गौतम चौधरी
एक प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्र ने हाल ही में असम के दर्जनों मुसलमानों को सोशल मीडिया पर तालिबान समर्थक पोस्ट करने के लिए यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए जाने की खबर प्रकाशित किया। इस मुद्दे की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गिरफ्तार किए गए लोग में कोई भी अनपढ़नहीं है, बल्कि मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करने वाले एक अखिल भारतीय संगठन के राज्य सचिव शामिल सहित कई स्नातक और चिकित्सा पेशेवर हैं। गिरफ्तार किए गए अधिकांश लोगों ने तालिबान को एक इस्लामी सेना के रूप में प्रस्तुत किया, जिसे दुनिया भर के मुसलमानों के उद्धारकर्ता के रूप में कार्य करना चाहिए। यह तथ्य निराधार और बचकाना लगता है तथा इन धारणाओं को जन्म देने वाली विभिन्न परिस्थितियों पर विचार करने की आवश्यकता है। इस प्रकार की खोखली मानसिकता न केवल देश के लिए घातक है अपितु उस समाज के लिए भी यह घातक है, जिस समाज की उक्त संगठन रहनुमाई करता है।
भारत में मुसलमानों के एक वर्ग के बीच तालिबान समर्थक भावनाओं के पीछे एक प्रमुख कारण भारत के कुछ प्रमुख मौलवियों/संगठनों द्वारा चरमपंथी संगठन की सकारात्मक समीक्षा को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता सज्जाद नोमानी और जमात ए इस्लामी हिंद (जेआईएच) का नाम इस सूची में सबसे ऊपर है।
18 अगस्त को अपनी अपनी एक प्रेस विज्ञप्ति में सदर जमात-ए-इस्लामी हिन्द सैयद सदातुल्ला हुसैनी ने तालिबान को बधाई दी और उनके कृत को यह कहते हुए वैध ठहराया कि यह ध्यान देने योग्य है कि अफगान लोगों की दृढ़ता और संघर्ष के परिणामस्वरूप उनके देश से साम्राज्यवादी ताकतों की वापसी हुई। जमात-ए-इस्लामी हिन्द के अध्यक्ष अपनी प्रतिक्रिया देने के दौरान यह भूल गए कि तालिबान दुनिया के इस्लाम का क्या वह पूरे अफगानिस्तान के सभी जातीय समूह का भी प्रतिनिधित्व नहीं करता है। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि तालिबान पाकिस्तान समर्थित पश्तूनों के एक गुट की सेना है, जो पूरे अफगानिस्तान की आबादी का लगभग 1.3 प्रतिशत मात्र है। तालिबान को सभी पश्तूनों का भी समर्थन प्राप्त नहीं है। इसका जीता-जागता प्रमाण तालिबान के नियंत्रण के बाद से अफगानिस्तान और काबुल में हो रहे आतंकवादी हमले हैं। काबुल हवाईअड्डे पर अपनी जान जोखिम में डालने वाले अफगानों की बढ़ती संख्या भी इस बात का प्रमाण है कि अफगानिस्तान तालिबानियों के हाथ में सुरक्षित नहीं है और न ही यह पूरे अफगानिस्तान का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए, यदि तालिबान अफगान लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा है, तो वह इस्लाम की सेना कैसे हो सकता है? भारत के मुसलमानों को यह समझना होगा कि अगर इस्लाम का तालिबानी चेहरा ही इस्लाम का सही प्रतिनिधित्व करता है तो फिर अफगानिस्तानी अवाम भारत या अन्य लोकतांत्रिक देशों में क्यों बसना चाह रही है?
मार्गदर्शन/प्रेरणा के लिए प्रभावशाली पदों पर बैठे नेताओं या उन लोगों की ओर देखना एक मानवीय स्वभाव है। व्यापक बयान देने से पहले, जेआईएच जैसे संगठनों को यह महसूस करना चाहिए कि निर्दोष मुसलमान इन राजनीति से प्रेरित बयानों के शिकार हो सकते हैं और यदि असम में हाल की गिरफ्तारी को एक उदाहरण के रूप में लिया जाए, तो निश्चित रूप से जेआईएच निर्दोष मुसलमानों को गलत रास्ते पर ले जाने की कोशिश में लगा है। हालांकि इस प्रयास में उन्हें सफलता हाथ लगने वाली नहीं है। जब तक जेआईएच तालिबान के हिंसक अतीत और इसके विभिन्न गैर-इस्लामिक प्रथाओं पर स्पष्टीकरण के साथ सामने नहीं आता है, तब तक निर्दोष मुसलमान कानून के गलत पक्ष में पड़ेंगे और इसकी जिम्मेदारी जेआईएच जैसे संगठनों पर ही होगी।
इसलिए भारतीय उलेमा और मुस्लिम नेताओं को सोच-समझ कर बयानबाजी करनी चाहिए। वैसे भारत के मुसलमान दुनिया के अन्य देशों के मुसलमानों की तुलना में कही अधिक प्रबुद्ध हैं और अपने हित-अहित समझते हैं। यही नहीं भारत में मुसलमानों का जुड़ाव बहुसंख्यक समुदाय के साथ प्रगाढ़। एक-दूसरे की रक्षा और सुख-दुःख में साथ रहते आए हैं। कई मोर्चों पर दोनों समुदाय ने बेहद समझदारी का भी परिचय दिया है। हालांकि राजनीतिक हालातों के कारण कई बार दोनों समुदायों में गतिरोध भी पनपे हैं लेकिन दोनों समुदाय कुछ सामाजिक सरोकारों से जुड़े हैं। इसके कारण भारत में तालिबानी चिंतन को कभी महत्व नहीं दिया जाएगा लेकिन इन छिछले नेताओं के कारण कुछ निर्देष मुसलमान नाहक परेशानी में फंस जाते हैं। सच पूछिए तो इस प्रकार के चरमपंथी विचारधाराओं का समर्थन भारत जैसे समावेशी राष्ट्रवाद के लिए खतरा पैदा करता है। और इसकी परिणाम सकारात्मक तो बिल्कुल ही नहीं होता।