समान नागरिक संहिता को लेकर दुविधा में उत्तराखण्ड सरकार

समान नागरिक संहिता को लेकर दुविधा में उत्तराखण्ड सरकार

उत्तराखण्ड की धामी सरकार का समान नागरिक संहिता का विधेयक आखिर राजभवन पहुंच ही गया। इसे गत 7 फरवरी को विधानसभा से पारित कराया गया था और पहले प्रचारित किया गया था कि विधानसभा से विधेयक पारित होते ही उसे लागू करा दिया जायेगा जबकि विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना लागू नहीं किया जा सकता। यही नहीं, विधेयक की संवैधानिक प्रक्रिया पूरी कराने से पहले नियमावली बनाने के नाम पर उसे एक और कमेटी को भेज दिया गया था जिससे लगता है कि इस प्रस्तावित संहिता को ले कर स्वयं धामी सरकार संशय में हैं। सरकार की दुविधा का आलम यह कि अब संहिता लागू करने के बजाय विधानसभा से संहिता पास कराने का प्रचार सरकारी स्तर पर किया जा रहा है। यह भी आशंका जताई जा रही है कि कही संसद द्वारा पारित महिला आरक्षण कानून की ही तरह उत्तराखण्ड की समान नागरिक संहिता का भी हस्र न हो जाये।

दरअसल कुल 392 धाराओं वाला यह विधेयक 7 अध्यायों और 4 खण्डों में विभक्त है। इस विधेयक की प्रस्तावना में संविधान के अनुच्छेद 44 का उल्लेख करते हुये कहा गया है कि इससे राज्य के सभी निवासियों को एक ही विधि से शासित किया जा सकेगा लेकिन विधेयक के प्रारम्भ में ही धारा दो में अनुसूचित जातियों को इससे बाहर कर दिया गया। इस तरह प्रस्तावित समानता के नाम पर बने कानून की शुरुआत ही असमानता से हो गयी जो संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार संख्या 14 का उल्लंघन भी है। मृख्य रूप से इस निर्माणाधीन कानून का टकराव धार्मिक स्वतंत्रता वाले संविधान के अनुच्छेद 25 से होना है लेकिन उससे पहले ही इसमें ऐसी विसंगतियां हैं जो लोकसभा चुनाव में तो चल सकती हैं मगर विधेयक के कानून बनने के बाद इसे अदालत में भारी चुनौतियों का समाना करना पड़ सकता है। दरअसल बहुसंख्यकों को खुश करने और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिये बनाई जा रही है लेकिन जनजातियों को बाहर रखे जाने से इसमें लगभग 5 हजार से अधिक वे अल्पसंख्यक परिवार बाहर हो गये हैं जो जनजाति में शामिल तो हैं मगर उनकी धार्मिक आस्था इस्लाम, ईसाई और सिख आदि धर्मों में है और वे उन्हीं धार्मिक परम्पराओं का पालन करते हैं। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखण्ड में ऐसे 1335 मुसलमान, 329 ईसाई, और 291 सिख परिवारों के अलावा अन्य धर्मों के जनजातीय परिवार निवास करते हैं।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 245 के अन्तर्गत राज्य का विधान मंडल संपूर्ण राज्य या उसके किसी भाग के लिये कानून बना सकता है, लेकिन वह राज्य के निवासियों पर अन्य राज्य क्षेत्रों के देश से बाहर किये जाने वाले कार्यों पर कोई कानून लागू नहीं कर सकता है जबकि संहिता की धारा 1(3) के अन्तर्गत राज्य के बाहर रहने वाले उत्तराखंड के निवासियों पर भी संहिता को लागू किया गया है। धारा 3(3) के अन्तर्गत निवासी की परिभाषा के अन्तर्गत स्थायी निवासी ठहराये जाने का पात्र, राज्य सरकारध्संस्था का स्थायी कर्मचारी, राज्य के क्षेत्र के भीतर कार्यरत केन्द्र सरकार या उसके उपक्रमध्संस्था का स्थायी कर्मचारी, राज्य में कम से कम एक वर्ष से निवास कर रहा व्यक्ति तथा राज्य में लागू राज्य या केन्द्र सरकार की योजनाओं का लाभार्थी शामिल है।

उत्तराखण्ड में मूल निवास और मजबूत भूमि कानून को लेकर आन्दोलन चल रहा है। सरकार ने वायदे के अनुसार पहाड़ियों की जमीनें बचाने के लिये मजबूत भूकानून बनाने के बजाय उस मुद्दे को लटकाने के लिये एक और कमेटी बना दी जबकि मूल निवास की मांग को इस संहिता के जरिये न केवल नकार दिया बल्कि 1 साल से उत्तराखण्ड में रह रहे व्यक्ति को यहां का निवासी कानूनन घोषित कर दिया। संहिता के ‘‘प्रारंभिक’’ वाले भाग की की धारा 3(3) की उपधारा ‘‘ड’’ में निवासी की जो परिभाषा दी गयी है उसमें निवासी की राज्य में निवास की अवधि 1 साल दी गयी है जबकि उत्तराखण्ड के लोग मूल निवास की कट आफ डेट 1950 घोषित करने की मांग कर रहे हैं। राज्य के निवासी की पहली बार दी गयी कानूनी परिभाषा से उसके आधार पर केवल एक वर्ष से निवास करने वाला दूसरे राज्य का व्यक्ति भी राज्य की नौकरियों पर पात्रता का दावा प्रस्तुत करेगा। इससे एक नये विवाद को जन्म मिलेगा जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16(3) में राज्य की नौकरियों में केवल निवास की शर्त लगायी जा सकती है, न कि स्थायी निवास या मूल निवास की लेकिन अभी तक उत्तराखंड निवासी की विधिक परिभाषा न होने के चलते इसके स्थान पर स्थायी निवास प्रमाण पत्र धारकों को लाभ दिया जा रहा है।

यह विषय समवर्ती सूची का होने के कारण राज्य विधानसभा को भी इस पर कानून बनाने का पूर्ण अधिकार है लेकिन संविधान का अनुच्छेद 254 (1) कहता है कि एक ही विषय पर केन्द्र या संसद के कानून के समानान्तर राज्य कानून बनता है तो राज्य का कानून स्वतः शून्य हो जायेगा लेकिन इस अनुच्छेद की उपधारा 254 (2) के अनुसार अगर राष्ट्रपति ऐसे समानान्तर कानून को मंजूरी दें तो कानून उस राज्य की सीमा में लागू हो सकता है। इसलिये उत्तराखण्ड के इस कानून को अभी राष्ट्रपति को जाना है लेकिन इस मामले में सरकार ने रहस्यमय चुप्पी ओढ़ी हुयी है। अनुच्छेद 254 (2) के तहत उत्तराखण्ड की संहिता को राष्ट्रपति की अनुमति मिल भी गयी तो क्या हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई और पारसियों आदि की नागरिक संहिताओं का निरसन या रिपील करने का अधिकार उत्तराखण्ड विधानसभा को है? क्या यह काम बिना संविधान संशोधन के संभव है?

वैसे भी 22वां विधि आयोग भी इस पर विचार कर रहा है। संवैधानिक अड़चनों के बावजूद अगर मोदी सरकार ने देश में समान नागरिक संहिता लागू कर दी तो फिर धामी सरकार की समान नागरिक संहिता स्वयं ही शून्य हो जायेगी। मोदी सरकार को भी अगर इसे लागू करना हो तो उसे पहले अनुच्छेद 25 जैसी संवैधानिक रुकावटें दूर करने के लिये संविधान संशोधन करने होगे।

संहिता के भाग 3 में धारा 378 से 389 तक सहवासी संबंध (लिव इन रिलेशन) सम्बन्धी प्रावधान शामिल किये गये हैं। इस धारा को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज न्यामूर्ति मदन लोकुर समेत कई कानूनविद हास्यास्पद और असंवैधानिक बता चुके हैं। कानून के जानकारों के अनुसार यह जिता के अधिकार का खुला उल्लंघन और पुलिस उत्पीड़न का खुला लाइसेंस बता रहे हैं। कुछ जानकारों के अनुसार इसमें जहां ऐसे संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी गयी हैं, वहीं ऐसे संबंध में जन्मे बच्चों को वैध बच्चा मान लिया गया है तथा पुरूष साथी द्वारा छोड़ने पर महिला को भरण पोषण का अधिकार दे दिया गया है। संहिता में सभी धर्मों के लिये तलाक या विवाह विच्छेद को तो कठिन बना दिया गया है लेकिन लिव-इन रिलेशन में रहने वाला एक व्यक्ति भी धारा 384 के अन्तर्गत रजिस्ट्रार के समक्ष कथन प्रस्तुत करके संबंध कभी भी समाप्त कर सकता है। जबकि दोनों की मर्जी से तलाक के लिये विवाह से कम से कम अठारह माह का इंतजार करना पड़ेगा और न्यायालय के चक्कर भी काटने पडें़गे। ऐसी अवस्था में युगल शादी के स्थान पर लिव इन रिलेशन में रहना पंसद करेंगे। जिसे प्रारंभ करना तथा समाप्त करना दोनों आसान हैं और इसमें सम्बन्ध समाप्त करने का कोई कारण भी नहीं बताना है। इससे भारतीय विवाह संस्था को नुकसान पहुंचेगा तथा ऐसे सम्बन्धों से जन्मे बच्चों का भविष्य भी खतरे में रहेगा।

संविधान विशेषज्ञ एडवोकेट नदीम उद्दी के अनुसार सभी वर्गों के तलाक का निर्णय न्यायालय द्वारा करने तथा किसी भी परिस्थिति में एक से अधिक विवाह दण्डनीय अपराध बनाने के चलते न्यायालयों में कार्यों का और भार बढ़ेगा जिससे वर्तमान में तलाक के लिये न्यायालय के चक्कर काट रहे लोगों को अपनी जवानी के और कुछ साल इसके इंतजार में बर्बाद करने पड़ेंगे।

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