कुमार गौरव
भारत में नॉन कम्युनिकेबल डिजीज (एनसीडी) यानी गैर-संचारी रोगों के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। इसकी मुख्य वजह लाइफस्टाइल है। खान-पान इसका अहम हिस्सा है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में साल 1990 में बीमारियों की वजह से मरने वाले हर 100 में 37 लोगों की मौत एनसीडी की वजह से हुई है। वहीं, साल 2016 में इनकी हिस्सेदारी बढ़कर 61.8 फीसदी हो गई।
दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में हुई ज्यादातर रिसर्च इस बात की ओर पक्के तौर पर इशारा करती हैं कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स की वजह से एनसीडी के मामले बढ़े हैं। इनमें मोटापा, हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज के साथ ही कैंसर और मानसिक बीमारियां शामिल हैं। अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स आमतौर पर डिब्बाबंद मिलते हैं। ग्राहक के लिए जरूरी है कि वे ‘निगेटिव न्यूट्रिएंट’ की पहचान कर सकें, ताकि वे स्वास्थ्य के लिए बेहतर प्रोडक्ट को चुन पाएं। चीनी, नमक और फैट निगेटिव न्यूट्रिएंट माने जाते हैं। डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों के पैकेट के सामने वाले हिस्से में निगेटिव न्यूट्रिएंट से जुड़ी चेतावनी देना इसका एक विकल्प हो सकता है।
सदियों से प्रोसेस्ड फूड्स हमारे खान-पान का हिस्सा रहे हैं। यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर के मुताबिक, खेत से मिले एग्रीकल्चर प्रोडक्ट में किसी भी तरह के बदलाव को ‘फूड्स प्रोसेसिंग’ कहा जाता है। इससे बने नए प्रोडक्ट को प्रोसेस्ड फूड्स की कैटेगरी में रखा जा सकता है। आमतौर पर फूड्स की शेल्फ लाइफ बढ़ाने के लिए नमक, चीनी और तेल (फैट) का इस्तेमाल लंबे समय से किया जाता रहा है।
ग्लोबल हेल्थ एडवोकेसी इनक्यूबेटर (जीएचएआई) की ओर से चलाए जा रहे फूड्स और न्यूट्रिशन प्रोग्राम के साउथ एशिया रीजन के सीनियर एडवाइजर अभिषेक प्रताप घर में तैयार जूस और पैकेज्ड जूस की तुलना करके बताते हैं कि अगर किसी फूड्स को लंबे समय तक इस्तेमाल करने लायक बनाया जाता है, तो इसका मतलब है कि इसमें प्रिजर्वेटिव्स और दूसरे इंग्रीडिएंट्स का इस्तेमाल हुआ है और यह अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स की कैटेगरी में आएगा।
अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स में नमक, चीनी और फैट के अलावा आर्टिफिशियल कलर, फ्लेवर, प्रिजर्वेटिव, आर्टिफिशियल स्वीटनर, थिकनर, इम्लसिफायर वगैरह डाले जाते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है, ताकि फूड्स को लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सके, उनके टेक्स्चर को बेहतर और स्वाद को लजीज बनाया जा सके।
आमतौर पर अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स को बड़े पैमाने पर कारखानों में बनाया जाता है। इसे बनाने में सस्ते इंग्रीडिएंट्स का इस्तेमाल होता है। अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स को इस तरह से बनाया जाता है कि इन्हें खाने की बार-बार तलब लगे और लोग इन्हें खरीदकर ज्यादा से ज्यादा खाएं। इनमें कुछ पॉपुलर कैटेगरी हैं, कुकीज, डिब्बाबंद जूस, चिप्स, नूडल्स, केचप, चॉकलेट वगैरह।
मानवाधिकार जन निगरानी समिति के संयोजक डॉक्टर (पीएचडी) लेनिन रघुवंशी कहते हैं, “इतिहास में लोगों ने अचार वगैरह बनाया, क्योंकि इसे बचाकर रखना था। उससे दिक्कत नहीं है। मुख्य मामला है अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स का, इसे प्रोसेस करते हैं, लॉन्ग टर्म के लिए। ये हमेशा इमरजेंसी के लिए इस्तेमाल हुआ है। पहली बार यह वॉर में इस्तेमाल हुआ था।”
ब्रिटिश हार्ट फाउंडेशन ने अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स की कैटेगरी में ऐसे फूड्स आइटम को रखा है, जो आमतौर पर लंबे समय तक इस्तेमाल किए जा सकते हैं और इनमें पांच या उससे ज्यादा इंग्रीडिएंट होते हैं। इनमें प्रिजर्वेटिव, इम्लसिफायर, स्वीटनर, आर्टिफिशियल कलर, फ्लेवर वगैरह हो सकते हैं। इम्सलिफायर, तेल और पानी को फूड्स से बांधकर रखने के लिए मिलाया जाता है। यह अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स के टेक्स्चर को स्मूथ बनता है। साथ ही, इसके इस्तेमाल से उसकी शेल्फ लाइफ बढ़ जाती है।
उदाहरण के तौर पर, आटा का प्रोसेस नहीं हुआ है। वहीं, दलिया एक प्रोसेस्ड फूड्स है। इसके अलावा, अगर आप आटा में कई इंग्रीडिएंट मिलाकर कुकीज बनाते हैं, तो यह अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स की कैटेगरी में आएगा।
अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स में आमतौर पर ज्यादा अनसैचुरेटेड फैट, चीनी और सोडियम का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी वजह से हृदय रोग, मोटापा और उच्च रक्तचाप जैसी ‘लाइफस्टाइल डिजीज’ का खतरा बढ़ा है। अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स में आमतौर पर चीनी, नमक और अनसैचुरेटेड फैट तय मात्रा से ज्यादा पाए जाते हैं। वहीं, चीनी के लिए अलग-अलग नाम का इस्तेमाल किया जाता है, जैसे कि कॉर्न सिरप, हाई-फ्रक्टोज कॉर्न सिरप, हनी, एगेव नेक्टर, केन शुगर, इवोपोरेड केन जूस, कोकोनट शुगर, डेक्सट्रोज, माल्ट सिरप, मोलस और टर्बिनाडो शुगर वगैरह। इसके अलावा, सोडियम के विकल्प के तौर पर मोनोसोडियम ग्लूटामेट या डाई-सोडियम फॉस्फेट का इस्तेमाल किया जाता है। वाराणसी स्थित त्रिमूर्ति हॉस्पिटल के डॉ. प्रभात कुमार कहते हैं कि चीनी या नमक के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किए गए ज्यादातर इंग्रीडिएंट्स स्वास्थ्य के लिहाज से सही नहीं हैं।
डॉ रघुवंशी कहते हैं कि नियमित रूप से अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स का इस्तेमाल करने से ये नॉन कम्युनिकेबल डिजीज की वजह बन सकते हैं, क्योंकि इनमें तय मात्रा से ज्यादा नमक, चीनी और फैट होते हैं। वह कहते हैं, “53 फीसदी लोगों की मौत एनसीबी की वजह से हो रही है।”
यूएस नेशनल हेल्थ एंड न्यूट्रिशन एग्जामिनेशन सर्वे के डेटा पर आधारित एक अध्ययन में पाया गया कि अमेरिका में लोग अपने आहार की 60 फीसदी जरूरत अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स से पूरा कर रहे हैं। इस अध्ययन में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स और मोटापा का सीधा संबंध देखा गया है। डॉक्टर प्रभात कुमार कहते हैं, “भारत में भी यही ट्रेंड बढ़ रहा है और मोटापा सहित अन्य लाइफस्टाइल डिजीज में तेजी से वृद्धि देखी गई है।”
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीते कुछ सालों में उच्च रक्तचाप के मामले बढ़े हैं। इसकी वजह से हर साल दुनिया भर में 75 लाख लोगों की मौत हो जाती है।
अमेरिका के एनसीबीआई पर छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, फैटी एसिड की अधिक मात्रा वाले खाद्य पदार्थों के सेवन से कार्डियोवस्कुलर डिजीज, मोटापा, डायबिटीज और कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।
आधुनिक समय में दुनिया भर में चीनी (फ्री शुगर/प्रोसेस्ड शुगर) का सेवन बढ़ा है। ऐसे में भोजन से मिलने वाला एनर्जी वैल्यू बढ़ने से लोगो में मोटापा की समस्या बढ़ गई है। डब्लूएचओ की सलाह है कि चीनी से मिलने वाली एनर्जी, कुल कैलोरी का 5 से 10 प्रतिशत से ज्यादा न हो। यह दिनभर में करीब 25 ग्राम (6 टी-स्पून) बनता है।
गैर-संचारी रोगों की रोकथाम और निवारण यानी प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ नॉन कम्युनिकेबल डिजीज (2013-14) के लिए ग्लोबल एक्शन प्लान के मुताबिक, डब्लूएचओ ने नमक खाने में 30 फीसदी की कटौती करने का लक्ष्य रखा है। डब्लूएचओ दिनभर में 5 ग्राम से कम नमक खाने की सलाह देता है।
डब्लूएचओ की साल 2015 में छपी इस रिपोर्ट के मुताबिक, एनसीडी की वजह से दुनियाभर में हर साल 41 करोड़ लोग अपनी जान गंवा देते हैं। यह बीमारियों की वजह से होने वाली मौतों का 71 फीसदी है। अगर यही स्थिति रही तो 2030 में यह संख्या 55 करोड़ तक हो सकती है। भारत में 58 लाख लोग एनसीडी (कैंसर, डायबिटीज, ह्दय और फेफड़े से जुड़ी बीमारियों) से हर साल मर जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो हर चैथे भारतीय को एनसीडी का जोखिम है। डॉ रघुवंश कहते हैं कि अनहेल्दी डाइट इसकी एक मुख्य वजह है।
पश्चिमी देशों की तरह भारत में भी प्रोसेस्ड रेड मीट खाने का प्रचलन बढ़ रहा है। इन खाद्य पदार्थों में उच्च मात्रा में नमक, अनहेल्दी सैचुरेटेड फैट, नाइट्रेट और नाइट्राइट होते हैं। साथ ही, रंग, स्वाद और लंबे समय तक इस्तेमाल के लायक बनाए रखने के लिए इनमें रासायनिक पदार्थ मिलाए जाते हैं। साल 2019 की इंटरनेशनल जर्नल ऑफ इपिडेमिओलॉजी की एक स्टडी के मुताबिक, प्रोसेस्ड मीट के सेवन से कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।
रिसर्च के मुताबिक, प्रोसेस्ड फूड्स के सेवन से मेंटल हेल्थ से जुड़े मामले भी सामने आए हैं। इतना ही नहीं, अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स के अत्यधिक सेवन से बुढ़ापा जल्दी आता है।
बीएमजे पर प्रकाशित एक स्टडी के मुताबिक, चॉकलेट, चिप्स और डिब्बाबंद मीट जैसे अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स खाने से कार्डियोवस्कुलर डिजीज की वजह से मौत का खतरा 50 फीसदी बढ़ जाता है।
इस स्टडी के मुताबिक, इसकी वजह से दूसरी कई बीमारियों जैसे कि कैंसर, टाइप-2 डायबिटीज, कार्डियोवस्कुलर डिजीज से जुड़ी समस्याएं, पेट और सांस से जुड़ी दिक्कतों के अलावा डिप्रेशन और एंग्जाइटी के मामले 32 फीसदी तक बढ़ जाते हैं।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, जरूरत से ज्यादा नमक खाने से न सिर्फ उच्च रक्तचाप की समस्या बढ़ जाती है, बल्कि इसकी वजह से माइक्रोवैस्कुलर हेमरेज का खतरा बढ़ जाता है। इसकी वजह से मस्तिष्क की ब्लड वेसल्स यानी रक्त वाहिकाओं के अंदरूनी हिस्से क्षतिग्रस्त हो सकते हैं और स्ट्रोक आ सकता है।
हाल के दिनों में लोग स्वास्थ्य के लिहाज से बेहतर माने जाने वाले डिब्बाबंद फ्रूट जूस को तरजीह दे रहे हैं। अभिषेक प्रताप कहते हैं कि ज्यादातर ऐसे डिब्बाबंद जूस में चीनी की अत्यधिक मात्रा होती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन (आईसीआरआईईआर) की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2011 से 2021 के बीच भारत में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स का कारोबार हर साल 13.37 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत उन चुनिंदा देशों में है, जहां इस सेक्टर का तेजी से विस्तार हुआ है।
भारत में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स सेक्टर कोविड महामारी से पहले वित्त वर्ष 2018-19 में 12.65 फीसदी की दर से बढ़ रहा था। वहीं, महामारी के दौरान 2019-20 में यह 5.50 फीसदी की दर से बढ़ा। वित्त वर्ष 2020-2021 में इस सेक्टर में तेजी आई और इस वित्त वर्ष यह बढ़कर 11.29 फीसदी हो गया।
रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2021 में पेय पदार्थों में कंसंट्रेट्स और स्क्वाश की रिटेल मार्केट में हिस्सेदारी 77 फीसदी थी। इसके बाद, सॉफ्ट ड्रिंक्सध्कंसंट्रेट्स 13 फीसदी और जूस की रिटेल मार्केट में हिस्सेदारी 9 फीसदी थी।
चॉकलेट और बिस्किट की कैटेगरी में मीठे बिस्किट की हिस्सेदारी 43 फीसदी थी। ऐसा इसलिए, क्योंकि इसे लंबे समय तक इस्तेमाल के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है और ये सस्ते भी होते हैं। अभिषेक कहते हैं कि मोटे तौर पर समझें तो ऐसे डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं जिनको ज्यादा दिनों तक स्टोर करके रखा जा सकता है।
मिनिस्ट्री ऑफ स्टेटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इंप्लीमेंटेशन (डवैच्प्) की ओर से जारी हाउसहोल्ड कंजम्पशन एक्सपेंडिचर सर्वे (एचसीईएस) के मुताबिक, पहली बार बिवरेज और प्रोसेस्ड फूड्स (इनमें पकाया गया खाना भी शामिल है) पर ग्रामीणों ने अनाज से ज्यादा खर्च किया है। इसके मुताबिक, लोग अनाज, सब्जी और दाल पर कम खर्च कर रहे हैं।
शहरी क्षेत्रों में वित्त वर्ष 2011-12 के बाद से अनाज के मुकाबले प्रोसेस्ड फूड्स पर ज्यादा खर्च किया गया है। बीते सालों में यह फासला बढ़ा है। वित्त वर्ष 2011-12 में भारत के शहरों में रहने वाले लोगों ने हर महीने अनाज पर 8.98 फीसदी खर्च किया। वहीं, इस वित्त वर्ष बिवेरेज और प्रोसेस्ड फूड्स पर उनका खर्च 10.53 फीसदी रहा।
अभिषेक प्रताप अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स की बढ़ती खपत की चार वजहें बताते हैं। पहला कि समाज के हर तबके में लोगों की कमाई बढ़ रही है। ऐसे में वे पैकेज्ड फूड्स पर ज्यादा खर्च करने में सक्षम हो रहे हैं।
दूसरा, ज्यादातर कपल अब वर्किंग हैं और उनके पास खाना बनाने का समय नहीं है। ऐसे में वे पैकेज्ड फूड्स पर निर्भर हो रहे हैं। तीसरा, विज्ञापन में यह बताया जा रहा है कि घर में बने खाने से बाजार में बिकने वाला फूड्स प्रोडक्ट बेहतर है। प्रोसेस्ड फूड्स की बढ़ती बिक्री के पीछे चैथी वजह अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स की पैकेजिंग और हमारी सोच भी है। वह कहते हैं कि आप फलों का टोकरा देने के बजाय चॉकलेट गिफ्ट करना पसंद करते हैं।
लैंसेंट में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, अगर 2500 कैलोरी प्रतिदिन डाइट में ली जाए और प्रोसेस्ड आटे के बजाय साबुत अनाज, प्लांट और एनिमल बेस्ड प्रोटीन आहार में लिया जाए, चीनी और अनसैचुरेटेड फैट की मात्रा को कम किया जाए, तो दुनियाभर में 22.4 फीसदी मौत को कम किया जा सकता है।
फूड्स सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (पैकेजिंग और लेबलिंग) रेगुलेशन, 2011 के मुताबिक, प्री-पैक्ड प्रोसेस्ड फूड्स के पैकेट पर उसमें मौजूद पोषक तत्वों की जानकारी देना जरूरी है। इसके बावजूद, एक रिपोर्ट के मुताबिक, इंडियन फूड्स मार्केट में उपलब्ध 68 फीसदी फूड्स और बिवेरेज प्रोडक्ट में नमक, चीनी और सैचुरेटेड फैट में से कम से कम एक इंग्रीडिएंट, मानक मात्रा से ज्यादा है। डब्लूएचओ, पोषक तत्वों की बेहतर समझ देने के लिए ‘फ्रंट ऑफ पैकेजिंग लेबलिंग’ की वकालत करता है। इसे ग्राफिक्स में इस तरह से दिखाना चाहिए कि पोषक तत्वों की पूरी जानकारी मिल जाए। पैकेट के सामने वाले हिस्से में स्पष्ट रूप से नमक, चीनी और फैट की मात्रा का जिक्र किया जाना चाहिए।
नेशनल ह्यूमन राइट कमीशन (छभ्त्ब्) ने ऐसे पैकेज्ड फूड्स जिनमें नमक, चीनी और सैचुरेटेड फैट की मात्रा जरूरत से ज्यादा है उन्हें ‘जीने का अधिकार और स्वास्थ्य का अधिकार’ के खिलाफ बताया है। कमीशन ने कहा कि पैकेट के सामने वाले हिस्से में स्पष्ट रूप से नमक, चीनी और फैट की मात्रा का जिक्र किया जाना चाहिए, ताकि ग्राहक बेहतर फूड्स प्रोडक्ट का चुनाव कर सके।
डॉक्टर रघुवंशी कहते हैं, “हम ऐसा नहीं कह रहे हैं कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स बिल्कुल नहीं खाएं। हमारा मानना है कि जैसे सिगरेट के पैकेट पर लिखा होता है, अगर शुगर ज्यादा है, तो पैकेट पर इसका जिक्र होना चाहिए। ऐसा करने से होगा कि अगर किसी को शुगर है, तो वह सोचेगा कि आज एक चॉकलेट खा लिया, तो आगे वह उसी के हिसाब से अपनी डाइट प्लान करना है। अगर किसी को मोटापा है, तो वह उसके हिसाब से अपनी डाइट प्लान कर पाएगा। हम बेचने पर कोई सवाल नहीं उठा रहे हैं। बस लोगों को पता होना चाहिए।”
डॉ. रघुवंशी, आयुर्वेद से इसे जोड़ते हुए स्पष्ट करते हैं। वह कहते हैं, “जैसे कि हमारे आयुर्वेद में आहार को तामसिक, राजसिक और सात्विक, तीन भागों में बांटा गया है। ऐसे में अगर हमने आज तामसिक भोजन किया है, तो पूरे दिन हमें इससे बचकर रहने की सलाह दी जाती है।”
दुनियाभर में अलग-अलग तरीकों से अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स के पैकेट के सामने वाले हिस्से पर अलग-अलग लेबलिंग की जाती है। अब सवाल है कि भारत में सरल और प्रभावी तरीका क्या हो सकता है। जवाब में डॉ. रघुवंशी कहते हैं, “लेबलिंग का सबसे सही तरीका यह है कि स्पष्ट रूप से पैकेज्ड फूड्स आइटम पर यह लिखा जाना चाहिए कि इसमें तीन मुख्य तत्व शुगर, साल्ट और फैट की कितनी मात्रा है।” वह कहते हैं, “साल्ट से हाइपरटेंशन होता है, शुगर से डायबिटीज होता है, फैट से मोटापा बढ़ता है।”
वह कहते हैं, “कुछ ऐसे पैकेज्ड फूड्स हैं, जिनमें तय से छह गुणा ज्यादा नमक है। यह खाने में अच्छा लगता है, ऐसे में आप ज्यादा खा लेते हैं और आप अगर हाइपरटेंशन के मरीज हैं, तो एकाएक छह गुणा ज्यादा नमक आपके शरीर में चला गया। इसकी वजह से भी मौत हो सकती है।”
लेबलिंग की स्टार रेटिंग में, निगेटिव न्यूट्रिएंट के हिसाब से प्रोडक्ट की पांच स्टार तक रेटिंग की जाती है। अभिषेक प्रताप कहते हैं कि फाइव स्टार रेटिंग के बजाय आप सिर्फ ‘नेगेटिव न्यूट्रिएंट’ पर फोकस कीजिए, साल्ट, शुगर और फैट, जिनसे बीमारियां होती हैं। ये आप ज्यादा खाएंगे तो आपको बीमारियां हो सकती हैं। वह कहते हैं कि पैकेट के सामने वाले हिस्से में स्पष्ट रूप से नमक, चीनी और फैट की मात्रा का जिक्र करने का उद्देश्य ऐसे प्रोडक्ट के बारे में बताना है, जिनमें प्रिजर्वेटिव्स ज्यादा होते हैं।
जिन देशों में पैकेट पर निगेटिव न्यूट्रिएंट की चेतावनी स्पष्ट रूप से लिखा गया वहां पर बेहतर परिणाम देखने को मिले हैं। इन देशों में पैकेट के सामने वाले हिस्से में स्पष्ट रूप से नमक, चीनी और फैट की मात्रा का जिक्र किया जाना अनिवार्य है। डॉ. रघुवंशी कहते हैं कि न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया ने पैकेट के सामने वाले हिस्से में स्टार रेटिंग देना शुरू किया, लेकिन इससे कोई फायदा नहीं हुआ। वहीं, चिली और अर्जेंटीना में जो तरीका अपनाया गया उसकी वजह से दो साल में एनसीडी से मरने वाले लोगों की संख्या आधी हो गई।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सबसे ज्यादा लोग भूख से जूझ रहे हैं। हाल ही में हुई एक स्टडी में भी यह बात सामने आई है। इसके उलट, भारत के ग्रामीण इलाकों में गरीब और सामाजिक रूप से पिछड़ी कम्युनिटी के लोग अल्ट्रा-प्रोसेस्ड और पैकेज्ड फूड्स का काफी सेवन कर रहे हैं।
बिहार के गया जिले के सात ब्लॉक और उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में किए गए एक शोध में यह बात सामने आई है कि यहां के दलित परिवार 94 फीसदी खर्च भोजन पर करते हैं। इसमें 10-15 फीसदी अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स होते हैं। स्टडी में शामिल ज्यादातर लोग अशिक्षित थे। इस ट्रेंड को खतरनाक मानते हुए डॉ रघुवंशी कहते हैं, “एक तरफ कुपोषण है, दूसरी तरफ उसे बिस्किट खाने को दे दिया। ऐसे में उस पर दोहरी मार पड़ जाती है।”
डॉ. रघुवंशी कहते हैं, “आदमी को पता होना चाहिए। हम हतोत्साहित नहीं कर रहे हैं। लोग अपने-आप इसे कंट्रोल करते हैं। जैसे कि वेजिटेरियन और नॉन वेजिटेरियन प्रोडक्ट है, उसके बारे में लोगों को पता होता है, ऐसे ही इनके बारे में भी पता होना चाहिए। पैकेट के सामने चेतावनी देने से ग्राहकों को स्वास्थ्य के लिहाज से बेहतर प्रोडक्ट चुनने में मदद मिलेगी और कंपनियां बेहतर प्रोडक्ट बाजार में लाएंगी।”
अभिषेक कहते हैं, “अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स का रिफॉर्मूलेशन करके इसे बेहतर बनाया जा सकता है। दुकान से खरीदा गया चिप्स एक दिन में खराब हो जाता है, लेकिन ब्रांडेड वाला ज्यादा दिन चलेगा, क्योंकि ब्रांडेड प्रोडक्ट में ज्यादा नमक और प्रिजर्वेटिव हैं।”
वह कहते हैं, “दिक्कत है कि एक समय में ज्यादा प्रोडक्ट को बनाकर लंबे समय तक बेचना है। मुनाफे के लिए मास प्रोडक्शन और मैसिव डिस्ट्रीब्यूशन करना है। यह प्रिजर्वेटिव के बिना नहीं हो सकता है और यह इसे अनहेल्दी बनाता है। इसकी शेल्फ लाइफ बढ़ानी होती है, इसलिए प्रोसेस्ड फूड्स अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स बन जाता है।”
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और एक आॅनलाइन साइट में काम करते हैं। लेखक के विचार निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है। वैसे यह आलेख आॅनलीमाइहेल्थ के नेट साइट से प्राप्त किया गया है।)