एस. ए. तिवारी
जनवरी 2022 में जब टाटा समूह ने एयर इंडिया का अधिग्रहण किया, तब पूरे देश में एक नई उम्मीद जगी थी। माना जा रहा था कि वर्षों से सरकारी उदासीनता, निर्णयात्मक सुस्ती और लालफीताशाही में फंसी एयर इंडिया अब एक वैश्विक मानकों की एयरलाइन बनेगी। लोगों को विश्वास था कि टाटा के नेतृत्व में यह एयरलाइन तकनीक, सेवा, सुरक्षा और प्रतिस्पर्धा के नए आयाम गढ़ेगी लेकिन तीन वर्षों के भीतर एयर इंडिया जिस राह पर बढ़ी है, उसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह एयरलाइन एक कॉर्पाेरेट रीस्ट्रक्चरिंग लैब में बदल गई है जहां हवाई जहाज, यात्री अनुभव और सुरक्षा प्राथमिक नहीं बल्कि ऑफिस स्थानांतरण, वीआरएस, पदों की अदला-बदली और कॉर्पाेरेट ढांचे की बातें मुख्य हो गई हैं।
टाटा समूह से टेकओवर के बाद यह अपेक्षा थी कि एयर इंडिया सबसे पहले अपने पुराने विमानों की मरम्मत, नए विमानों की खरीद और यात्रियों को बेहतर अनुभव देने पर ध्यान देगी लेकिन अधिकतर सुर्खियां इस बात की बनीं कि कैसे एयर इंडिया अपने मुंबई, कोचीन और बैंगलोर जैसे पुराने परिचालन केंद्रों को बंद कर रहा है, कैसे वीआरएस देकर पुराने कर्मचारियों को हटाया जा रहा है और कैसे सभी कर्मचारियों को जबरन गुरुग्राम शिफ्ट करने के फरमान सुनाए जा रहे हैं। एयर एशिया का बैंगलोर ऑफिस, विस्तारा का मर्जर, एयर इंडिया सेट्स का मुंबई से दिल्ली स्थानांतरणकृसब कुछ एक ही दिशा में बढ़ारू सब कुछ गुरुग्राम में समेटो। इस बदलाव का सबसे बड़ा नुकसान हुआ एयर इंडिया के पुराने कर्मचारियों और ऑपरेशनल नेटवर्क को जो वर्षों से इन शहरों में जमे हुए थे और एयरलाइन की कार्य संस्कृति का हिस्सा बने हुए थे। जबरिया स्थानांतरण और ऑफिस बंद करने जैसे फैसले शायद कॉर्पाेरेट दृष्टि से सही लग सकते हैं लेकिन यह एयरलाइन कर्मचारियों के मनोबल और संचालन में असंतुलन का बड़ा कारण बन गए।
टाटा समूह ने एयर इंडिया में जो नई टीम बनाई, उसमें शीर्ष चार में से सिर्फ सीईओ विल्सन कैंपबेल ही एविएशन बैकग्राउंड से हैं। बाकी तीनों सीसीओ निपुण अग्रवाल, सीएफओ संजय शर्मा और सीएचआरओ रवींद्र कुमार जीपीकृऐसे लोग हैं जिनका एविएशन से कोई अनुभव नहीं रहा। निपुण अग्रवाल, जिन पर एयरलाइन की खरीद, मरम्मत, और उत्पाद विकास जैसी रणनीतिक जिम्मेदारियां हैं, वे एयर इंडिया से पहले कभी भी एविएशन सेक्टर का हिस्सा नहीं रहे। उनका पूरा अनुभव टाटा समूह में कॉर्पाेरेट फाइनेंस स्ट्रैटेजी में रहा है। सवाल यह उठता है कि क्या ऐसे अधिकारी एविएशन की बारीकियों, विमान रखरखाव, इमरजेंसी निर्णय, या स्पेयर पार्ट्स की क्रिटिकलिटी को पूरी तरह समझ सकते हैं?
एविएशन का खर्च, एमआरओ (डंपदजमदंदबमए त्मचंपतए ंदक व्अमतींनस), इंश्योरेंस, और एएमसी जैसे मुद्दे एक सामान्य कॉर्पाेरेट खरीद प्रणाली से बहुत अलग होते हैं। एयरक्राफ्ट की सुरक्षा और परिचालन में देरी का कोई स्थान नहीं होता। इसी प्रकार सीएफओ संजय शर्मा की नियुक्ति भी सवालों में है। उनके पूर्ववर्ती विनोद हेजमाड़ी के पास तीन दशक का एविएशन अनुभव था लेकिन संजय शर्मा टाटा प्रोजेक्ट्स से आये हैं, जहां उनका अनुभव मुख्य रूप से इंफ्रास्ट्रक्चर और प्रोजेक्ट फाइनेंस में रहा है। एविएशन सेक्टर की लागत और ऑपरेशनल इमरजेंसी का वे अनुभव नहीं रखते। तीसरी महत्वपूर्ण नियुक्ति रवींद्र कुमार जीपी की रही जिनका पूर्व का अनुभव टाटा मोटर्स में रहा है। एयरलाइन में पायलट्स, केबिन क्रू, एयर ट्रैफिक स्टाफ की कार्य परिस्थितियां बेहद संवेदनशील होती हैं। यह कारखानों या इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स जैसे नहीं होते। एयरलाइन में एचआर की छोटी सी चूक भी गंभीर हादसे का कारण बन सकती है। एविएशन में एक्सेल शीट से आगे देखना जरूरी टाटा समूह का यह कॉर्पाेरेट अप्रोच एयर इंडिया में बहुत गहराई तक दिखता है। फैसले शायद एक्सेल शीट पर कॉस्ट कटिंग को ध्यान में रखकर लिए जा रहे हैं लेकिन एयरलाइन इंडस्ट्री केवल आंकड़ों पर नहीं चलती। यहां सेकंड्स का महत्व होता है, सुरक्षा सर्वाेपरि होती है और निर्णय क्षमता का आधार फील्ड एक्सपीरियंस होता है।
मुंबई, कोचीन, बैंगलोर जैसे पुराने एयरलाइन हब्स से स्टाफ को जबरन हटाना, पुराने ऑफिस बंद करना, कर्मचारियों को मजबूरन गुरुग्राम लाना यह सब कॉर्पाेरेट निर्णय तो हो सकते हैं लेकिन क्या यह एयरलाइन के संचालन और सुरक्षा के लिए उचित है? इस प्रश्न का उत्तर समय मांगेगा। टाटा समूह जैसा विशाल, अनुभवी और प्रतिष्ठित कॉर्पाेरेट हाउस कैसे इतनी बुनियादी गलती कर गया? एयरलाइन ऑपरेशन के तीन प्रमुख स्तंभकृखर्च प्रबंधन, खरीद-रखरखाव और मानव संसाधनकृतीनों ही ऐसे लोगों के हाथ में सौंप दिए गए जिनके पास एविएशन का कोई पूर्व अनुभव नहीं था। क्या टाटा समूह ने एयर इंडिया के मेकओवर को केवल कॉर्पाेरेट स्ट्रक्चर में सीमित कर दिया? क्या वो एविएशन सेक्टर की जमीनी जरूरतों, तकनीकी बारीकियों और ऑपरेशनल संवेदनशीलता को नजरअंदाज कर गए?
टाटा समूह को समझना होगा कि एयरलाइन चलाना किसी कार फैक्टरी या इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट से भिन्न है। यहां मानवीय समझ, तत्काल निर्णय क्षमता और एविएशन-विशेषज्ञता सर्वाेपरि होती है। अगर एयर इंडिया को केवल कॉर्पाेरेट केपीआई के मापदंड पर चलाने की कोशिश जारी रही तो यह एक श्ब्रांडेड ढांचाश् बनकर रह जाएगी जिसकी पहचान केवल कॉर्पाेरेट ब्यूरोक्रेसी बन जाएगी न कि एक भरोसेमंद राष्ट्रीय एयरलाइन। सरकार को भी इस पर ध्यान देना होगा। उसे यह जांच करनी चाहिए कि क्या निजीकरण के बाद एयर इंडिया में सुरक्षा के ऊपर कॉस्ट कटिंग और लाभ को प्राथमिकता तो नहीं दी जा रही! क्या टॉप मैनेजमेंट का गैर-एविएशन अनुभव किसी अनदेखे खतरे को जन्म दे रहा है? क्या दुर्घटनाग्रस्त विमान के इंजन की मरम्मत और ऑपरेशनल फैसले में कोई चूक हुई? यह समय है कि टाटा समूह एविएशन-विशेषज्ञ नेतृत्व को प्राथमिकता दे, ऑपरेशनल निर्णयों को कॉर्पाेरेट मीटिंग रूम से निकालकर ग्राउंड लेवल पर ले जाए और कर्मचारियों के साथ अधिक मानवीय दृष्टिकोण अपनाए। यदि ऐसा किया गया, तो एयर इंडिया ना केवल एक मजबूत ब्रांड बन सकती है बल्कि एक सुरक्षित, भरोसेमंद और गर्व का प्रतीक भी। अभी भी समय है. अगर टाटा ग्रुप अपनी रणनीति में यह बदलाव कर ले तो भविष्य की कई जिंदगियां सुरक्षित हो सकती हैं।
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