जन्म 26 अक्टूबर जन्मदिन पर विशेष: ‘योद्धा पत्रकार थे गणेश शंकर विद्यार्थी’

जन्म 26 अक्टूबर जन्मदिन पर विशेष: ‘योद्धा पत्रकार थे गणेश शंकर विद्यार्थी’

वीरेन्द्र सिंह परिहार

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद (ननिहाल) में हुआ, पैतृक स्थान मुंगावली था, जहां पिता जय नारायण श्रीवास्तव शिक्षक थे। विदिशा और मुंगावली में मिडिल तक शिक्षा प्राप्त की और कानपुर से इंटेªस पास किया। 1908-1910 में करेंसी दफ्तर कानपुर में क्लर्क हुए, तत्पश्चात पीपीएन हाई स्कूल में अध्यापक बने। 02 नवंबर 1911 को सरस्वती में सहायक सम्पादक बने, तत्पश्चात अभ्युदय में सहायक सम्पादक हुए।

विद्यार्थी जी का विवाह जिला इलाहाबाद में मुंशी विश्वेश्वर दयाल की पौत्री प्रभावती के साथ होना तय हुआ। लड़की वालों ने शर्त रखी कि बारात के साथ बाईजी का नाच जरूर आना चाहिए क्योंकि वह उन दिनों समृद्धि और शान-शौकत की निशानी समझी जाती थी। सादगी पसंद गणेश जी को यह आडंबर कैसे सहन होता? अतएव बिना तवायफ के नाच के ही उनका ब्याह हुआ। उस समय देशी राज्यों के राजे-रजवाड़े ब्रिटिश दरबार में झुक कर सलाम बजाते हुए अपना स्थान ग्रहण करते थे पर बड़ौदा महाराज सयाजी राव बिना सलाम किए अपनी जगह पर बैठ गए। उनके इस कदम को ब्रिटिश साम्राज्य की प्रतिष्ठा के प्रति अपमानजनक ठहराया गया। तब गणेश जी ने बड़ौदा महाराज के पक्ष में लेख लिखा जो नागपुर के हितवार्ता में प्रकाशित हुआ जिससे हिन्दी समाज में हलचल मच गई। उनकी परोपकारी वृत्ति और मेधा के चलते ‘सरस्वती’ के सम्पादक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 02 नवम्वर 1921 को 25 रु. मासिक वेतन पर उन्हे बतौर सहयोगी नियुक्त कर लिया पर राजनीतिक पत्रकारिता का मौका मिलते ही उन्होंने सरस्वती छोड़ने में देर नहीं की।

जिस वक्त हिन्दी पत्रकारिता के लिए वातावरण अनुकूल नहीं था और भविष्य भी अनिश्चित था, उस समय गणेश शंकर विद्यार्थी ने 09 नवंबर 1913 को ‘प्रताप’ का प्रकाशन आरंभ किया। इस साप्ताहिक का जन्म कानपुर के पीलखान मुहल्ले के चार रुपये महीने के एक किराए के अंधेरे और टूटे-फूटे मकान से हुआ। प्रथम वर्ष में ही हिन्दी समाज में ‘प्रताप’ राजनीतिक पत्रकारिता और फटाफट लेखन का मिसाल बनकर उभरा। तथ्यों का निष्पक्ष विवेचन और सत्य का निर्भय विश्लेषण। एक वर्ष के उपरांत प्रताप ने सितम्बर 1914 में राष्ट्रीय अंक शीर्षक से विशेषांक निकाला, यह राष्ट्रीय अंक पहले ही वर्ष में प्रताप की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता का पैमाना बना। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, मुंशी प्रेमचंद जैसे मूर्धन्य लेखकों की इसमें रचनाए थीं। आर्थिक कठिनाईयों के बावजूद ‘प्रताप’ की तीसरी वर्षगांठ पर एक और राष्ट्रीय अंक प्रकाशित किया गया। विशेषांक विख्यात कवियों की कविताओं और जाने-माने हिन्दी के विद्वानों के लेखों से भरा हुआ था लेकिन लोकप्रियता के साथ प्रताप का घाटा बढ़ता गया। अपने समय का प्रमुख साप्ताहिक होने के नाते ‘प्रताप’ देशप्रेम से भरी कविताए भी प्रकाशित करता था। दिनांक 19 जून 2016 के अंक में ‘दासता’ शीर्षक कविता प्रकाशित हुई .उस कविता को राजद्रोह पूर्ण बताकर ‘प्रताप’ पर जमानत की सजा ठोक दी गई। इसके बावजूद साप्ताहिक ‘प्रताप’ भी पत्रकारिता में कविता खबर बन गई और खबर कविता।

हिन्दी के लेखकों, साहित्यकारों के लिए ‘प्रताप’ सृजन की उर्वर जमीन बना और साथ ही किसानों और मजदूरों के अधिकारों की मुखर आवाज बनकर उभरा। 22 अप्रैल 1918 के प्रताप में नानक सिंह ‘हमदम’ द्वारा रचित ‘सौदाई वतन’ शीर्षक की कविता प्रकाशित हुई, जिसे शासन ने बौखलाकर राजद्रोहपूर्ण घोषित कर दिया और 1916 में एक हजार की दी हुई जमानत जब्त कर ली और नई जमानत की मांग की। इस पर पाठकों ने चंदा कर जमानत जमा कर दी और ‘प्रताप’ का प्रकाशन पुनः आरंभ हो गया। इतना ही नहीं, जन साधारण का प्रताप को इतना सहयोग मिला कि सहायता कोष में आठ हजार से ऊपर धन जमा हो गया। इस पर गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ की मिलिकियत को सार्वजनिक सम्पत्ति घोषित कर दिया और इसी तारतम्य में 15 मार्च 1919 को ट्रस्ट का गठन कर दिया गया।

बिहार के चंपारण क्षेत्र में नील की खेती कराने वाले अंग्रेज जमीदारों द्वारा वहां के गरीब और निरीह किसानों पर ढाए जा रहे अत्याचारों का जोरदार विरोध करते हुए न सिर्फ ‘प्रताप’ में तेजतर्रार लेखों-रपटों का सिलसिला शुरू हुआ, बल्कि गांधी जी को वहां जाने और संघर्ष में ‘प्रताप’ की महती भूमिका रही। डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है कि ‘प्रताप प्रेस में चंपारण का उद्धार’ नामक पुस्तिका भी प्रकाशित हुई, जिसे लेकर सरकार की ओर से हिदायत भी दी गई। वह इलाहाबाद से ही प्रकाशित होने वाले ‘अभ्युदय’ में चले गए और उसमें जान फूंक दी, पर वह उसमें साल भर ही काम कर पाए, कि 09 नवम्वर 1913 को ‘प्रताप’ का प्रकाशन शुरू हो गया। निर्भीक एवं स्पष्टवादी प्रताप ने कानपुर जैसी औद्योगिक नगरी में मजदूरों के रहन-सहन की बिगड़ती दशा की धुआंधार रिपोटिंग की। ‘प्रताप’ दीन किसानों और शोषित मजदूरों की दर्द भरी कहानियों को प्रकाश में लाने लगा। इसके साथ ही समुद्र पार उन कुली प्रवासी भारतीयों की दुर्दशा पर निडर होकर ‘प्रताप’ में लेख छपते रहे जबकि गणेश जी को यह अच्छी तरह पता था कि किसी भी समय अधिकारियों द्वारा प्रहार हो सकता है।

नवम्वर 1918 दीपावली के शुभ अवसर पर ‘प्रताप’ ने धड़ाके से ‘स्वराज्य’ शीर्षक का विशेषांक प्रकाशित किया। इस दौरान 22 नवम्वर 1920 से ‘दैनिक प्रताप’ का प्रकाशन शुरू कर दिया गया। हिन्दी समाज के उन पाठकों ने ‘दैनिक प्रताप’ को हाथोंहाथ लिया। यहां तक कि 1900 से 1918 तक साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘दैनिक प्रताप’ की लोकप्रियता और समृद्धि की कामना करते हुए कहा- ‘प्रताप’ का भारतवर्ष में वही स्थान हो जाए, जो लंदन में ‘टाइम्स’ समाचार-पत्र को प्राप्त है। 1921 आते-आते ‘प्रताप’ हिन्दी प्रदेश के किसानों व मजदूरों के अनवरत संघर्ष का वाहक बन गया। किसानों पर संयुक्त प्रांत में जो अत्याचार हुए, उनकी तुलना अमृतसर के जलियावाला हत्याकाण्ड से की गई। इस पर प्रखर संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी एवं मुद्रक शिव नारायण मिश्र से नेकचलनी के लिए जमानते और मुचलके मांगी गई। इस पर विद्यार्थी जी एवं मिश्र जी ने प्रताप को बचाने के लिए अपने को प्रताप से अलग कर लिया। फिर भी परिस्थितिया विषम होती गईं और दैनिक प्रताप का प्रकाशन 06 जुलाई 1921 को बंद हो गया।

इधर गणेश शंकर विद्यार्थी को 25 अक्टूवर 1921 को लखनऊ के केन्द्रीय कारागार पहंुचा दिया गया और रायबरेली मुकदमे में उन्हें तीन माह की सजा सुनाई गई। 22 मई 1922 को उन्हें रिहा किया गया। अपनी प्रथम जेल-यात्रा के अवधि के संस्मरण गणेश शंकर विद्यार्थी ने एक दैनंदिनी के रूप में लेखबद्ध किए जो बारह अंकों में प्रताप में प्रकाशित हुई। पर इसके बाद विद्यार्थी जी के लिए जेल घर-आॅगन बन गया। पर अगले सालों में ‘प्रताप’ सिर्फ अखवार नहीं रहा, वह राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का सजग प्रहरी बन गया। जनवरी 1917 को गांधी जी ‘प्रताप प्रेस’ गए, जहां विद्यार्थी जी से उनका लंबा साक्षात्कार हुआ।

1922-1923 में फतेहपुर की अदालत ने लोगों को हिंसाबाद के लिए उकसाने के आरोप में एक साल की सजा और 100 रु. जुर्माने की सजा विद्यार्थी जी को सुनाई। 27 नवम्वर 1926 को कानपुर में कौंसिल चुनाव हुआ, पर गणेश जी व्यक्तिगत रूप से कौंसिल में जाने को इसलिए तैयार हुए कि कानपुर का एक ऐसा व्यक्ति चुनाव लड़ रहा था जो तात्कालीन लाट साहब से हाथ मिलाने के लिए पचार हजार रु. तक लुटाने को तैयार था। गणेश शंकर भारी मतों से चुनाव जीते और 1929 तक कौंसिल के सदस्य रहे। विद्यार्थी जी क्रान्तिकारियों के लिए भी छत्रछाया बने। बटुकदेव शर्मा भागलपुर से प्रत्यक्ष रूप से एक पत्र का संपादन करते थे और परोक्ष रूप से क्रान्तिकारी दल का कार्य करते थे। जब उनके गिरफ्तार होने का सवाल आया तो विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ में उनकी सेवाएॅ स्वीकार की। जिलाधिकारी के पास शिकायत पहंुचने और उनके पूछने पर उन्होंने कहा कि यदि वह उनके स्थान पर होते और आयरलैण्ड के किसी क्रान्तिकारी की रक्षा करनी होती तो वे भी ऐसा ही करते। भगत सिंह ने अपना कल्पित नाम बलवंत सिंह रखकर ‘प्रताप’ कार्यालय में काम किए। वहीं भगत सिंह का सम्पर्क बटुकेश्वर दत्त, चन्द्रशेखर आजाद, जोगेशचन्द्र चटर्जी, विजय कुमार सिन्हा आदि से हुआ। दशहरे के अवसर पर भगत सिंह ने अपने पाॅच साथियों के साथ ‘प्रताप’ प्रेस द्वारा प्रकाशित ‘स्वराज्य’ साहित्य के वितरण का बीड़ा उठाया, जिससे हिन्दी जगत में सनसनी फैल गई। मैनपुरी षणयंत्र के अभियुक्तों के बचाव के लिए उनके द्वारा महती प्रयत्न किए गए।

गणेश शंकर के साथ विद्यार्थी, इलाहाबाद में एफ.ए. की पढ़ाई के दौरान पंडित सुंदरलाल की प्रेरणा से जुड़ा और आजीवन जुड़ा रहा। उनका मानना था कि मनुष्य जीवनभर कुछ-न-कुछ सीखता रहता है, अतः आजीवन विद्यार्थी ही रहता है। 1927 में काकोरी षणयंत्र केस का फैसला आया, जिसमें राम प्रसाद बिस्मिल, अस्फाकउल्ला खाॅ, रोशन लाहिड़ी और राजेन्द्र सिंह को मृत्युदण्ड और बांकी को आजीवन कारावास तथा दूसरी सजाएॅ सुनाई गईं। गणेश जी ने ‘प्रताप’ में इस फैसले की तीव्र भत्र्सना की। अदालत ने फैसला सुनाया 06 अप्रैल 1927 को और ‘प्रताप’ में लिखा गणेश जी ने ‘ये दीवाने।’’ इन्होंने यह भी लिखा कि व्यवहारिकता का दूसरा नाम कायरता है। 1929 में गणेश शंकर विद्यार्थी लाहौर जेल में बंद भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त से मिलने गए। जहां पर दो मास से भी अधिक समय से जारी उनके अनशन को समाप्त करने का प्रयास किया। 01 दिसम्वर 1929 को ‘प्रताप’ में ‘फालोअप स्टोरी’ लिखी ‘युवकों का विद्रोह।’ 1927 में विद्यार्थी जी ने शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा प्रकाशित की एवं शाहजहांपुर में अशफाकउल्ला की समाधि बनवाई। 1929 में वह हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बने। 1930 में विद्यार्थी जी पुनः दफा 117 में गिरफ्तार हुए और एक साल की सजा भुगती। इसी दौरान हरदोई जिले में विक्टर ह्यूगो के उपन्यास ला मिजरेबिल्स को ‘आहूति’ शीर्षक से रुपान्तरित किया। 09 मार्च 1931 को उनकी जेल से रिहाई हुई। मार्च 1931 में कानपुर शहर साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहा था। गणेश जी को जुनून सवार हो गया था कि कुछ भी हो दंगों को फौरन खत्म होना चाहिए। वह देर रात तक कानपुर के दंगाग्रस्त इलकों में घूमते रहे और कई हिन्दू-मुस्लिम परिवारों को मौत के मुंह से बचाने में सफल भी हुए। 25 मार्च को सुबह गणेश जी को घरवालों ने रोका, पर नहीं माने, जबकि अभी वह दो सप्ताह पहले ही हरदोई जेल से एक साल की सख्त कैद की सजा काटकर आए थे। शाम को उनके शहीद होने का समाचार आया। काफी खोजबीन के बाद……दो दिन बाद मिला उनका झुलसा निष्प्राण शरीर। 25 मार्च को हिन्दुओं के मुहल्ले में फंसी कुछ मुस्लिम औरतों को वह मुस्लिम मुहल्ले सुरक्षित ले गए और वहां फंसे हिन्दू परिवारों को सुरक्षित निकाल लाने की कोशिस करते हुए गणेश जी फसादी तत्वों के शिकार हो गए। अतिवादी मुस्लिम युवकों ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया।

उस समय कराची में कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था। जब यह दुःखद समाचार वहां पहुंचा, तो महात्मा गांधी ने कहा, गणेश शंकर विद्यार्थी एक मूर्तिमान संस्था थे। ‘प्रताप’ के संयुक्त सम्पादक को तार भेजा- ‘‘कलेजा फट रहा है, तो भी गणेश शंकर की इतनी शानदार मृत्यु के लिए शोक-संदेश नहीं दूंगा। उनका परिवार शोक-संदेश का नहीं, बधाई का पात्र है। इसकी मिसाल अनुकरणीय सिद्ध हो।’’

(आलेख में व्यक्त लेखक विचार निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन की सहमति या असहमति का कोई सरोकार नहीं है।)

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