जंगलों को बचाना है तो वनवासियों को सौंपिए सुरक्षा की जिम्मेबारी

जंगलों को बचाना है तो वनवासियों को सौंपिए सुरक्षा की जिम्मेबारी

सरहुल पर विशेष

गौतम चैधरी


भारत में आदिवासियों की संख्या लगभग 10 करोड़ के आसपास है। अधिकतर आदिवासी आज भी जंगलों में रहते हैं लेकिन वन पट्टा अधिकार कानून लागू होने के बाद भी उन्हें जंगल पर अधिकार प्राप्त नहीं है। आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय से उन्हें मुक्ति दिलाने और जंगल पर उनके अधिकारों को मान्यता देने के लिए भारत की संसद ने दिसम्बर, 2006 में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून पास किया। केन्द्र सरकार ने इसे 1 जनवरी 2008 को नोटिफाई करके जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू कर दिया लेकिन इस कानून में कुछ ऐसे प्राब्धान हैं, जिसके कारण आज भी वनवासी समाज अपने अधिकारों से बंचित है।

पहले हम इस विषय पर पड़ताल करते हैं कि आखिर वनवासियों को वनाधिकार कानून 2006 के तहत क्या-क्या अधिकार मिले हैं। साथ ही हम इस विषय पर भी सरकार और समाज का ध्यान आकृष्ट कराना चाहेंगे कि उस कानून में कौन कौन सी विसंगतियां हैं, जिसके कारण वनवासियों को अधिकार प्राप्त करने में कई प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। वनाधिकार कानून 2006 के अनुसार 13 दिसंबर, 2005 से पूर्व वन भूमि पर काबिज अनुसूचित जनजाति के सभी समुदायों को वनों में रहने और आजीविका का अधिकार मिला है, पर दूसरी ओर कानून की धारा 2 (ण) के अनुसार अन्य परम्परागत वन निवासी को अधिकार के लिए (उक्त अवधि से पहले वन क्षेत्र में काबिज रहे हो) तीन पीढ़ियों (एक पीढ़ी के लिए 25 साल) से वहां रहने का साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद उन्हें इसका लाभ मिलेगा। इसका साक्ष्य प्रस्तुत करना इन समुदायों के लिए बेहद कठिन है। जैसे यदि झाबुआ में भील अनुसूचित जनजाति है, तो उसे 13 दिसंबर, 2005 से पूर्व वन भूमि पर काबिज होने की दशा में वन भूमि पर अधिकार मिलेगा, पर यदि वही भील दूसरे जिले में हो, जहां पर वह अनुसूचित नहीं हैं, तो उसे अन्य परम्परागत वन निवासी के रूप में दावा पेश करना पड़ेगा। यानी एक ओर उसी समुदाय का व्यक्ति कानून से लाभान्वित होगा और दूसरी ओर उसे लाभ मिल पाने की सम्भावना कम होगी। वनाधिकार कानून 2006 में धारा 2 (छ) में ग्राम सभा की दी गई परिभाषा के तहत पाड़ा, टोला और अन्य परम्परागत ग्राम सभाओं को मान्यता दी गयी है। पर नियम की धारा 3 (1) में इसे स्पष्ट नहीं किया गया है, इसमें कहा गया है कि ग्राम पंचायत द्वारा ग्राम सभाओं का संयोजन किया जाएगा। ऐसे में ग्राम सभाओं की ताकत कमजोर पड़ती दिख रही है। कानून की धारा 5 (1) में वन अधिकारों के धारकों के कर्तव्य बताए गए हैं, नियम की धारा 6 (1) में भी यही बात कही गई है पर कानून की धारा 3 (1) (झ) में धारकों को यह अधिकार दिए गए हैं कि उन्हें ऐसे किसी सामुदायिक वन संसाधन का संरक्षण, पुनरुजीवित या संरक्षित या प्रबंध करने का अधिकार है, जिसका वे सतत उपयोग के लिए परम्परागत रूप से सुरक्षा और संरक्षण कर रहे हैं। नियमों में ठेकेदार, व्यापारी एवं भू-माफिया को जंगल अधिकारों से रोकने के लिए कोई प्रावधान नहीं रखा गया है।

आदिवासियों के लिए जाति प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने का प्रावधान है, तो अन्य जातियों के लिए ऐसे प्रावधान नहीं हैं। नियमों के तहत वनों पर अधिकार के लिए वन अधिकार समिति द्वारा दावों का सत्यापन करने की प्रक्रिया अपनाई जाएगी। इसमें साक्ष्यों की प्रस्तुति के लिए जिस प्रक्रिया को अपनाने की बात की गई है, वह बेहद जटिल है। अधिकांश वनवासी जनजाति के लिए दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत करना दुरुह है। कानून में एक महत्वपूर्ण प्रावधान यह है कि धारा 3 (2) के तहत वनग्रामों के विकास के लिए यानी विद्यालय, अस्पताल, आंगनबाड़ी, राशन दुकान, पेयजल, सड़क, सामुदायिक केन्द्र आदि के लिए वन भूमि के परिवर्तन का उपबंध किया जाएगा, जिसके तहत प्रति हेक्टेयर 75 तक पेड़ों को गिराया जा सकता है। निश्चय ही इस प्रावधान से वन पर आश्रित समुदाय के विकास के लिए नए रास्ते खुलेंगे लेकिन इसमें भी स्पष्टता की कमी है। फिरंगी राज से पहले वनों पर वनवासियों का बाकायदा अधिकार था लेकिन वनों को राज की संपत्ति घोषित कर अंग्रजों ने जंगलों की कटाई प्रारंभ की। जंगलों में पाहन-पहड़ा प्रथा थी और ये जंगलों के संरक्षण के लिए उत्तरदायी थे।

आदि दार्शन यह कहता है कि भगवान ने वनवासियों को जंगल पहाड़ पर अधिकार प्रदान किया और उसे आदेश दिया कि वह उनके द्वारा प्रदत्त भूमि व संसाधनों का संरक्षण करते हुए उपभोग करें। विदेशी आक्रांताओं ने वनवासियों के इस दर्शन को नहीं समझा और वन पहाड़ों से इन्हें बाहर निकाल भगवान के द्वारा प्रदत्त अधिकार से वनवासियों को बंचित कर दिया। यही नहीं भगवान के द्वारा मुफ्त में दिए गए संसाधनों का बहुत बेरहमी से शोषण प्रारंभ किया। जबतक वनवासियों के संरक्षण में वन रहा तबतक सुरक्षित रहा। पहले पश्चिम एशिया के आक्रांताओं ने और बाद में अंग्रजों ने वनवासियों के खिलाफ अभियान प्रारंभ किया। अंग्रेजोतर भारत में भी कभी जंगल और वन्य जीवों को बचाने के नाम पर, तो कभी विकास के नाम पर वनवासियों को जंगल से विस्थापित करने की पूरी कोशिश की गयी है। ऐतिहासिक रूप से जारी इस अन्याय को जंगलवासी लम्बे समय तक सहते रहे हैं। वन पट्टा अधिकार कानून के आ जाने के बाद भी यह जारी है। आज भी जंगल पर आश्रितों को जंगल से खदेड़ा जा रहा है। आदिवासियों के हितों के लिए संघर्षरत संगठनों का कहना है कि जहां-जहां आदिवासी जंगलों में बसे हुए हैं, वहां-वहां जंगल आज भी सुरक्षित हैं। उनका कहना है कि वन माफिया उन्हीं इलाकों में सक्रिय हैं, जहां से वनवासी विस्थापित हो गए हैं। वन आश्रितों की संस्कृति में पेड़-पौधे एवं वन्य जीव रचे-बसे हुए हैं, इसलिए उन्हें प्रकृति प्रेमी और जंगल का वास्तविक उत्तराधिकारी माना जाना चाहिए और कायदे से वनों पर उनके अधिकार को मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए।

विकास की उत्तर आधुनिक अवधारणा ने हमें उस चैराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से मानवता के अस्तित्व पर संकट के बादल साफ दिखाई दे रहे हैं। जहां बारिश नहीं हो रही थी वहां इतनी बारिश हो रही है कि बाढ़ आ जा रहा है। जहां अत्यअधिक वर्षा होती थी वहां सुखार की स्थिति बन गयी है। बर्फबारी वहां हो रही है जहां कल्पना नहीं की जा सकती थी। अभी हाल ही में उत्तराखंड की नदी में बाढ़ आ गयी। बाढ़ के कारणों का पता लगाया गया तो चैकाने वाली बात सामने आयी। उत्तराखंड में हालिया बढ़ के लिए हिमनद के असमय स्खलन को कारण बताया गया है। महामारी से हम जूझ ही रहे हैं। ऐसी-ऐसी महामारी हमारे सामने प्रस्तुत हो रही है, जिसका तोड़ ढुंढ़ने में वैज्ञानिकों के पसीने छूट रहे हैं।

इन तमाम आपदाओं के लिए हम खुद जिम्मेबार हैं। विगत 200 वर्षों में मानव जाति ने बेरहमी से प्रकृति और पर्यावरण का शोषण किया है। जंगल, जो हमारे प्राणवायु, आॅक्शीजन का स्रोत है, उसे निर्दयता से काटा है। अब पृथ्वी पर मात्र 23 प्रतिशत भूभाग पर ही प्राकृतिक जंगल बचे हैं। आंकड़ों के मुताबिक विगत 100 वर्षों में ही इंशानों ने दुनिया के 85 प्रतिशत जंगलों को समाप्त कर उस पर अपने रहने के लिए बस्ती बसाया, उद्योग लगाए और कृषि योग्य भूमि तैयार किए हैं। प्राकृतिक वनों की बेतहाशा कटाई के कारण मीठे पानी के स्रोतों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। सबसे खतरनाक तो यह है कि जंगलों के सिकुरने से पृथ्वी पर प्राणवायु की लगातार कमी होती जा रही है।

अपने देश में भी जंगल की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। आज से 100 साल पहले भारत के कुल भूभाग का 50 प्रतिशत से अधिक भाग प्राकृतिक जंगलों से आक्षादित था लेकिन वर्तमान समय में यह सिमट कर महज 21 प्रतिशत तक रह गया है। इधर एक सरकारी आंकड़े में बताया गया है कि भारत में 2015 से लेकर 2019 के बीच 1.5 प्रतिशत जंगल में बढ़ोतरी हुई हैै लेकिन यह वह जंगल नहीं है जो कार्बन को सोख कर उसे आॅक्शीजन में बदल दे। भारत में ऐसे घने जंगल की मात्रा मात्र 3.02 प्रतिशत ही रह गयी है। गैर सरकारी आंकड़ों में बताया गया है कि देश के कुल सूख ग्रस्त 78 जिलों में से 21 जिलों का 50 प्रतिशत भूभाग विगत कुछ वर्षों में बंजर हो गया है। 2003 से लेकर 2013 के बीच 18.7 लाख हेक्टेयर भूमि मरूस्थल में बदल गया। यदि जंगलों की स्थिति पर गंभीरता से नहीं सोचा गया तो 2050 तक देश को भयंकर जल संकट का सामना करना पड़ेगा। यही नहीं मैदानी भारत का 60 प्रतिशत से अधिक भूभाग मरूभूमि में तब्दील हो जाएगा।

आखिर इस जंगल को बचाया कैसे जाए? यह सरकारी स्तर पर संभव नहीं है। इसे जनांदोलन की तरह लेना होगा और इस आन्दोलन के अग्रदूत हमारे 10 करोड़ वनवासी, गिरीवासी भाई साबित होंगे। इसके लिए सरकार को नीति बनानी होगी। साथ ही वन पट्टा अधिनियम कानून में जो विसंगति है उसे दूर कर सख्ती से लागू करना होगा। जंगलों में निवास करने वाली जनजातियों को जंगल की सुरक्षा में भागीदार बनाना होगा। बता दें कि आज भी जनजाति समाज जंगल से प्रेम करता है। वह प्रकृतिपूजक है, उसे जंगल प्रिय है। इसलिए जंगल के संरक्षण की जिम्मेदारी यदि जनजातिय समाज को सौंपा जाए तो जंगल के संरक्षण और संवर्द्धन में सकारात्मक परिवर्तन की पूरी संभावना है। सरकारी आंकड़ों में जो जंगल में बढ़ोतरी की बात बतायी जा रही है उसमें से अधिक भाग निजी बागवानी का है। इससे काम नहीं चलना है। प्राकृतिक वनों का संरक्षण और प्राकृतिक ढंग से वनों में बढ़ोतरी से ही जंगल का विकास संभव है। इसके लिए बड़े पैमाने पर जन-जागरण और जागरूकता की जरूरत है।

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