पंकज सिंहा
एक साथ चुनाव कराने का विचार, भारतीय चुनावी चक्र को इस तरह से सरंचित करने को लेकर है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ एवं निश्चित समय के भीतर हों। हालांकि वर्ष 1967 तक इस अवधारणा के तहत चुनाव आयोजित किए गए, लेकिन कार्यकाल समाप्त होने से पहले विधानसभाओं और लोकसभाओं के बार-बार भंग होने के कारण यह अभ्यास धीरे-धीरे प्रचलन से बाहर हो गया। वर्तमान में केवल कुछ राज्यों (आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा और सिक्किम) की विधानसभाओं के चुनाव ही लोकसभा चुनावों के साथ होते हैं।
अगस्त 2018 में भारत के विधि आयोग द्वारा एक साथ चुनावों पर जारी मसौदा रिपोर्ट के अनुसार, एक राष्ट्र एक चुनाव के अभ्यास से सार्वजनिक धन की बचत की जा सकती है, प्रशासनिक व्यवस्था और सुरक्षा बलों पर पड़ने वाले तनाव को कम किया जा सकेगा, सरकारी नीतियों का समय पर कार्यान्वयन होगा तथा चुनाव प्रचार के बजाय विकास गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए विभिन्न प्रशासनिक सुधार किये जा सकेंगे।
लॉ कमीशन वर्किंग पेपर (2018) की सिफारिशों के अनुसार, संविधान, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम,1951 तथा लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं की प्रक्रिया के नियमों में संशोधन के माध्यम से एक साथ चुनाव बहाल किये जा सकते हैं। वर्ष 1951 के अधिनियम की धारा 2 में एक परिभाषा जोड़ी जा सकती है। लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कामकाज के नियमों में संशोधन के माध्यम से अविश्वास प्रस्ताव को रचनात्मक अविश्वास मत से बदला जा सकता है।
दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव पाँच साल के लिये एक साथ होते हैं और नगरपालिका चुनाव दो साल बाद होते हैं। स्वीडन में राष्ट्रीय विधायिका और प्रांतीय विधायिका/काउंटी परिषद तथा स्थानीय निकायोंध्नगरपालिका विधानसभाओं के चुनाव चार साल के लिये एक निश्चित तिथि यानी सितंबर के दूसरे रविवार को होते हैं लेकिन अधिकांश अन्य बड़े लोकतंत्रों में एक साथ चुनाव की ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।
जिस देश के प्रेरणा से हमने संसदीय लोकतंत्र को अपनाया है उस ब्रिटेन में भी ब्रिटिश संसद और उसके कार्यकाल को स्थिरता एवं पूर्वानुमेयता की भावना प्रदान करने के लिये निश्चित अवधि संसद अधिनियम, 2011 पारित किया गया था। इसमें प्रावधान था कि पहला चुनाव 7 मई, 2015 को और उसके बाद हर पाँचवें वर्ष मई के पहले गुरुवार को होगा।
जर्मनी के संघीय गणराज्य के लिये बुनियादी कानून का अनुच्छेद 67 अविश्वास के रचनात्मक वोट का प्रस्ताव करता है (पदाधिकारी को बर्खास्त करते हुए उत्तराधिकारी का चुनाव करना)। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीस वर्षों में प्रत्येक वर्ष में किसी न किसी राज्य में चुनाव होता रहा है। इसके साथ ही प्रत्येक राज्य में नगर निकाय एवं पंचायतों के भी चुनाव होते रहते हैं। इसके चलते देश में रह-रहकर चुनाव आचार संहिता के लागू होने की नौबत आती है। इसके कारण न केवल प्रशासनिक एवं नीतिगत फैसले प्रभावित होते हैं, बल्कि देश की ऊर्जा एवं अन्य संसाधनों का अनुपयुक्त प्रयोग भी होता है।
नीति आयोग ने यह सुझाव दिया था कि कुछ राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल में विस्तार एवं कुछ राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल में कटौती करके एक देश एक चुनाव की तरफ बढ़ने की पहल की जा सकती है। इससे न सिर्फ चुनावी खर्च पर लगाम लगेगी, बल्कि सार्वजनिक धन की भी बचत होगी। प्रशासनिक मशीनरी पर भार कम होने से वह नीतियों के क्रियान्वयन के लिए ज्यादा समय दे सकेगी। केंद्र सरकार का भी ध्यान नीतिगत फैसले लेने और उनके क्रियान्वयन पर अधिक रहेगा। चुनावों की अवधि को घटाने से कार्यदिवसों की बचत होगी। काले धन पर रोक लगेगी तथा राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण और भ्रष्टाचार में कमी आएगी। इससे जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर भी अंकुश लगेगा। जब चुनाव आयोग यह कह चुका है कि हम लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने में सक्षम हैं तो फिर इस दिशा में गंभीर प्रयास क्यों नहीं किए जा रहे हैं?
एक देश एक चुनाव होने से चुनावों पर होने वाले व्यय में भी कमी आएगी। 1952 के चुनाव में 10.45 करोड़ रुपये का व्यय हुआ था, जो 2014 में बढ़कर 30,000 करोड़ रुपये हो गया। वहीं 2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में करीब 10 हजार करोड़ रुपये ही व्यय हुए, जबकि भारत की अर्थव्यवस्था की तुलना में अमेरिका की अर्थव्यवस्था कई गुना बड़ी है।
सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज के एक अनुमान के अनुसार 17वीं लोकसभा के चुनाव पर 60 हजार करोड़ रुपये से अधिक व्यय हुआ। चुनावों में होने वाले व्यय की प्रवृत्तियां बताती हैं कि प्रत्येक पांच वर्ष में यह व्यय दोगुना हो जाता है। 2015 में बिहार चुनाव पर लगभग 300 करोड़ रुपये व्यय हुए थे, जो 2020 के चुनाव में बढ़कर 625 करोड़ रुपये हो गए। 2016 में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल एवं पुडुचेरी के चुनावों पर कुल 573 करोड़ रुपये व्यय किए गए थे।एक अनुमान के अनुसार चुनाव आयोग प्रति वर्ष होने वाले चुनावों पर लगभग 1000 करोड़ रुपये व्यय करता है।
केंद्र सरकार ने श्एक राष्ट्र एक चुनावश् (व्दम दंजपवद व्दम मसमबजपवद- व्छव्म्) योजना की व्यवहार्यता का पता लगाने के लिये पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक पैनल का गठन किया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अनेक मंचों से एक देश एक चुनाव की बात कह चुके हैं। नीति आयोग, विधि आयोग एवं अन्य समीक्षा समितियों ने भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की पहल का समर्थन किया है। देखा जाए तो यह विचार भारत के लिए कोई नया भी नहीं है। वर्ष 1952 से लेकर 1967 तक होने वाले चार लगातार चुनाव इसी विचारधारा पर आधारित थे। 1968-69 में कई राज्यों की विधानसभाएं अलग-अलग कारणों से निश्चित समय सीमा से पहले ही भंग होने के कारण एवं 1971 में लोकसभा के चुनाव तय समय से पूर्व होने से राज्यों एवं केंद्र के एक साथ होने वाले चुनावों की कदमता बिगड़ गई। जब पहले ऐसा हो सकता था तो अब क्यों नहीं हो सकता?
(आलेख में व्यक्ति विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)