राकेश सैन
राकेश सैन
उफनी भीड़ इबादतगाह से, भाईचारे के पत्थर बरसे।
सहमा समाज अन्तरू में दुबका, कानूनों के कपाल बिखरे।
सडकों के वो हुए शहंशाह, शासन भयवश हुआ मौन सा।
‘सर’ कलम के नारे गूंजे, संविधानी मर्यादा फन्दे पर झूली।
नूपुर इतनी नग्न हकीकत, क्यों बोली -तू क्यों बोली।
भाजपा की निष्कासित प्रवक्ता नूपुर शर्मा की कहानी मुझे सुनी-सुनी सी लगी। सोलहवीं सदी के बाल शहीद वीर हकीकत की जगह पर नूपुर, हकीकत के सहपाठियों के स्थान पर नूपुर से बहस कर रहे मुस्लिम प्रवक्ता और तत्कालीन मुगल शासकों के स्थान पर आज की व्यवस्था को रख दें तो वीर हकीकत राय के बलिदान व नूपुर शर्मा प्रसंग की घटनाएं लगभग एक सी ही लगेंगी। मदरसे में बच्चों ने माँ दुर्गा को गाली दी तो जवाब में हकीकत ने केवल इतना कहा कि -यही बातें बीबी फातिमा के बारे कहूं तो कैसा लगेगा? इस पर विवाद हो गया और उस बालक को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इसी तरह टीवी चर्चा में मुस्लिम प्रवक्ता द्वारा काशी विश्वानाथ पर की गई टिप्पणी के जवाब में नूपुर शर्मा ने इस्लाम को लेकर कोई तथ्यात्मक बात कह दी।
फिर कोहराम मचना तय था, वीर हकीकत की भान्ति नूपुर को भी गुस्ताख-ए-रसूल की संज्ञा मिल गई। ‘सर तन से जुदा’ के वही जंगली नारे गूंज उठे। केवल नारे ही नहीं, कई सिर तो धड़ से जुदा कर भी दिए गए। प्रश्न है कि आखिर क्या बदला इन चार-पांच सौ सालों में? कुछ भी तो नहीं। और ये चार-पांच सदी ही क्यों, इस्लाम के जन्म के बाद ही इसमें कितना सुधार हुआ? पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि कट्टरपन्थ के कारण इस मजहब के जन्म के पोतड़े भी नहीं बदले जा सके हैं।
पाकिस्तान से आए एक मुस्लिम संन्यासी ने आचार्य रजनीश ‘ओशो’ से पूछ लिया कि आप कुर्रान पर क्यों नहीं बोलते? बेबाकी से हर बात रखने वाले ओशो ने भी बेबसी जताते हुए कहा कि ‘‘अगर मैं कुर्रान पर बोलूंगा तो इन्साफ नहीं कर पाऊंगा, क्योंकि झूठ बोला न जाएगा और सच्चाई मुसलमानों को सहन नहीं होगी। उपनिषद् से मैं राजी और नाराज दोनों हो सकता हूं, परन्तु इस्लाम के साथ ऐसा नहीं है। उपनिषदों पर हर घड़ी टीकाएं लिखी जाती रही हैं, परन्तु 1400 साल से अधिक का समय हो गया पर कुर्रान पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं कर पाया। इसका कारण है, मोहम्मद साहिब असभ्य लोगों के बीच पैदा हुए, उनके विरोधी और मानने वाले दोनों कबाइली ही थे। इन अनुयायियों ने अरब में मोहम्मद से पहले हुए सभी बुद्ध पुरुषों को भी भुला दिया और जड़ता के चलते बाद में कोई धर्मगुरु पैदा न हुआ। कुर्रान को ज्ञान का अन्तिम सन्देश मान लिया गया। आज भी मजहबी दबड़े में कैद मुसलमान मानते हैं कि दुनिया में जो ज्ञान है वह केवल कुर्रान में है बाकी सब कुफ्र। इससे इस्लाम में ठहराव आया। यही कारण है कि केवल 1400 साल पुराना इस्लाम आज पुराना लगता है जबकि लाखों साल पुराने वेद-उपनिषद् नवीन। इसका कारण है, उपनिषदों का हर सदी में नवीनीकरण हुआ है जबकि कुर्रान आज भी वैसे का वैसा है जैसा कि जन्म के समय था। टीका टिप्पणीयां ग्रन्थों को समयानुकूल बनाती हैं, ज्ञान को प्रवाहमान करती हैं जबकि जड़ता सड़ान्ध पैदा करती है। पानी कितना भी शुद्ध क्यों न हो, ठहरा हो तो गन्धला जाता है।’’
वे आगे कहते हैं कि ‘‘ऐसा नहीं कि इस्लाम में हवा के ताजा झोंके नहीं आए। एक पहुंचे हुए फकीर हुए हैं मंसूर, जिन्होंने घोषणा की ‘अनहलक’ यानि ‘अहं ब्रह्मास्मि’। मैं ही ब्रह्म हूं, वही वाक्य जिसकी घोषणा उपनिषद् पग-पग पर करते हैं लेकिन अरबों को यह मंजूर न था। आखिर एक अदना सा इंसान खुदा कैसे हो सकता है ? यह फकीर जरूर ही कुफ्र कर रहा है, काफिर है। मंसूर के गुरु जुनैद ने भी उसे समझाया कि -ये मैं भी जानता हूं कि हम सभी ब्रह्मस्वरूप हैं परन्तु जाहिलों के बीच ये सच्चाई कहें कैसे? जिन्दा रहना है तो तुम भी होंठ सी लो, पर मंसूर कहां मानने वाले थे। ईसा को फांसी दी गई और सुकरात को जहर पिलाया गया, परन्तु मंसूर को तो तडफा-तडफा कर मारा गया। लाखों उन्मादियों ने पत्थर मारे, हाथ-पांव काटे परन्तु मंसूर हंसता रहा। जुबान कटने से पहले एक बार फिर बोला ‘अनहलक’। मंसूर भारत में होता तो ऋषि की पदवी पाता, परन्तु कठमुल्लों ने उसे बड़ी बेरहमी से मार डाला।’’
यही सब कुछ नूपुर शर्मा प्रकरण में होता दिख रहा है। सर तन से जुदा करने की धमकी दी जा रही है और कईयों के तो तालिबानी शैली में सर कलम कर भी दिए गए हैं। तब से लेकर आज तक इस मजहबी उन्माद का कारण केवल एक है, इस्लाम में विमर्श की कमी। देखने वाली बात यह है कि मुसलमान क्या वास्तव में अपने नबी के बारे में अत्यधिक संवेदनशील हैं या इस्लाम के अलम्बरदार इस मुद्दे को अपनी लामबन्दी, शक्ति प्रदर्शन के लिए प्रयोग करते हैं? यह प्रश्न उठना इसलिए जरूरी है क्योंकि भाजपा प्रवक्ता की बात के आधार पर संवेदनाओं का आहत होना इस दृष्टि से भी तर्कपूर्ण नहीं लगता कि आपको इसी इण्टरनेट पर नबी, कुर्रान व हदीसों के बारे में तमाम ऐसी जानकारी मिल जाएगी और उसे मुस्लिम लोग भी साझा करते हुए मिल जाएंगे जिसे किसी अन्य द्वारा उद्घृत करने पर वे फट पड़ते हैं। नूपुर जो कह रही थीं, उनके शब्द, लहजे आदि पर निश्चित ही मुस्लिम समाज आपत्ति दर्ज कर सकता है। परन्तु यह तकनीक का दौर है और ऐसे में तुलनाओं के लिए टीवी चैनलों के मैदान में ताल ठोकते ही ऐसी हजार दबी-ढकी चीजें खुलकर सामने आएंगी जिन पर बात करने से आप सदियों कतराते रहे। यह दौर धौंसपट्टी वाला नहीं है। तकनीक हर तथ्य को बेपर्दा करने का दम रखती है। यह आज का सच है और सब पर समान रूप से लागू होता है। यह प्रश्न है कि मुस्लिम जमात की ठेकेदारी कहीं उन्मादियों के हाथ में तो नहीं चली गई?
ऐसा नहीं कि मुस्लिम समाज में आज मंसूर नहीं हैं, परन्तु उनमें साहस की कमी है। हावी वही मुल्ला-मौलवी हैं जो पाश्विक सोच रखते हैं। इस्लाम वालों को नहीं भूलना चाहिए कि मंसूर को मार कर उसने अपने ही उत्कर्ष के मार्ग बन्द किए। अगर मंसूर को मारने की बजाय स्वीकारा जाता तो आज इस्लाम दकियानूसी न दिखता। खुले वातायन से इसमें भी ताजी हवा के झोंके आते, नए विचार पैदा होते, कुर्रान के तथ्यों व कथ्यों को कसौटी पर परखा जाता, युग अनुसार गढ़ा जाता, व्याखित होता।
कुरान में भी हीरों की खान है परन्तु वे अनगढ़ हैं, मूल रूप में हैं। कोहेनूर जब मिला तो आज के अनुसार इसका भार तिगुना परन्तु मूल्य बहुत कम था। तराशने के बाद इसका वजन कम हुआ परन्तु मोल बढ़ गया। यह विमर्श ही है जिससे किसी विचारधारा को समयानुकूल परिस्थिति अनुसार ढाला जा सकता है, नयापन लाया जाता है। एक सभ्य समाज में विमर्श की गुंजाइश हमेशा रहती है। यदि हम इक्कीसवीं सदी में आगे बढना चाहते हैं तो इस्लाम को भी विमर्श की सम्भावना पैदा करनी होगी। इस मामले में भारत के मुसलमान सौभाग्यशाली हैं जिनकी रगों में वेद-वेदान्त हैं। भारत के मुसलमानों को इस काम में पहल कर कट्टरवाद से पीडित इस्लामिक जगत का मार्गदर्शन करना चाहिए और किसी भी तरह के विमर्श से भयभीत नहीं होना चाहिए।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी है। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)