डॉ. हसन जमालपुरी
देश के कोने-कोने में संसदीय आम चुनाव की धूम है। हर राजनीतिक दल अपने तरीके से चुनाव को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहा है। राजनीतिक दल, मतदाताओं को प्रभावित करने और उनके व्यवहार को बदलने के लिए चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं। ऐसे में कुछ बातें विचार करने योग्य है। मसलन, विगत कई चुनावों से देखा जा रहा है कि भारतीय राजनीति जरूरी तमाम मुद्दों को छोड़ ़अक्सर बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक के बहस पर आकर अटक जा रही है। अमूमन यह बहस साम्प्रदायिक हो जाता है। इस साम्प्रदायिक मामलों को कुछ मौकापरस्त और नकारात्मक सोच के लोग सामाजिक वैमनश्यता का रूप देने लगते हैं। इसके कारण समाज दो धरों में विभाजित होता चला जाता है और अंततोगत्वा इसका खामियाजा आम लोगों को उठाना पड़ता है। इस प्रकार की बातें खोखली होती है और इससे किसी को लाभ नहीं होता है। इसलिए समझदार लोग इस प्रकार की बहसबाजी से अपने को दूर रखते हैं।
इस प्रकार की बहसबाजी किसी के हित में नहीं होता है। इसलिए अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक जैसे बहस से आम मुसलमानों को दूर रहना चाहिए। हालांकि लोकतंत्र में बहस भी जरूरी तत्व है लेकिन बहस जायज मुद्दों पर होनी चाहिए। राजनीतिक दल तो यह चाहता ही है कि आम वोटर जयज मुद्दों पर न जाए। नाहक के मुद्दों पर अपना ध्यान केन्द्रित करे। परंतु अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, हिन्दू हो या मुसलमान, सिख हो या ईसाई, या फिर कोई अन्य जाति, धर्म, संप्रदाय या भाषा का वोटर हो, इस देश में निवास करने वालों की समस्या एक जैसी है। रोजगार, बढ़िया जीवन, शांति, सुरक्षा, सड़क, पानी, स्वास्थ्य, सफाई, शिक्षा आदि सबको चाहिए। यदि इन मुद्दों पर बहस हो तो यह बहस सार्थक है लेकिन साम्प्रदयिक या फिर अल्पसंख्यक बनाब बहुसंख्यक जैसे विषयों पर बहस हो तो यह निहायत बेवकुफाना मामला है। यह भी सत्य है कि चुनाव अपनी आवाज़ बुलंद करने और जायज़ मांगों को आगे बढ़ाने का मौका देता है। राजनीतिक दलों से आश्वासन मांगना और समाज की ज़रूरतों पर उनसे मोल-तोल करना ज़रूरी है। इसके लिए चुनाव के समय प्रभावी अभिव्यक्ति और एजेंडा सेट करना भी ज़रूरी है। लोगों को चुनावी प्रक्रियाओं में भाग लेने और वास्तविक मुद्दों पर मतदान करने के लिए जागरूकता अभियान चलाना लोकतंत्र को मजबूत बनाने वाला काम है।
भारत के अल्पसंख्यकों में से एक प्रमुख घटक, मुसलमानों का पिछड़ापन एक बड़ी समस्या है। भारत का यह अल्पसंख्यक समुदाय संख्या बल में अधिक होने के बाद भी विकास के मामले में व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों स्तरों पर हाशिए पर हैं। इस मामले को इस चुनाव में बड़ा मुद्दा बनाया जा सकता है। मुस्लिम समाज चाहे तो अपने उम्मीदवारों से मुस्लिम समुदाय के कल्याण के लिए स्पष्ट नीतियों और पहलों को व्यक्त करने के लिए कह सकता है।
समुदाय को आर्थिक विकास और रोजगार के क्षेत्र में राजनीतिक दलों के नेताओं का समर्थन लेना चाहिए। शिक्षा और कौशल विकास, मुस्लिम समुदायों के लिए आर्थिक सशक्तीकरण का महत्वपूर्ण जरिया हो सकता है। छात्रवृत्ति, योजनाओं के प्रभावी और न्यायसंगत कार्यान्वयन और प्रशिक्षण पहलों के लिए धन आवंटन, अल्पसंख्यक केंद्रित संस्थानों की स्थापना, नौकरियों में आरक्षण या पसमांदाओं के लिए आरक्षण का विस्तार जैसे शिक्षा के लिए संसाधनों का समायोजन, मुस्लिम समुदाय और राजनीतिक दलों के बीच सौदेबाजी का एक साधन हो सकता है। इससे नियोक्ताओं की आवश्यकताओं और मुस्लिम समुदायों के भीतर नौकरी चाहने वालों की क्षमताओं के बीच कौशल अंतर को पाटने में मदद मिलेगी। आवश्यक योग्यता और अनुभव की कमी के कारण, कई मुसलमानों को अक्सर सुरक्षित, अच्छे वेतन वाली नौकरी पाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, जिससे उनके समुदाय के भीतर आर्थिक असुरक्षा और असमानता पैदा होती है। ऐसी नीतियों और पहलों की मांग बढ़ रही है, जो इन विसंगतियों से निपटें और मुसलमानों को नौकरी के बाजार में उत्कृष्टता और समृद्धि प्रदान करें।
शिक्षा और कौशल विकास में निवेश मुस्लिम समुदायों को आर्थिक सफलता और स्थिरता प्राप्त करने के लिए सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह व्यक्तिगत स्तर पर भी रोजगार क्षमता में सुधार कर सकता है। आम मुस्लिम युवाओं को बेहतर वेतन वाली नौकरियों तक पहुंच बनाने में मदद कर सकता है। मुस्लिम उद्यमी और व्यवसाय के मालिक भी अपने व्यवसाय को स्थापित करने और उसका विस्तार करने के लिए संसाधन और धन प्राप्त करने में सहायता की तलाश करते हैं, जिससे समग्र आर्थिक प्रगति और कल्याण में योगदान मिलता है। राजनीतिक नेताओं के साथ सहयोग के माध्यम से, मुस्लिम समुदाय ऐसी नीतियों की वकालत कर सकते हैं जो आर्थिक विकास को बढ़ावा दें और संसाधनों का अधिक न्यायसंगत वितरण स्थापित करें। समुदाय के भीतर स्वाभाविक नेताओं का उभरना और इन मुद्दों से निपटने के लिए राजनीतिक दलों के साथ सहयोग करना और एक समावेशी समाज के लिए प्रयास करना महत्वपूर्ण है, जो भारतीय मुसलमानों में प्रचलित राष्ट्रवादी उत्साह को पहचान दिला सकता है।
आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद, मुस्लिम अक्सर खुद को हाशिए पर पाते रहे हैं और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की समस्या से जूझते रहे हैं। इस प्रकार के मुद्दे को समाज को ताकत दिला सकता है। हम वास्तव में अधिक समावेशी और प्रतिनिधित्वात्मक वाले लोकतंत्र की स्थापना इसी रास्ते पर चल कर कर सकते हैं। यह याद रखने की जरूरत है कि विभाजनकारी और अलग-थलग करने वाले आख्यानों के झांसे में आने से नफ़रत फैलाने वालों को बढ़ावा मिलेगा और समुदाय के भविष्य की संभावनाओं को खतरे में डालेगा।
(आलेख में व्यक्त लेखक के विचार निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)