सच पूछिए तो PFI मुसलमानों की रहनुमाई का भी हक नहीं रखता

सच पूछिए तो PFI मुसलमानों की रहनुमाई का भी हक नहीं रखता

गौतम चैधरी

अंततोगत्वा भारत सरकार को देश के सबसे खतरनाक इस्लामिक चरमपंथी संगठन पाॅपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया पर प्रतिबंध लगाना ही पड़ा। पटना की घटना के बाद से देश की सुरक्षा एजेंसिया बेहद सतर्क थी। उन्हें लगातार इनपुट मिल रहा था कि पीएफआई के गुर्गे पूरे देश में बड़े पैमाने पर दंगे भड़काने के फिराक में हैं। इसके कई प्रमाण सामने आते ही केन्द्र सरकार ने सख्त कदम उठाया और पीएफआई को पूरे देश में प्रतिबंधित कर दिया।

पीएफआई अपने आप को बेहद निहायत और शरीफ संगठन बताता है लेकिन उसके खतरनाक कारनामें लगातार सुर्खियां बटोरते रहे हैं। अभी कुछ दिनों पहले ही हिसाबि विवाद मामले में भी पीएफआई का नाम सामने आया था। बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की बेरहमी से हत्या से लेकर कई गैरकानूनी कामों में पीएफआई की भूमिका संदिग्ध रही है। इन ताममा बारदातों से पाॅपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया (पीएफआई) के नाम जुड़े हैं। यह संगठन बेहद शातिराना तरीके से देश के अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिम युवकों को चरमपंथ में दीक्षित कर, बहुसंख्यकों के बीच इस्लामोफोविया पैदा कर कर रहा था। इससे देश में अशांति फेलने की पूरी संभावना थी। इस बीच पीएफआई ने एक नया खेल प्रारंभ किया था, जो पूर्ण रूप से इस संगठन के स्वार्थ की तो पूर्ति करता है लेकिन इस्लामिक धार्मिक कायदों के एकदम उलट था। मसलन, भारतीय मुस्लिम समुदय में बैत के सिद्धांत का प्रतिस्थापन।

इस्लामी शब्दावली में, बैत एक नेता के प्रति निष्ठा की शपथ है, जिसका पालन पैगंबर मुहम्मद ने किया था। ऐतिहासिक रूप से बैत एक प्रतिज्ञा थी, जो पैगंबर के समय में साथियों द्वारा स्वार्थ और महत्वाकांक्षाओं को अलग रखकर इस्लामी समाज की सुरक्षा और स्थिरता के लिए ली गई थी। धार्मिक रूप से, बैत केवल मुसलमानों के नेताओं को दिया जा सकता है और इसे निर्णय निर्माताओं यानी विद्वान, विशिष्ट पद वाले लोग द्वारा दिया जाना चाहिए। बैत का एक और पहलू यह है कि आम लोगों को खुद इस्लामिक नेताओं के प्रति निष्ठा रखने की जरूरत नहीं है और न ही उनके खिलाफ जाने या उनके खिलाफ विद्रोह करने की जरूरत है। इन पहलुओं को पूरा किए बिना बैत की मांग करने वाला कोई भी निश्चित रूप से इस्लामी सिद्धांतों व शिक्षाओं से परे होगा।

पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई), भारत में स्थित एक कट्टरपंथी संगठन, जो पूरे भारत के राज्यों में अपनी हिंसक गतिविधियों के लिए जाना जाता है, भारतीय मुसलमानों से बैत की मांग करने लगा था। इस कारण मुसलमानों के धार्मिक नेता भी पीएफआई के प्रति नकारात्मक भाव रखने लगे थे। कई इस्लामिक विद्वानों ने पीएफआई के इस कदम को इस्लामिक नजरिए के खिलाफ भी बताया था लेकिन पीएफआई को इस्लाम से क्या लेना देना उसे तो बस एक खास किस्म की राजनीति करनी थी और अपने सरपरस्थों को राजनीतिक व आर्थिक लाभ पहुंचाना था।

सबसे पहले, पीएफआई के नेता निश्चित रूप से मुसलमानों के नेता होने के योग्य नहीं हैं। वे राजनीति से प्रेरित हिंसक संगठन हैं जिनकी पहुंच मुट्ठी भर भारतीय मुसलमानों के बीच है। उनके नेता खुद को रोल मॉडल के रूप में पेश करने के बजाय विभिन्न हिंसक घटनाओं व घोटालों में शामिल हैं। पीएफआई के अध्यक्ष ओएमए सलाम को वर्तमान में केरल राज्य सेवा नियमों का उल्लंघन करने के लिए निलंबित कर दिया गया है, जबकि इसके युवा विंग के नेता पर आबादी के एक वर्ग के बीच सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के लिए मुकदमा चल रहा है। कुछ अन्य नेता मनी लॉन्ड्रिंग से लेकर लोगों की हत्या तक के कई मामलों के आरोपी हैं।

पैगम्बर के जीवन पर एक सरल नजर डालने से यह साफ हो जाता है की पीएफआई के नेता मुसलमानों के नेतृत्व के लायक बिलकुल नहीं हो सकते। दूसरी बात, बैत देने के लिए पीएफआई नेता निश्चित रूप से विद्वानों और सद्गुणी लोगों की श्रेणी में नहीं आते हैं। पीएफआई के नेता लोगों को विद्वतापूर्ण सलाह देने के बजाय हमेशा सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने, लोगों में दुश्मनी पैदा करने और विभाजनकारी राजनीति करने में लगे रहते हैं। तीसरी शर्त विशेष रूप से कहती है कि आम लोगों को खुद इस्लामिक नेताओं को बयान देने की जरूरत नहीं है। यदि पीएफआई नेता मुसलमानों के नेतृत्व का दावा कर रहे हैं, तो उन्हें पहले विद्वानों के पास बैत (जो अधिकार रखता है) लेने के लिए जाना चाहिए और निश्चित रूप से आम मुसलमानों के पास नहीं जाना चाहिए जो बैत देने से जुड़ी शर्तों से अनजान हैं। इसकी मान्यता के लिए तो कोई इस्लामिक धार्मिक विद्वान, या फिर ऐसा नेता जो दुनियाभर के मुसलमानों की धार्मिक रूप से सरपरस्थी कर रहा हो वहीं अधिकारिक ताकत रखता है।

यह किसी धर्म में होता है। आजकल हिन्दुओं में भी कई ऐसे धार्मिक नेता खड़े हो रहे हैं, जिन्हें पारंपरिक साधुओं ने कोई मान्यता नहीं प्रदान की है। इन नेताओं को हिन्दू परंपरा से कोई लेना-देना नहीं है। न ही ये गुरू-शिष्य परंपरा के वाहक हैं। आजकल ऐसे कई शंकराचार्य, त्रिडंडी स्वामी, हंस, परमहंस आदि घुम रहे हैं। यही नहीं ईसाई समुदाय में भी इस प्रकार के धार्मिक नेता खड़े हुए हैं, जिन्हें धार्मिक परंपरा और सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं है। ये तमात अपारंपरिक नेता दुनिया भर में घुम रहे अवारा पूंजी के द्वारा उत्पन्न किए गए हैं, जिनका एक मात्र काम समाज में वैमष्यता फेलाना है। पीएफआई भी ऐसा ही एक संगठन है, जिसे मुस्लिम ब्रदरहुड के पैसे ने ताकत प्रदान कर रखी है।

विभिन्न समूहों के प्रति निष्ठा देने के बारे में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए, इस्लामी विद्वान शेख सालिह अल-फौजान ने कहा कि बैत मांगने वाले विभिन्न समूह स्व-प्रेरित हैं और विभाजन के कारणों में से हैं। शेख फौजान का फतवा स्पष्ट रूप से दिखाता है कि आम मुसलमानों से वफादारी की मांग करने वाले पीएफआई नेता और कार्यकर्ता न केवल इस्लाम विरोधी हैं, बल्कि जन-विरोधी भी हैं। एक देश या एक राज्य में रहने वाले मुसलमानों को देश के एक नेता के प्रति निष्ठा रखनी चाहिए कई प्रकार की बैत रखना जायज नहीं है। (अल-मुंतका मिन फतवा अल-शेख सालिह अल-फवजान, 1ः367)

भारत जैसे देश में रहने वाले मुसलमानों को अपने नेता (भारत के प्रधानमंत्री) के प्रति निष्ठा होना लाजमी है। वफादारी की मांग करने वाले विचलित समूह न केवल मुसलमानों को अपने चुने हुए नेताओं को धोखा देने के लिए कह रहे हैं, बल्कि देश के कानून के खिलाफ जाने के लिए भी बाध्य कर रहे हैं। पीएफआई नेताओं का अधिकारियों के साथ टकराव का इतिहास रहा है, इसलिए उन्हें फर्क नहीं परता। परन्तु, हर आम मुसलमान को जो पीएफआई द्वारा दिखाए गए रास्ते पर चलते हैं, उन्हें ऐसा करने के बाद उपर वाले के प्रकोप का तो सामना करना ही पड़ेगा।

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