गौतम चौधरी
पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त करने के प्रयास लगातार हो रहे हैं। पंचायत को मजबूत करने के लिए केन्द्र सरकार दो-दो अधिनियम पास कर चुकी है। ग्रामीण विकास के नाम पर केन्द्र एवं राज्य सरकारें एक बड़ी बजट पंचायतों में पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से खर्च करने का दावा करती है। पंचायती राज अधिनियम वर्ष 1993 में पास किया गया जबकि पेसा अधिनियम वर्ष 1996 में पारित किया गया। ये दोनों अधिनियम पंचायती प्रणाली को मजबूत और सशक्त बनाने के लिए पास कराई गयी है। केन्द्र सरकार के द्वारा संसद में अधिनियम पारित करने के बाद देश के अधिकतर राज्य सरकारों ने अपने-अपने प्रांतों में त्रि-स्तरीय पंचायती प्रणाली लागू कर दी। कुछ राज्यों में दो-स्तरीय पंचायती प्रणाली लागू किया गया है। अधिकतर राज्य सरकारों ने पंचायती राज को 29 अधिकार एवं कार्य प्रदान कर रखे हैं लेकिन आज भी पंचायती राज प्रणाली, गांव की सरकार ने लिए जद्दोजहद कर रही है।
विगत दिनों छत्तीसगढ़ स्थित नारायणपुर जिले के कुछ सुदूरवर्ती और जनजातीय पंचायतों में जाने एवं वहां के सरपंचों से मिलने का मौका मिला। इस दौरान पंचायत राज के चुने हुए प्रतिनिधियों ने जो बताया वह बेहद गंभीर और पंचायती राज प्रणाली के लिए खतरनाक है। एक आदिवासी महिला सरपंच ने बताया कि हमारे पंचायत में मनरेगा के माध्यम से काम नहीं हो पा रहा है। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि सरकार मनरेगा का भुगतान मजदूरों के खाते में करती है। एक तो यह भुगतान कई महीनों बाद होता है। दूसरा गांव में न तो बैंक हैं और न ही एटीएम। ऐसे में मजदूरों को अपनी कमाई की मजदूरी प्राप्त करने के लिए कम से कम 50 रुपये खर्च कर एटीएम तक जाना होता है। कई मजदूर तो ऐसे होते हैं जिन्हें एटीएम से पैसा निकालने भी नहीं आता है। इसके लिए उन्हें बिचैलियों का सहारा लेना पड़ता है। इसके लिए भी उन्हें पैसे खर्च करने होते हैं। अब मजदूरों को मनरेगा की जगह दूसरी एजेंसियां ज्यादा दिहाड़ी देने लगी है। यही नहीं वह नकद में भुगतान भी कर देती है। इसलिए गांव में पंचायत के काम के लिए मजदूर मिलना कठिन हो गया है।
दूसरे आदिवासी सरपंच ने बताया कि पंचायत को सशक्त बनाने के लिए चाहे जो प्रस्ताव पारित कर लो, होगा वही जो सरकार के अधिकारी चाहेंगे। उन्होंने बताया कि जबतक यह राज्य सरकार के अधीन रहेगा तबतक इसकी मजबीती संदिग्ध ही रहेगी। पंचायत और ग्राम सभा को कई बड़े अधिकार दिए गए हैं लेकिन उन सभी अधिकारों का उपयोग हमारे अधिकारी ही करते हैं। विगत 30 वर्षों से बिंजली पंचायत स्थित कृषि महाविद्यालय एवं कृषि विज्ञान केन्द्र को मुख्य मार्ग से जोड़ने के लिए सड़क निर्माण कार्य हेतु ग्राम सभा कई प्रस्ताव पारित कर संबंधित अधिकारियों को दे चुकी है लेकिन मार्ग का निर्माण नहीं हो पाया। बिंजली के सरपंच ने बताया कि आश्चर्य तो यह है कि विगत 30 वर्षों से इस काॅलेज में केन्द्र और राज्य स्तर के नेता एवं अधिकारी भी आ रहे हैं। वे घोषणा भी करके जाते हैं, बावजूद इसके सड़क का निर्माण नहीं हो पाया है।
करलखा पंचायत के सरपंच ने बताया कि हमारे पंचायत में ग्राम सभा, सभी प्रकार की समितियां कार्यरत है। ग्राम सभा की बैठकें नियमित रूप-से होती है। सभी प्रकार के प्रस्ताव भी पारित किए जा रहे हैं लेकिन हमारे प्रस्ताव से सरकारी अधिकारियों को कोई लेना देना नहीं होता है। उनके द्वारा योजनाएं बनाई जाती है और पंचायत पर उसे थोप दिया जाता है। हमारे विद्यालयों में शिक्षक आए या न आए, हमारे विद्यालयों का रखरखाव कैसे होगा, स्वास्थ्य केन्द्र या उपकेन्द्रों पर डाॅक्टर या परिचारिकाएं आए या न आए, हम केवल निगरानी कर सकते हैं, उसके खिलाफ कोई कार्रवाई करने की ताकत हमें नहीं है। यहां तक कि हमारे सचिव हमारे अधिकार में नहीं हैं। पंचायतों में नियुक्त अन्य सरकारी कर्मचारियों पर भी हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता है। ये सभी केवल कहने के लिए पंचायत के कर्मचारी हैं, वास्तविकता तो यह है कि इनकी कमान राज्य सरकार के द्वारा नियुक्त प्रशासनिक अधिकारी के पास होता है। ये उन्हीं की बात मानते हैं और सरकारी अधिकारियों का जैसा दिशानिर्देश होता है वैसा ही करते हैं। हम तो राज्य सरकार के केवल निगरानी अधिकरण बन कर रहे गए हैं।
अंजरैल वार्ड के पार्षद ने बताया कि पूरे क्षेत्र में आंगनबाड़ी केन्द्र निर्माण के लिए भिलाई स्टील प्लांट के द्वारा राज्य सरकार के माध्यम से 15-15 लाख रुपये आवंटित किए गए लेकिन राज्य सरकार की एजेंसियों ने कैसा भवन बनाया है, जाकर आप खुद देख सकते हैं। हम ऐसा नहीं कह रहे हैं कि पंचायत के चुने गए प्रतिनिधि भ्रष्ट नहीं होते हैं लेकिन उनके द्वारा किया गया काम राज्य सराकर की एजेंसियों के काम से बेहतर है। हमलोगों के द्वारा देवगुड़ी यानी ग्राम देवता का मंदिर बनवाया गया है। उसे देख लीजिए और आंगनबाड़ी केन्द्र को देखिए। फर्क साफ दिखेगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पंचायत पर राज्य सरकार के कर्मचारी और अधिकारी हावी हैं। इसे जब तक दूर नहीं किया जाएगा तब तक पंचायतों के माध्यम से गांव की सरकार कायम करना असंभव है। इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती है। आखिर राज्य सरकारें अपने पैर मंे खुल्हारी क्यों मारेगी। सच तो यह है कि अगर पंचायती राज पर खर्च होने वाले बजट का मालिकाना हक ग्राम पंचायतों को और नगरों में खर्च होने वाले बजट का स्वामित्व नगरों की चुने अभिकरों को मिल जाए तो राज्य सरकार को करने के लिए कुछ बचेगा ही नहीं। तब राज्य सरकार के मातहत अधिकारी करेंगे क्या? इस डर के कारण राज्य की सरकारें पंचायतों को वह अधिकार नहीं देना चाहती है, जो संविधान ने उसे दे रखा है।
(नोट : यह आलेख कुछ ग्राम पंचायत के चयनित प्रतिनिधियों के साथ चर्चा के बाद लिखा गया है। पंचायत प्रतिनिधियों का नाम जानबूझकर गुप्त रखा गया है।)