब्ज़ा और नियंत्रण रहेगा, तब तक मेहनतकश जनता की ग़रीबी-बदहाली का और समाज में भयानक आर्थिक असमानता का ख़ात्मा नहीं किया जा सकता। सिर्फ़ और सिर्फ़ समाजवादी व्यवस्था कायम करके ही ऐसा संभव है।
आलेख के लेखक वामपंथी चिंतक और एक पत्रिका के संपादक हैं। आलेख में व्यक्त विचार आपके निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।
