भारत में धार्मिक असहिष्णुता पर बवाल मचाने वालों के लिए नसीहत है यह सर्वेक्षण

भारत में धार्मिक असहिष्णुता पर बवाल मचाने वालों के लिए नसीहत है यह सर्वेक्षण

कलीमुल्ला खान

जब कभी धार्मिक सहिष्णुता पर प्रश्न उठता है तो अक्सर भारत को पश्चिमी मीडिया नकारात्मक छवि में प्रस्तुत करता है। केन्द्र में कांग्रेस की सरकार के स्थान पर भाजपा सरकार के आने से कई लोगों ने भारत में रहने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों के बुरे दिन आने का शक जाहिर किया था। अगर वाड्सएप एवं फेसबुक की पोस्टरों एवं ट्वीटर पर यकीन किया जाए तो यह अंदेशा सच प्रतीत होता है। बहरहाल, पीईडब्लू रिसर्च सेंटर, जो एक स्वतंत्र रूप से कार्य करने वाली बुद्धिजीवियों की संस्था है, इसका काम लोगों को मुद्दों, व्यवहार एवं दुनिया में नित नए होने वाले चलन के बारे में बताना है, ने भारत में इस कथित धार्मिक असहिष्णुता के बारे में पैदा की गयी मिथ्या प्रचार को आईना दिखाने का काम किया है।

वर्ष 2019-20 में पीईडब्लू रिसर्च सेंटर ने भारत के 30 हजार लोगों के बीच 17 भाषाओं में सर्वेक्षण किए। इस सर्वेक्षण की एक और खासियत है। यह सर्वेक्षण विभिन्न भाषा एवं धार्मिक समूहों के लोगों को आमने-सामने बिठाकर किया गया। सर्वेक्षण रिपोर्ट में पाया गया कि विभिन्न धार्मिक परिपेक्ष्य में रहने वाले भारतीयों ने बढ-चढ़ कर यह कहा कि वे अपने धर्मों को मानने के लिए स्वतंत्र हैं। यही नहीं कई मामलों में एक धार्मिक मान्यता वाले दूसरे मान्यताओं को आत्मसात भी करते देखे गए। मसलन, आम तौर पर कर्म को हिन्दू धर्म का सिद्धांत माना जाता है किन्तु हिन्दुओं के अलावा भारत में रहने वाले लगभग 75 प्रतिशत मुसलमान भी कर्म के सिद्धांत को मानते हैं, इस सर्वेक्षण में यह स्पष्ट हुआ। इसके अलावा उत्तर भारत में 12 प्रतिशत हिन्दू, 10 प्रतिशत सिख व 37 प्रतिशत मुसलमान सूफीवाद में विश्वास करते हैं, जो एक रहस्यवादी परंपरा है और इस्लाम धर्म की मान्यताओं से जुड़ा हुआ है। दो तिहाई जैन मत को मानने वाले तथा आधे सिखों का कहना है कि उनके बहुत से रिती रिवाज हिन्दुओं से मिलते-जुलते हैं जबकि लगभग सभी जैन लगभग 92 प्रतिशत का कहना है कि वे अपने पड़ोस में हिन्दू पड़ोसी को तरजीह देते हैं, जबकि 45 प्रतिशत हिन्दुओं का कहना है कि वे किसी भी धर्म जैसे इस्लाम, ईसाई, सिख, बौध या जैन के मानने वालों को अपने पड़ोसी के तौर पर अपना सकते हैं। सर्वेक्षण में भारतीयों द्वारा प्रदर्शित किए गए विचार धार्मिक सहिष्णुता को दर्शाती।

दुनिया के अन्य हिस्सों में सामान्य तौर पर अक्सर ऐसा देखा जाता है कि अलग-अलग धार्मिक समुदायों के लोग पृथक-पृथक क्षेत्रों में निवास करें लेकिन भारत में ऐसा कम देखने को मिलता है। यह भारतीय संस्कृति की खासियत है और यह धार्मिक सहिष्णुता का मूलमंत्र भी है। पीईडब्लू रिसर्च सेंटर के द्वारा किया गया सर्वेक्षण इस दिशा की ओर इशारा करता रहा है कि भारत में जो असहिष्णुता दिखाया या बताया जाता है वह गलत है। यहां का समाज इतना सहिष्णु है कि आपसी संबंध बेहतर हैं और यही कारण है कि अन्य देशों की अपेक्षा यहां ज्यादा शांति है। यहां धार्मिक अल्पसंख्यक आपस में घुले मिले हैं, जबकि कुछ देशों में रहने वाले लोग यह पसंद करते हैं कि भिन्न पहचान वाले अलग-अलग धार्मिक समूह इकट्ठे न रहें।

राजनीति से प्रेरित तथा टीआरपी की भूखी मीडिया इस बात को नहीं समझ पाती है या ऐसा कहें कि नहीं समझना चाहती है और नकली किस्म की असहिष्णुता का प्रचार करने लगती है। इस मामले में समाचार माध्यमों के कई पूर्वाग्रह भी होते हैं। कई समाचार माध्यम उन पूर्वाग्रहों के काराण इस प्रकार की गलत और विध्वंशकारी तथ्यों का प्रचार करती है विभाजन की सकारात्मकता को नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत करती है। यह प्रचार भारत की मूल भावना का प्रतिनिधित्व नहीं करता है और मौलिक सोच के विरूद्ध हैं।

फेसबुक और वाड्सएप यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर शायद दारूल कजा जैसे शब्द से वाकिफ नहीं होंगे, जो ऐसा सिद्धांत है कि जिसकी उपस्थिति मात्र ही भारत में धार्मिक सहिष्णुता की गहरी जड़ें होने का सबूत देती है। वर्ष 1937 से ही भारत में रहने वाले मुसलमानों के पास एक विकल्प था कि वे अपनी पारिवारिक तथा जायजाद संबंधी समस्याओं को सरकारी तौर पर मान्यता प्राप्त इस्लामी कोर्ट, जिन्हें दारूल कजा कहा जाता है के द्वारा सुलझाएं। इन कोर्टों की देख-रेख का कार्य धार्मिक न्यायाधीश, जिन्हें काजी कहा जाता है, इस्लामी सिद्धांतों के अंतर्गत करते हैं। जानकारी में रहे कि फिलहाल पूरे देश में 70 दारूल कजा यानी मुस्लिम धार्मिक कोर्ट हैं। इनका प्रबंधन आॅल इंडिया मुस्लिम प्रस्नल लाॅ बोर्ड एआईएमपीएलबी द्वारा किया जाता है। जिनका कार्य धार्मिक कानूनों शरिया का पालन करते हुए मुस्लिम मामलों की देख-रेख करना है। बावजूद इसके अधिकतर मुसलमान भाारतीय संविधान में विश्वास करते हैं और अधिकतर मामले सरकारी कोर्ट में ही निवटाते हैं। 2019 के घोषणा-पत्र में भाजपा ने एक एकीकृत नागरिक न्यायालय यानी यूनिफार्म सिविल कोर्ट बनाने की बात कही थी, जिससे देश में लिंग समानता को बढ़ावा मिले। कुछ लोगों ने इसे धार्मिक असहिष्णुता के रूप में पस्तुत किया लेकिन जब सरकार के द्वारा तीन तलाक पर कानून बनाया गया तो मुस्लिम महिलाओं और देश के कई मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने उसे हाथोहाथ लिया।

बहरहाल, वे इस बात को समझने में नाकाम रहे कि इस एकीकृत सिविल कोर्ट यूसीसी का आधार ही धार्मिक असमानता जैसी समस्या से निजात दिलाता है व दारूल कजा जैसे संस्थानों द्वारा भारतीय न्यायिक व्यवस्था को नजरअंदाजा करने की संभावना को खत्म करता है क्योंकि देश की जनसंख्या का एक छोटा सा हिस्सा बाकी भारतीयों जैसे देश की न्यायिक व्यवस्था से संचालित नहीं होता है, जो किसी भी नई लाकतांत्रिक व्यवस्था के अस्तित्व के लिए पहली आवश्यकता है।

कल्पना का कोई अंत नहीं है। किसी भी मुद्दे या उसकी विरोध में उठे मुद्दों की सहायता से किसी भी चीज को सही या गलत रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। चुनांचे, यह तर्कों का तकाजा है, किन्तु जो तथ्यों पर आधारित होते हैं, उन्हें ही आम तौर पर स्वीकृति मिलती है व इनका असर भी लंबे समय तक रहता है। भारत में मौजूद धार्मिक सहिष्णुता एक वास्तविकता है और इसे अपनी कल्पनाओं और इच्छाओं मात्र से प्रभावित होकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जो हल्के फुल्के अंतरविरोधों को धार्मिक असहिष्णुता के रूप में प्रस्तुत करते हैं वे पूर्वाग्रही हैं और किसी न किसी वाद को स्थापित करने के लिए ऐसा करते हैं।

(आलेख में व्यक्त लेखक के निजी विचार हैं। जनलेख प्रबंधन का इससे कोई लेना-देना नहीं है।)

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