आनन्द
अक्टूबर के दूसरे हफ्ते से मीडिया में कोयले की कमी की वजह से बिजली के संकट की खबरें आना शुरू हो गयी थीं। उसके बाद दिल्ली, महाराष्ट्र, पंजाब और तमिलनाडु जैसे राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने बिजली के सम्भावित संकट पर सार्वजनिक बयान दिया। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को इस संकट से निपटने के लिए विशेष बैठकें बुलानी पड़ीं। उसके बाद कोल इण्डिया को निर्देश दिया गया कि अन्य क्षेत्रों को कोयले की आपूर्ति रोककर पूरे कोयले को बिजली उत्पादन में लगाया जाये।
कोयला और बिजली के क्षेत्र से जुड़े तमाम विशेषज्ञ पहले से ही इस संकट के बारे में सरकार को आगाह कर रहे थे और इसके कारणों की चर्चा कर रहे थे। लेकिन सोशल मीडिया पर कुछ स्वयंभू विशेषज्ञ अपनी आदत के अनुसार हर मुद्दे की तरह इस संकट को भी चन्द इजारेदार कम्पनियों की साजिश करार देते हुए इस संकट के अस्तित्व को ही नकारने में जुटे थे।
इस प्रकार के षड्यंत्र-सिद्धान्तकार हर घटना को चन्द इजारेदार कम्पनियों की साजिश करार देने की तुक्केबाज कोशिश के चक्कर में समूची पूँजीवादी व्यवस्था को उसके मानवता-विरोधी अपराधों से बरी कर देते हैं। ऐसे महानुभावों के दिमाग में इतनी सीधी बात नहीं आती कि समूचे पूँजीपति वर्ग के दूरगामी हितों की रक्षा करने में संलग्न पूँजीवादी राज्यसत्ता भला चन्द इजारेदार कम्पनियों के हितों को साधने के लिए समूचे पूंजीवादी उत्पादन को ठप करने जैसा आत्मघाती कदम क्यों उठायेगी। सच तो यह है कि मौजूदा बिजली संकट पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली में निहित अराजकता का एक जीता-जागता उदाहरण है जो एक बार फिर साबित करता है कि आज के दौर में पूंजीवाद का अस्तित्व मानवता पर बोझ बन चुका है।
पूंजीवाद की संरचना में निहित योजनाविहीनता और अराजकता समय-समय पर किस्म-किस्म के संकटों को जन्म देती रहती है। कोरोना महामारी की वजह से दुनिया के तमाम देशों की अर्थव्यवस्थाएँ करीब डेढ़ साल ठप हो गयी थीं। जब इन अर्थव्यवस्थाओं के पटरी पर लौटने की शुरुआत हो ही रही थी कि माँग और आपूर्ति में असन्तुलन की वजह से कई देशों में ऊर्जा संकट की स्थिति पैदा हो गयी। माँग में आयी बढ़ोत्तरी की वजह से अन्तरराष्ट्रीय बाजार में तेल, गैस और कोयले के दामों में जबर्दस्त उछाल देखने में आया है।
भारत की अर्थव्यस्था में भी कोरोना की दूसरी लहर के कमजोर होने के बाद उत्पादन बढ़ने की वजह से अगस्त-सितम्बर में बिजली की माँग में 2019 की तुलना में 17 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई। चूँकि अभी भी देश में बिजली उत्पादन के 70 प्रतिशत के लिए कोयले पर निर्भरता है इसलिए अर्थव्यवस्था में बिजली की माँग के बढ़ने के साथ ही साथ कोयले की माँग में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। लेकिन आन्तरिक और बाह्य दोनों कारणों से कोयले की आपूर्ति माँग के मुताबिक नहीं बढ़ पायी जिसकी वजह से अक्टूबर के मध्य तक देश के 135 कोयला-आधारित बिजली उत्पादन संयंत्रों में 116 के पास 3 से 4 दिन तक का ही कोयला बचा रह गया था और बिजली का संकट पैदा हो गया।
चीन और भारत सहित दुनिया की कई अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं में कोयले की माँग में आयी तेजी की वजह से अन्तरराष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमतों में दो से तीन गुना की बढ़ोत्तरी हो गयी है। इस वजह से भारत के वे बिजली संयंत्र जो आयातित कोयले (इण्डोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका से) पर निर्भर थे उन्होंने बिजली उत्पादन बन्द कर दिया क्योंकि कोयले की कीमत में बढ़ोत्तरी से उनका मुनाफा कम होने लगा। इनमें टाटा, अम्बानी, एस्सार और कई सार्वजनिक क्षेत्र के बिजली संयंत्र शामिल हैं। गौरतलब है कि भारत के करीब एक-चैथाई कोयला आधारित बिजली संयंत्रों में आयातित कोयले का इस्तेमाल होता है।
शेष तीन-चैथाई बिजली उत्पादन संयंत्रों में देश की खदानों से निकलने वाले कोयले का इस्तेमाल होता है जिसके 80 प्रतिशत हिस्से की आपूर्ति सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी कोल इण्डिया लिमिटेड करती है। गौरतलब है कि इस साल मानसून के दौरान पूर्वी व मध्य भारत के कोयला बाहुल्य वाले राज्यों में अधिक बारिश होने की वजह से कोयले की खानों और ढुलाई के रास्तों में बाढ़ आ जाने की वजह से कोयले की आपूर्ति बाधित हुई। इस प्रकार आन्तरिक और बाह्य दोनों ही कारणों से कोयले की आपूर्ति का बाधित होना मौजूदा बिजली संकट का तात्कालिक कारण है।
उपरोक्त बाह्य और आन्तरिक दोनों ही कारण बाजार की अराजक शक्तियों की ही पैदाइश हैं। एक योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था में ऐसे किसी भी असन्तुलन का पूर्वानुमान लगाकर पहले से स्टॉक इकट्ठा करके संकट की परिस्थिति को टालने की योजना बनायी जा सकती है। यह पूर्वानुमान लगाना कोई मुश्किल काम नहीं था कि कोरोना महामारी का खतरा टलने के बाद उत्पादन बढ़ने से कोयले की माँग में तेजी आयेगी। पूँजीवाद में एक कम्पनी के भीतर तो मुनाफा अधिक से अधिक बढ़ाने के मद्देनजर योजना बनायी जाती है लेकिन पूरे समाज के स्तर पर अराजकता का ही बोलबाला रहता है। इसी वजह से अधिकांश कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों में कोयले के स्टॉक की कोई योजना नहीं बनायी गयी। कहने को केन्द्रीय विद्युत नियामक बोर्ड के अनुसार हर बिजली संयंत्र को कोयले की खान से उसकी दूरी के अनुसार कम से कम 15 से 30 दिन के बिजली उत्पादन के लिए कोयले का स्टॉक रखना चाहिए लेकिन वास्तव में इसका पालन कोई भी संयंत्र नहीं करता क्योंकि कोयले का अधिक स्टॉक रखने से संयंत्र का खर्च बढ़ेगा और मुनाफे पर आधारित बिजली उत्पादक इकाइयां यह बोझ बर्दाश्त नहीं कर सकतीं।
नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में निजी और सार्वजनिक दोनों तरह की बिजली उत्पादक कम्पनियाँ ‘जस्ट-इन-टाइम’ इन्वेण्टरी सिस्टम का पालन करती हैं जिसके अनुसार वे कोयले का बहुत ज्यादा स्टॉक इकट्ठा करने की बजाय बिजली की मांग के अनुसार कोयला खरीदती हैं क्योंकि उनका मुख्य मकसद मुनाफा कमाना होता है। मौजूदा संकट यह स्पष्ट रूप से दिखा रहा है कि कोयला और बिजली जैसे बुनियादी और अवरचनागत क्षेत्रों में इस तरह का सिस्टम उत्पादन की पूरी मशीनरी को ठप करने की कगार पर ला सकता है।
कोयले की कमी की एक वजह देश की सबसे बड़ी कोयला उत्पादक कम्पनी कोल इण्डिया लिमिटेड की नौकरशाहाना कार्यप्रणाली और उसमें सरकार का गैर-जरूरी हस्तक्षेप भी है। गौरतलब है कि भारत में कोयले के कुल उत्पादन का 80 फीसदी कोल इण्डिया लिमिटेड द्वारा किया जाता है और पिछले 4-5 सालों के दौरान कोयला उत्पादन में कोई खास वृद्धि नहीं हुई है जबकि अर्थव्यवस्था में कोयले की माँग बढ़ी है। पूर्व कोयला सचिव अनिल स्वरूप ने सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया कि कोल इण्डिया लिमिटेड की कार्यप्रणाली में मोदी सरकार की अनावश्यक दखल की वजह से इस प्रकार के संकट अवश्यम्भावी थे।
उन्होंने बताया कि किस प्रकार कोल इण्डिया लिमिटेड द्वारा अर्जित मुनाफे का इस्तेमाल कोयले के उत्पादन को बढ़ाने के लिए करने की बजाय केन्द्र सरकार ने कोल इण्डिया लिमिटेड से भारी डिविडेण्ड लिया। इसके अलावा सरकार ने कोल इण्डिया लिमिटेड के मैनेजर को कोयले का उत्पादन बढ़ाने की योजना बनाने की बजाय ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के तहत शौचालय बनवाने के काम में लगा दिया। स्वरूप ने कोल इण्डिया के कुप्रबन्धन का एक अन्य उदाहरण देते हुए बताया कि महीनों तक कई अहम पदों पर नियुक्ति नहीं होती है।
इसके अलावा केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच के आपसी तालमेल की कमी ने भी बिजली के इस संकट को बढ़ाने का काम किया। गौरतलब है कि बिजली के वितरण की जिम्मेदारी मुख्य रूप से राज्य सरकारों के जिम्मे है जबकि बिजली के उत्पादन व संचरण की जिम्मेदारी मुख्य रूप से केन्द्र सरकार की है। एनटीपीसी जैसी बिजली का उत्पादन करने वाली कम्पनियाँ यह लम्बे समय से शिकायत करती रही हैं कि राज्य सरकारें सही समय से भुगतान नहीं करती हैं जिसकी वजह से बिजली के उत्पादन में बाधा उत्पन्न होती है। चूंकि राज्यों के बिजली बोर्ड लम्बे समय से घाटे में चल रहे हैं इसलिए वे समय से भुगतान नहीं कर पाते हैं।
बिजली के उत्पादन-संचरण-वितरण की इस कड़ी में आयी अनियमितताओं को दूर करके बिजली के क्षेत्र की अनिश्चितता कम करने की बजाय केन्द्र व राज्य सरकारें एक-दूसरे पर दोषारोपण करने में जुटी रहती हैं। कई राज्यों में इस समस्या का समाधान बिजली के वितरण के निजीकरण के रूप में ढूँढ़ा जा रहा है। नवउदारवादी अर्थशास्त्री हर समस्या की ही तरह बिजली के संकट के समाधान के लिए भी कोयले और बिजली के क्षेत्र में निजीकरण की रफ्तार बढ़ाने का सुझाव दे रहे हैं। लेकिन सच तो यह है कि निजीकरण से समस्या और जटिल ही होने वाली है क्योंकि मुनाफा कमाने के जितने ज्यादा क्षेत्र खुलेंगे, पूरी व्यवस्था की अराजकता उतनी ही बढ़ेगी। इसके अलावा आम बिजली उपभोक्ताओं को निजीकरण का खामियाजा महंगी बिजली दरों के रूप में भुगतना पड़ेगा।
दीर्घकालिक रूप से देखा जाये तो बिजली व ऊर्जा के संकट का समाधान कोयला व पेट्रोलियम जैसे जीवाश्मीय ईंधन पर निर्भरता कम करके और ऊर्जा के अक्षय स्रोतों जैसे सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा, तरंग ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा, भू-तापीय ऊर्जा आदि पर जोर बढ़ाकर ही किया जा सकता है। ऊर्जा के इन वैकल्पिक स्रोतों में अपार सम्भावनाएँ हैं। परन्तु पूंजीवादी उत्पादन-सम्बन्ध इन वैकल्पिक स्रोतों के विकास की राह में बाधा पैदा कर रहे हैं।
इन वैकल्पिक स्रोतों से जुड़ी तकनीकों के विकास पर जितने निवेश की जरूरत है उतना नहीं किया जा रहा है क्योंकि इसमें तत्काल कोई मुनाफा नहीं मिलने वाला है। मुनाफे की बजाय मनुष्यता की जरूरतों पर आधारित समाजवादी समाज में ही पूरे समाज की बिजली की जरूरत का सटीक मूल्यांकन करते हुए विभिन्न किस्म के ऊर्जा स्रोतों का न्यायसंगत विकास मुमकिन है जिससे ऊर्जा के संकट का समाधान आसानी से किया जा सकता है।
(लेखक के विचार निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)