जब पशु-पक्षी भी अदालत के कटघरे में खड़े किए जाते थे

जब पशु-पक्षी भी अदालत के कटघरे में खड़े किए जाते थे

ललित नारायण उपाध्याय

आज से लगभग 400 वर्ष पूर्व तक मनुष्यों की यह मान्यता थी कि जानवरों तथा पशु-पक्षियों के भी मनुष्यों के समान अधिकार और कर्तव्य होते हैं। अतः यदि कोई पशु-पक्षी आदि अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता तो मनुष्यों के समान उसे भी सजा मिलनी चाहिए किंतु अब वह मान्यता समाप्त हो गई है। अब किसी भी अपराध के लिए पशु-पक्षियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

अब यह माना जाने लगा है कि पशु-पक्षियों में अपराध की भावना नहीं होती। न मनुष्य के समान समझ और सूझबूझ ही होती है, अतः अब उन्हें अदालतों के कटघरे में खड़ा करने और उन्हें सजा दिये जाने की परिपाटी समाप्त हो गई है। सन् 1519 की बात है। यूरोप के टेलियो नामक एक स्थान में एक मुकदमा चूहों के विरूद्ध न्यायालय में प्रस्तुत किया गया था। चूहों का कसूर था कि उन्होंने जान-बूझकर किसी किसान के उद्यान को बरबाद कर दिया था।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि एक वकील साहब ने उस समय चूहों की तरफ से पैरवी की थी और कहा था कि -यह ठीक है कि चूहों ने उद्यान को हानि पहुंचाई है लेकिन उनके द्वारा बनाए गए असंख्य छिद्रों से उद्यान की भूमि हवायुक्त हो गई है जिससे उद्यान की उर्वरा शक्ति बढ़ गई है। इससे उद्यान के मालिक को हानि नहीं वरन् लाभ ही हुआ है। अतः चूहों को माफी मिलनी चाहिए किन्तु अदालत में विद्वान न्यायाधीश ने कहा था कि चूहों ने अन्ततः उद्यान की फसल को हानि ही पहुंचाई है, अतः उन्हें उस जगह से हटा दिया जाए किन्तु साथ ही उद्यान के मालिक को यह आदेश दिया गया था कि चूहों को उद्यान से हटाते समय उनके शरीर को किसी भी प्रकार की हानि न पहंुचाई जाये अर्थात् इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाए कि चूहों को उद्यान से हटाते समय कुत्ते बिल्ली, बाज आदि उन्हें खाने न पाएं। अतः चूहों को सुरक्षित उद्यान से हटाया गया।

एक मजेदार घटना और सुनिए। जर्मनी में एक बार एक मुर्गे के विरूद्ध एक मुकदमा चला। उसका कसूर था कि उसने धृष्टतापूर्वक रात्रि में पौ फटने से पहले जोर-जोर से चिल्ला दिया था जिससे कुछ लोगों की नींद में भारी खलल पैदा हो गया था।

वह मुर्गा अदालत में लाया गया और बाकायदा उसे अपराधियों के कटघरे में खड़ा किया गया। एक वकील ने उसे निर्दोष साबित करने के लिए बहुतेरे तर्क दिए किन्तु उसे बचाया नहीं जा सका। कारण उस समय कानून ही वैसा था सो बेचारे मुर्गे को अंततः मृत्युदंड भोगना ही पड़ा।

जानवरों को सजा देने की अधिकांश घटनाएं ग्रेट ब्रिटेन देश की हैं क्योंकि संसार भर में इस देश के नागरिक सदा से शांतिप्रिय व कानून पसंद माने जाते हैं।

यहां सन् 1462 में एक बिल्ली को सार्वजनिक रूप से सजा देने की घटना भी उल्लेखनीय है। बिल्ली ने पालने में सो रहे एक बच्चे पर हमला किया जिससे उसका दम घुट गया। उक्त बिल्ली को न्यायालय में पेश किया गया और अन्त में उसे सार्वजनिक स्थान पर फांसी की सजा दी गई।

वेन्जुएला कैराकस की एक भद्र महिला ने एक बार एक बंदर पर मान-हानि का मुकद्दमा चलाया। वह बंदर किसी सर्कस में मोटर साइकिल पर सवार होकर करतब दिखाते हुए अपने ऊपर अन्य चार बंदरों को लादे हुए था। अचानक उसका संतुलन बिगड़ गया और वे सब के सब सर्कस देखती हुई उक्त महिला की गोद में जा गिरे। महिला घबरा उठी। दूसरी ओर हाल हंसी से गूंज उठा। यह घटना महिला को बहुत अपमानजनक लगी। उसने बंदर को प्रतिवादी बनाकर मुकद्दमा चलाया। परिणामस्वरूप बेचारा सर्कस का मालिक भी बंदर की भांति अदालत केे चक्कर में आ गया। अंत में दोनों को दण्डित किया गया।

पक्षियों पर मुकदमे चलाए जाने की बहुत कम घटनाएं पढ़ने में आती हैं। कारण स्पष्ट है-वे मनुष्यों के हाथ नहीं आते। यदि वे उड़ गए तो फिर भला किसे सजा देंगे? दूसरे पक्षी मनुष्यों के समान रात्रि में विश्राम करने चले जाते हैं किन्तु रात्रि में उस समय जब कोई मीठी नींद सो रहा हो, बुलबुल गीत गाए और नींद हराम हो जाए-यह भला किसे पसंद आएगा।

ग्राज (आस्ट्रिया) में ओसकर एन्जेल नामक व्यक्ति ने एक बुलबुल पर इसी कारण मुकदमा चलाया था कि बुलबुल ने उसकी नींद अर्द्धरात्रि में चिल्लाकर खराब कर दी थी। इस मुकद्दमे में प्राणियों के प्राकृतिक नियमों एवं आचार-विचार पर गहरी बहस हुई किन्तु बेचारी बुलबुल का दुर्भाग्य था कि वह फैसला सुनने के पूर्व ही स्वर्ग सिधार गई।

(अदिति)

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