गौतम चौधरी
स्थानीय निकाय शासकीय व्यवस्था भारत की अहम और पुरातन सांस्कृतिक सल्तनत का प्रभावशाली राजनीतिक इकाइ रहा रहा है। सच पूछिए तो भारत कभी पूर्ण रूप से राजा और महाराजाओं के द्वारा शासित रहा ही नहीं। राजा या चक्रवर्ती सम्राट का काम बाहरी आक्रमण से आम जन की सुरक्षा का होता था और उसके बदले प्रजा केन्द्रीय सत्ता को बेहद सीमित मात्रा में टैक्स दिया करती थी। यह व्यवस्था भारत की गणीय शासन प्रणाली का अंग था। केन्द्रीय राजसत्ता बदलती रही लेकिन स्थानीय शासन व्यवस्था में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हो पाया। अंग्रेजी काल में इसे थोड़े दिनों के लिए स्थगित कर दिया था लेकिन जब अंग्रेजों को लगा कि भारत के स्वतंत्र मानसिकता वाले लोगों को हम नियंत्रित नहीं कर सकते तब उन्होंने भी स्थानीय शासन प्रणाली को फिर से प्रारंभ किया। पूरे सल्तनत काल से लेकर मुगलिया शासन तक स्थानीय शासन प्रणाली भारत के राजनीतिक प्रशासन का अहम हिस्सा रहा।
स्वतंत्रता के 7 दशक बाद अब स्थानीय लोकतांत्रिक इकाइयां,भारत जैसे कृषि आधारित समाज में सत्ता की राजनीति दिशा तय करने लगी है। इसमें महिलाओं की भागीदारी अनुपातिक तौर पर सुनिश्चित हो रही है। यह भारतीय लोकतंत्र की आत्मा है। राजनीति विज्ञानियों का मानना है कि जो पार्टी या नेता भारत की स्थानीय संरचनाओं से सबसे अधिक जुड़ा होता है, वही केंद्र की सत्ता पर काबिज़ होने की सबसे अधिक संभावना रखता है। महिलाएँ चुनावों में मतदाता, प्रचारक या प्रत्याशी के रूप में चुनावी प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा बनती रही है। खासकर स्थानीय निकाय चुनावों में इन महिलाओं की भूमिका प्रभावशाली होती जा रही है।
पिछले 15 वर्षों में महिलाओं की भूमिका स्थानीय चुनावों में बढ़ी है। एक स्वतंत्र सर्वेक्षण एजेंसी की रपट पर भरोसा करें तो स्थानीय निकाय प्रशासन और प्रबंधन में महिलाओं की भूमिका न केवल मजबूत हुई है अपितु वह स्थानीय शासन को चलाने में पुरुषों के मुकाबले ज्यादा सक्षम भी हुई हैं। गाँव-स्तर के कार्यकर्ताओं, ख़ासकर महिलाओं तक पहुँच बनाने के लिए दलों ने प्रशिक्षण कार्यक्रमों, संवाद तंत्रों और सहकारी नेतृत्व की शुरुआत की है। यह अब भविष्य की राजनीतिक रणनीति का खाका हिस्सा बन चुका है। आज राज्य और राष्ट्रीय स्तर की पार्टियाँ भी यही तरीका अपना रही हैं। इस तरह का जुड़ाव दलों की ‘जनसेवक’ वाली छवि गढ़ता है और उनके शासन को समावेशी बनाता है। इस जुड़ाव का केंद्रीय तत्व है चुनावी अवसर, जो महिलाओं को स्थानीय चुनाव लड़ने और जमीनी स्तर से प्रभावशाली पदों तक पहुँचने का मौका देता है।
आधुनिक भारत के निमार्ण में अल्पसंख्यक, खास कर मुसलमानों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। अब जब स्थानीय निकाय शासन और प्रशासन की अहम इकाई बन गयी है तो इसमें मुसलिम महिलाएं भी बढ-चढ़ कर हिस्सा ले रही है। वे सामुदायिक मुद्दों को वैचारिक या सांप्रदायिक विभाजनों से ऊपर रखकर शासन को नया आकार दे रही हैं। कई महिलाएँ दलों से जुड़ती हैं या स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ती हैं और समुदाय की छवि को बदलते हुए राजनीतिक विमर्श को नई दिशा देने का प्रयास करती हैं।
सरकार ने उज्ज्वला योजना, गरीब कल्याण योजना, कृषि सिंचाई योजना, अटल पेंशन योजना, जन धन योजना, नारी शक्ति पुरस्कार योजना और स्वयं सिद्धा योजना जैसी कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से मुस्लिम महिलाओं के लिए निर्णय-प्रक्रिया, यहाँ तक कि चुनावी राजनीति में भागीदारी के रास्ते खोले हैं। इन सरकारी पहलों से दलों का वास्तविक वोट आधार मज़बूत हुआ है। हाल के वर्षों में वर्तमान सरकार ने अल्पसंख्यकों तक पहुँच बढ़ाकर जमीनी राजनीति को अधिक समावेशी बनाने में ऊर्जा लगाई है। ‘पासमांदा पहुँच’ और मुस्लिम महिलाओं का वोट आधार इसके प्रमुख उदाहरण हैं, जिनसे मुस्लिम महिलाओं को संस्थाओं तक पहुँच और शासन पर प्रभाव डालने के अवसर मिल रहे हैं। मुस्लिम महिलाएं सरकारी पहलों के माध्यम से शासन को नया रूप दे रही हैं।
2023 के उत्तर प्रदेश शहरी स्थानीय चुनावों ने इस प्रवृत्ति को रेखांकित किया। राजनीतिक दलों ने पहले से अधिक मुस्लिम उम्मीदवार उतारे। इनमें से 61 विजयी रहीं, जिसका श्रेय पासमांदा समूहों और महिला मतदाताओं तक पहुँच को दिया गया। सहारनपुर की चिलकाना नगर पंचायत में फुलबानो अध्यक्ष चुनी गईं। फुलबानो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कई मुस्लिम महिला अध्यक्षों में से एक हैं। इसे बहुत बढ़िया तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन मुस्लिम महिलाएं अपनी जमीन खुद तलाश रही हैं। उन्हें कम ही सही पर जगह मिलने लगा है। आने वाला भविष्य और बढ़िया होगा। यह संकेत साफ तौर पर मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में प्रभावशाली अभियान हिस्सा बनता दिख रहा है। यहां एक और बेहतर बातें देखने को मिल रही है। स्थानीय निकायों का नेतृत्व कर रहीं मुस्लिम महिलाएं पारंपरिक और सांप्रदायिक मुद्दों को छोड़, पीने के पानी, स्वच्छता, सड़कों और आंगनवाड़ियों जैसी सार्वजनिक सुविधाओं पर विकासात्मक मामलों पर अधिक ध्यान देती दिखती हैं। अध्ययन बताते हैं कि मुस्लिम महिलाओं के नेतृत्व वाले पंचायत विशेषकर महिला-प्रधान परिवारों के लिए स्वच्छता पर ज़ोर देते हैं।
बिहार का एक और रोचक उदाहरण है। यहाँ पंचायत प्रतिनिधियों में महिलाएँ बहुमत में हैं। हाल के चुनावों में मुस्लिम महिलाओं को नामांकन और प्रचार में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, फिर भी वे स्वयं सहायता समूहों और नेटवर्क का सहारा लेकर चुनावी सफलता हासिल कर रही हैं। राज्य में पहले से ही महिलाओं का प्रतिनिधित्व ऊँचा होने के कारण मुस्लिम महिलाओं की उपलब्धियाँ और भी दिखाई देती हैं। असम में, विशेषकर निचले और दक्षिणी जिलों में, कई मुस्लिम महिलाओं ने पार्टी प्रतीक के बिना पंचायत चुनाव लड़ी और परिवारिक नेटवर्क पर भरोसा किया। यह बड़ा बदलाव है, क्योंकि पहले घरेलू दायरे तक सीमित महिलाएँ अब राजनीति में उतर रही हैं। ‘चार’ क्षेत्रों में कई पहली बार चुनाव लड़ने वाली मुस्लिम महिलाएँ जीतीं और उन्होंने अपनी जीत का श्रेय मुस्लिम महिला मतदाताओं को दिया। केरल का ‘कुडुंबश्री’ दुनिया का सबसे बड़ा महिला सामूहिक संगठन, राजनीतिक भागीदारी का मंच बन चुका है। 2020 के स्थानीय चुनावों में 16,965 सदस्य मैदान में उतरीं, जिनमें से 7,071 विजयी रहीं। मुस्लिम-बहुल मलप्पुरम जिले (70 प्रतिशत मुस्लिम आबादी) में महिलाओं का स्थानीय निकायों, वार्ड कार्यालयों और अन्य समूहों में प्रतिनिधित्व बड़ी तेजी से बढ़ा है, जिससे परंपरागत परिवारों से पहली बार राजनीति में आने वाली महिलाओं को अवसर मिला।
‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान’ के तहत केंद्र सरकार निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के लिए नेतृत्व और विषयगत मॉड्यूल तैयार कर रही है। 8 मार्च 2025 को “महिला अनुकूल ग्राम पंचायतों” को बढ़ावा देने के लिए विशेष ग्राम सभाएँ आयोजित की गईं। पंचायती राज मंत्रालय ने यूएनएफपीए के सहयोग से प्रशिक्षण सामग्री और मास्टर ट्रेनर्स तैयार किए हैं। सरकार ने राज्यों को “महिला सभाओं” को संस्थागत रूप देने के दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं, जहाँ महिलाएँ सामूहिक माँगें रख सकती हैं। मुस्लिम महिलाएँ इन मंचों का उपयोग कर आत्म-अभिव्यक्ति, सशक्तिकरण और अपने भविष्य की क्यूरेटर बनने की ओर बढ़ रही हैं।
ये तथ्य बताते हैं कि स्थानीय संस्थाओं में मुस्लिम महिलाओं का प्रवेश महज़ प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि भारत की स्थानीय राजनीति में का रहा एक वास्तविक बदलाव है। आरक्षण, दलों की पहुँच और पंचायती राज के नए मंचों के सहारे ये महिलाएँ भागीदारी को ठोस सार्वजनिक लाभों में बदल रही हैं। यदि यह संस्थागत सहयोग जारी रहा तो, ये महिलाएँ सशक्त होंगी, स्थानीय परिदृश्य बदलेंगी और भारतीय लोकतंत्र को दुनिया के सामने एक मिसाल के रूप में मुस्लिम महिलाएं खुद प्रस्तुत करेंगी।