सुरसा की तरह पसरता बोतलबंद पानी का बेलगाम धंधा

सुरसा की तरह पसरता बोतलबंद पानी का बेलगाम धंधा

डाॅ. विनोद बब्बर

हवा, पानी ईश्वर की ओर से प्राणी जगत को वरदान कहे जाते थे। कहा तो यहां तक जाता था कि जिस वस्तु की आवश्यकता जितनी तीव्र है, उसका दाम उतना ही कम है, जैसे हवा बिल्कुल मुफ्त है क्योंकि उसके बिना एक क्षण भी नहीं रहा जा सकता। पानी भी नाम मात्रा के दाम पर क्योंकि उसके बिना कुछ घंटे भी रहना संभव नहीं।

भोजन तथा अन्य चीजें उससे महंगी है। मांग की तीव्रता ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है, दाम भी बढ़ने लगते हैं परंतु लगता है कि पानी के मामले में यह सिद्धांत नकारा जा रहा है। दुःखद आश्चर्य तो यह है कि जिस देश में प्याऊ लगाने की सदियों से परम्परा रही हो, वहां पानी की तथाकथित शुद्धता के नाम पर करोड़ों-अरबों का वारा न्यारा करने वाला एक तंत्रा सक्रिय होना किसी को अपराधबोध तो दूर, असंतुष्ट भी नहीं करता है।

एक महापुरुष द्वारा पानी के लिए विश्वयुद्ध होने की भविष्यवाणी तो सुनी थी लेकिन गर्मी शुरु होते ही महत्त्वपूर्ण स्थानों पर पानी की रेहड़ी लगाने के लिए पानी कम्पनियों को हर तरह के हथकंडे अपनाते देख आश्चर्य हुआ। लगा जैसे मामूली सी बात पर विवाद करना समझदारी नहीं है लेकिन जब असलियत सामने आई तो पानी -पानी होने के अतिरिक्त कुछ बचा ही कहां? पानी का ‘धंधा’ करने वाले भूजल को चलताऊ तरीके से छान कर बोतलों व जारों में पैक करते हैं। फिल्टर पानी को हल्का नीला करने के लिए उसमें कैमिकल तक मिलाये जाते हैं।

रेहड़ी वाले ही क्यों, देशभर में बोतलबंद पानी के नाम पर मनमानी हो रही है। आज देश में बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली हजारों कम्पनियां है। पानी के पाउच वाली छोटी कम्पनियों की तो कोई अधिकृत संख्या ही नहीं है। करोड़ों, अरबों रुपए का व्यवसाय बन चुका यह ध्ंाधा सुरसा की तरह फैल रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि महंगा और ‘कीटाणुनाशक’ होने के दावे के कारण बोतलबंद पानी को स्वास्थ्य के लिए बेहतर बताया जाता है जबकि अनेक अध्ययनों ने इन दावों को खोखले साबित किया हैं।

साफ और शुद्ध के अंतर को समझने वाला कोई नहीं। पानी साफ बेशक हो परंतु बोतल भी प्रदूषित हो सकती है। बोतल के सील होने के बाद यह बिकने से पहले महीनों स्टोर में पड़ा हो सकता है। इसके अतिरिक्त बोतल को खोलने के बाद इसे कुछ ही घंटों में निपटाना जरूरी हैं। यह भी सर्वविदित है कि पानी को शुद्ध करने वाली मशीनों और पद्धतियों की भी सीमा है। ये कीटनाशकों को पानी से निकालने में लगभग अक्षम है।

विश्व में सर्वप्रथम बोतलबंद पानी की शुरुआत ‘पोलैंड स्प्रिंग बाटल्ड वाटर’ ने 1845 में की तो मुम्बई भारत में 1965 में इटली के सिग्नोर फेलिस की ‘बिसलरी’ ने यह सिलसिला शुरु किया। आज भी भारत के बोतलबंद के आधे से अधिक व्यापार पर बिसलरी का कब्जा है। वास्तव में नदियों और भूजल में औद्योगिक कचरों के प्रवेश ने जल प्रदूषण को बढ़ाया है तो इस समस्या का समाधान करने की बजाय दिखावा और शोर करने से लोगों में अपने स्वास्थ्य के प्रति चिंता बढ़ी।

शतिर लोगों ने इसका भयादोहन करते हुए जन-मन में यह बात बैठाने में काफी हद तक सफलता प्राप्त की कि अगर स्वस्थ रहना हो तो बोतलबंद पानी का इस्तेमाल करो। अंधाधंुध प्रचार और विज्ञापनों ने साधन संपन्न लोगों को बोतलबंद पानी की ओर धकेला। मध्यम वर्ग भी इसी रास्ते पर बढ़ता गया। पानी के लिए ‘पानी की तरह’ पैसा बहने लगा। इतना होने पर भी जनसंख्या का एक छोटा सा वर्ग ही बोतलबंद पानी तक अपनी पहुंच बना सका है।

यदि इतनी ऊर्जा और संसाधन नदियों को साफ करने के नाम पर लगाए जाते तो सभी को शुद्ध जल मिल सकता था परंतु ऐसा लगता है कि तत्कालीन सरकारों ने अपनी इस नैतिक जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ते हुए इस बुनियादी जरूरत को बाजारवाद के हवाले कर दिया। यहां तक कि खुद सरकार भी (रेल नीर, दिल्ली जल बोर्ड के वाटर एटीएम इसके उदाहरण है) पानी के धंधे में उतर गई। मुफ्त पानी का ढोल पीटने वाले भी इसी राह पर हैं।

‘नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल’ का अध्ययन है कि बोतलबंद पानी और साधारण पानी लगभग समान हैं। मिनरल वाटर के नाम पर बेचे जाने वाले बोतलबंद पानी की बोतलों को बनाने के दौरान एक खास रसायन पैथलेट्स का इस्तेमाल किया जाता है जो बोतलों को मुलायम बनाता है। यही रसायन सौंदर्य प्रसाधनों, इत्रा, खिलौनों आदि के निर्माण में भी प्रयुक्त होता है। सामान्य से थोड़ा अधिक तापमान होते ही ये रसायन पानी में घुलने लगते हैं जो हमारे शरीर में जाकर अनेक प्रकार के दुष्प्रभाव दिखाते हैं। एंटीमनी नाम के रसायन से बनी बोतल में बंद पानी जितना पुराना होता जाता है, उसमें एंटीमनी की मात्रा बढ़ने से उसका उपयोग करने वाले को जी मचलना, उल्टी और डायरिया की शिकायत हो सकती है। स्पष्ट है कि हमारे मिट्टी के घड़े और सुराही के मुकाबले में बोतलबंद पानी कहीं नहीं ठहरता। इसकी बढ़ती मांग शुद्धता और स्वच्छता से अधिक एक फैशन और ‘स्टेटस सिंबल’ बनती जा रही है।

बोतलबंद पानी की प्रथा ही अपने आप में नुकसानदायक है। प्रतिदिन लाखों बोतलें इस्तेमाल के बाद कचरे बनकर पर्यावरण के लिए संकट बढ़ा रही है तो अनेक स्थानों पर इनकी अच्छी तरह से सफाई किये बिना इन्हें फिर से भरने के समाचार भी हैं। भारत तो फिलहाल इस खतरे से आंखे मूंदे बैठा है लेकिन सैन फ्रांसिस्को में बोतलबंद पानी की बिक्री रोक दी गई है। साल्ट लेक सिटी तो पहले ही ऐसा कर चुकी हैं।

‘प्रकृति द्वारा प्रदत्त जल जीवन के लिए अत्यावश्यक है। इसका बाजारीकरण नहीं होना चाहिए’ विषय पर महीने चली बहस के बाद यह निर्णय हुआ कि नागरिक अपनी बोतल साथ रखंे। उन्हें उचित स्थानों पर शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने की जिम्मेवारी सरकार की होगी। क्या यह व्यवस्था भारत में नहीं हो सकती?

आरंभ में रेलवे स्टेशनों पर बोतलबंद पानी की बिक्री पर रोक लगाकर एकाधिक फिल्टर लगाये जा सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि इसपर होने वाला खर्च बोतलबंद पानी होने वाले खर्च की तुलना में काफी कम होगा। प्लास्टिक के कचरे से मुक्ति मिलेगी सो अलग। यदि सरकार इस जिम्मेवारी से बचना चाहती हो तो आरंभ में शुद्ध, शीतल जल की ऐसी मशीनें लगाई जा सकती है जो एक रुपए का सिक्का डालने पर एक बोतल पानी जारी करें।

आश्चर्य है कि हम मुफ्त पानी के वादे पर आंख बंद करके लगभग एक तरफा फैसला सुनाते हैं लेकिन बोतलबंद पानी के लिए 15 से बीस रुपए चुकाते समय एक क्षण हेतु सोचते तक नहीं। क्या कभी किसी ने भारत में बोतलबंद पानी की मनमानी कीमत के विरोध में जन आंदोलन का समाचार सुना है? शायद नहीं। स्पष्ट है कि अन्य वस्तुओं के मूल्यों में मामूली वृद्धि तो हमें बेशक आंदोलित करती हो परंतु बोतलबंद पानी के अनियंत्रित दाम से हमें कोई शिकायत नहीं।

(आलेख में व्यक्त विचार लेकख के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)

(अदिति)

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