गौतम चौधरी
दिल्ली की प्रसिद्ध जामा मस्जिद 300 से अधिक वर्षों तक भारत में सबसे बड़ी मस्जिद बनी रही जब तक कि भोपाल (मध्य प्रदेश) का ‘ताज-उल-मस्जिद’ बन कर तैयार नहीं हो गया। 1970 के दशक की शुरुआत में इस मस्जिद ने भारत ही नहीं एशिया का सबसे बड़े मस्जिद होने का दावा पेश किया। यह मस्जिद आकार व प्रकार में ही ऐसा नहीं है अपितु इसने कुछ आदर्श भी कायम किए हैं। मसलन ताज-उल-मस्जिद ने खुद को महिला सशक्तिकरण के प्रतीक के रूप में प्रदर्शित किया है। यही नहीं यह मस्जिद सामाजिक सौहार्द, समरसता और सहिष्णुता का प्रतीक बन कर उभरा है। अपनी स्थापना के बाद से, मस्जिद सहिष्णुता, परोपकार और दया के मार्ग पर अग्रसर है। साथ ही, कोविड-19 महामारी के दौरान मस्जिद को टीकाकरण केंद्र के रूप में इस्तेमाल किया गया है और मस्जिद प्रबंधन ने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।
आज मस्जिद अतीत की महिलाओं के सशक्तिकरण की याद दिलाती है। इस भव्य संरचना का निर्माण एक महिला नवाब, शाहजहाँ बेगम द्वारा शुरू किया गया था, जो दो अवधियों के लिए मध्य भारत में भोपाल की इस्लामी रियासत की शासक रही। 1844-60 (जब वह नाबालिग थी, उसकी मां ‘सिकंदर’ भोपाल की बेगम रीजेंट के रूप में कार्य किया) और दूसरा 1868-1901 के दौरान। 1901 में उनकी मृत्यु के बाद, मस्जिद का निर्माण उनकी बेटी सुल्तान जहान बेगम द्वारा किया जाता रहा, जो 1901 और 1926 के बीच अपने जीवनकाल (12 मई, 1930) के अंत तक भोपाल की शासक बेगम थीं।
आपको बता दें कि इस मस्जिद की एक दिलचस्प खासियत है। दरअसल, इस मस्जिद में महिलाओं का अलग से प्रार्थना स्थल विकसित किया गया है। इस स्थान को ‘जेनाना’ (महिला गैलरी) के नाम से जाना जाता है। मस्जिद में एक अलग महिला दीर्घा का निर्माण, इस मस्जिद की असाधारण विशेषताओं में से एक हे। क्योंकि उस अवधि में महिलाएं घर से प्रार्थना करती थीं। हालांकि इस्लाम महिलाओं को बराबर का अधिकार देता है लेकिन अधिकांश महिलाएं आज भी अमूमन अपने घरों में ही नमाज पढ़ती हैं। एक महिला नवाब द्वारा महिलाओं के लिए एक अलग स्थान के साथ निर्मित एक मस्जिद तत्कालीन भोपाल में महिला सशक्तिकरण प्रतीक नहीं तो और क्या है?
ताज-उल-मस्जिद में, सबसे ऊपरी मंजिल का उपयोग नमाज अदा करने के लिए किया जाता है, जबकि भूतल पर दुकानें विशेष रूप से डॉक्टर के क्लिनिक, पाथ लैब, दवा की दुकानें आदि हैं, क्योंकि मस्जिद भोपाल के सरकारी मेडिकल कॉलेज के बगल में स्थित है। आज, मस्जिद परिसर में अधिकांश दुकानें गैर-मुसलमानों के पास किराए पर या स्वामित्व में हैं। सांप्रदायिक सद्भाव का सबसे अच्छा पहलू शाम को यानी मगरिब के अजान के दौरान सामने आता है, जब मुस्लिम दुकान मालिक दीया, अगरबत्ती के साथ दुकानों को रोशन करते हैं और साथ ही आरती-पूजा भी होती है। ऐसा मंजर शायद भारत में ही देखने को मिले।
दुनिया में इस प्रकार की मस्जिद संभवतः बहुत कम होगी, जहां महिलाओं के लिए मुकम्मल व्यवस्था हो। आप सोच सकते हैं जब हिन्दू परिवार की लड़कियां भी अपने घरों से नहीं निकलती होगी तब मुसलमानों की बेटियां मस्जिद में जा कर नमाज पढ़ती थी। वह भी उस मस्जिद में जिसे एक मुस्लिम महिला शासक ने बनवाया। दिल्ली सल्तनत की शासक रजिया सुल्तान, सन् 1857 के गदर की प्रमुख योद्धा, बेगम हजरत महल ऐसे कई नाम हैं, जिन्होंने भारतीय बेटियों का मान बढ़ाया है। विभिन्न क्षेत्रों में आज भी हमारी बहन बेटियां अपना धाक जमाए हुए हैं। यह भोपाल की उस महिला शासकों जैसी प्रभावशाली सोच का परिणाम है, जिन्होंने भारत में महिला सशक्तिकरण की नीब रखी।
भारतीय महिलाओं को सशक्त बनाने में एक नाम और जुड़ता है, वह है फातिमा शेख का फातिमा शेख ने लड़कियों, खासकर दलित और मुस्लिम समुदाय की लड़कियों को शिक्षित करने में सन् 1848 के दौर में अहम योगदान दिया था। फातिमा शेख ने दलित महिलाओं को शिक्षित करने का प्रयास करने वाली सावित्री बाई फुले और महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ काम किया। दरअसल, सावित्री बाई फुले ने जब दलितों के उत्थान के लिए लड़कियों को शिक्षित करने का काम शुरू किया, उन्हें घर से निकाल दिया गया। उस वक्त फुले दंपती को फातिमा शेख के बड़े भाई मियां उस्मान शेख ने अपने घर में जगह दी थी। सावित्री फुले ने जब स्कूल खोला उस वक्त बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं मिल रहे थे, लेकिन फातिमा शेख ने उनकी मदद की और स्कूल में लड़कियों को पढ़ाया। उनके प्रयासों से ही जो मुस्लिम लड़कियां मदरसों में जाती थीं, वो स्कूल जाने लगीं। फातिमा शेख को दलित-मुस्लिम एकता का आधार भी माना जाता है।