चन्द्र प्रभा सूद
कुछ दशक पूर्व हमारे देश में सभी गृहणियाँ बैठकर खाना पकाया करती थीं। जमीन पर चूल्हा बनाया जाता था, उसमें लकड़ी जलाकर भोजन बनाने की प्रथा थी। फिर अँगीठी का प्रयोग होने लगा जिसे कोयले और लकड़ी से सुलगाया जाता था। अभी भी गाँवों आदि में यह चूल्हा प्रचलन में है। प्रातरू का खाना पकाने के पश्चात सायंकाल के लिए उसमें रात के खाने हेतु कुछ भी पकाने के लिए चढ़ा दिया जाता है। धीमी-धीमी आँच पर पका हुआ वह भोजन बहुत ही स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है, उससे आज हम वञ्चित हो गए हैं।
आज रसोईघर में शेल्फ डालकर खाना खड़े होकर बनाया जाता है। चूल्हे का स्थान गैस ने ले लिया है। कूकर से गैस पर खाना निस्सन्देह शीघ्र बन जाता है। इससे समय व ईंधन दोनों की बचत होती है। परन्तु यह भी सत्य है कि इस खाने में वैसा स्वाद नहीं होता। आजकल बनने वाले मॉड्यूलर किचन सभी सुविधाओं से भरपूर होते हैं। महिलाएँ खाना पकाने का सारा सामान हाथ बढ़ाकर बिना किसी कष्ट के सरलता से ले सकती हैं।
आधुनिकीकरण ने मनुष्य को जहाँ सुविधाओं से सम्पन्न किया है, वहीं दूसरी ओर उसके लिए काँटे बोने का कार्य भी किया है। सभी सुविधाओं से सम्पन्न इन आधुनिक रसोईघरों में चमक-दमक बहुत है। इनमें खाना बनाने के समय की बचत होती है। लकड़ियों से होने वाले धुँए और कष्ट के बिना ही भोजन तैयार हो जाता है। साथ ही बर्तन भी चमकते रहते हैं, उन्हें अधिक घिसने की आवश्यकता भी नहीं रहती। जरा-सा विम लगाओ और बर्तन जगमग करने लगते हैं।
बैठकर खाना बनाते समय गृहणियों को बार-बार उठकर सामान लेना पड़ता था। इससे अनजाने में ही उनका व्यायाम हो जाया करता था जो उनके लिए स्वस्थ के लिए लाभदायक होता था। आधुनिक रसोईघरों में सारे कार्य खड़े होकर निपटाए जाते है। वहाँ नीचे झुकने या नीचे बैठने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस प्रक्रिया से स्वभाविक रूप से व्यायाम नहीं हो पाता। इसलिए टाँगों और पैरों पर सारे शरीर का भार पड़ता रहता है जो समय बीतते कई बिमारियों को अनायास ही न्योता दे बैठता है।
इतनी सब अच्छाइयों के बावजूद कहीं कुछ अधूरापन कचोटता रहता है। पहले रसोईघर में जमीन पर बैठकर जो खाना खाया जाता था उसमें कुछ और ही आनन्द आता था जो आज मंहगे और डिजाइनर डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाने से भी नहीं आता। कुछ लोग उन चूल्हों और उन पर पके हुए खाने को देखकर अपनी नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं जैसे पता नहीं उन्होंने क्या देख लिया हो?
तब माँ के हाथ का बना खाना प्यार से खाया और खिलाया जाता था। साथ ही सब लोग अपने दिन भर की घटने वाली घटनाओं की भी चर्चा किया करते थे। माता-पिता बात-बात में बच्चों को संस्कार भी देते रहते थे। ऐसे में बच्चे संस्कारी और घर के सभी सदस्यों की परवाह करने वाले बनते थे। परन्तु आज यह सब स्वप्न जैसा होता जा रहा है।
आज बहुत सारा पैसा कमाने की होड़ में सब कुछ पिछड़ता जा रहा है। सभी लोग सदा भागमभाग में लगे रहते हैं, किसी के पास तसल्ली से बैठकर खाने का समय ही नहीं होता। उस पर घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों और कार्यालय का तनाव भी बना रहता है। बच्चों को भी इसलिए संस्कार देने का कार्य करना सम्भव नहीं हो पाता। तभी माता-पिता अनजाने में ही अपने बच्चों को उद्दण्ड बनाते जा रहे हैं।
जिस अन्न के लिए मनुष्य कोल्हू का बैल बना दिन-रात खटता रहता है, उसी को खाने का समय उसके पास नहीं निकल पाता। यह स्थिति बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण कही जा सकती है। ऐसे में चमकते हुए घर तो बस न चाहते हुए सराय अथवा होटल की तरह बनते जा रहे हैं।
आधुनिकीकरण होना बहुत अच्छा है। यह हमारी उन्नति का परिचायक है। साथ ही हमें अपनी विरासत को नकार कर उसका उपहास नहीं करना चाहिए।
(आलेख के व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)