गौतम चौधरी
अभी हाल ही में भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को माओवादी उग्रवादियों के खिलाफ दो बड़ी सफलता हाथ लगी। पहली सफलता तब मिली जब माओवादियों के केन्द्रीय समिति सदस्य एवं एक करोड़ रूपये के इनामी उग्रवादी प्रशांत बोस अपनी पत्नी शली मरांडी के साथ गिरफ्तार किए गए। सुरक्षा बलों को लगे हाथ दूसरी सफलता महाराष्ट्र में मिली। महाराष्ट्र के माओवाद प्रभावित क्षेत्र, गढ़चिरौली में सुरक्षा बल के जवानों ने 26 माओवादी गुरिल्लों को मार गिराया। इस सफलता की अहमियत तब और बढ़ गयी जब जिले के पुलिस कप्तान ने यह बताया कि इस मुठभेड़ में खूंखार माओवादी कमांडर मिलिंद तेलतुंबडे, जिसपर 50 लाख रूपये का इनाम घोषित था वह भी मारा गया। सचमुच ये दोनों घटनाएं देख की आंतरिक सुरक्षा के मामले में अहम है लेकिन इन दनों सफलता मात्र से यह अर्थ कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि माओवादी कमजोर हो गए हैं। इसके लिए हमें माओवादियों की रणनीति और उसके सांगठनिक ढ़ाचे को समझना पड़ेगा।
अभी थोड़े दिन पहले ही झारखंड के माओवादियों ने सुरक्षा बलों के खिलाफ ताबड़तोड़ हमले किए। इन हमलों में हमारे कई होनहार व जावाज सुरक्षाकर्मी शहीद हो गए। यही नहीं झारखंड में सत्ता परिवर्तन के साथ ही बड़ी तेजी से माओवादी चरमपंथियों के न केवल हमले बढ़े हैं अपितु उनके मनोबल में भी बढ़ोतरी हुई है। इस साल के जनवरी-फरवरी महीने में प्रदेश के सात जिलों में 10 बड़े माओवादी हमले हुए।
तथ्य व आंकड़े बताते हैं कि 2019 की अपेक्षा अगस्त 2020 तक उग्रवाद व नक्सल प्रभावित इलाके में चरमपंथी वारदातों में बढ़ोतरी हुई है। झारखंड में अगस्त 2019 तक 85 नक्सल और उग्रवादी घटनाएं हुई थीं, जबकि अगस्त 2020 तक 86 घटनाएं हुई। अगस्त 2020 के बाद राज्य में माओवादी घटनाओं में अप्रत्याशित तरीके से इजाफा हुआ है। सबसे चैंकाने वाली बात यह है कि अगस्त 2020 तक नक्सल और उग्रवादी घटनाएं तब बढ़ी, जब पुलिस ने सबसे अधिक अभियान और एलआरपी चलाए। यह खतरनाक संकेत हैं और ये आंकड़े साबित करने के लिए काफी है कि माओवादियों के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है और वे फिर से अपनी ताकत बढ़ाने लगे हैं। आंकड़ों और तथ्यों की मिमांशा से साफ परिलक्षित होता है कि पुलिस अभियान और सक्रियता में कोई कमी नहीं है लेकिन चरमपंथियों पर जो दबाव पड़ना चाहिए उसमें कमी दिखई दे रही है।
हिन्दी की एक वेबसाइट का दावा है कि नक्सली अपने संगठन को दोबारा मजबूत करने के इरादे से झारखंड क्षेत्रों के अपने पुराने सहयोगियों से संपर्क करना शुरू कर दिए हैं। यह केवल झारखंड में ही नहीं हो रहा है अपितु पड़ोसी प्रांत बिहार में भी माओवादियों यह अभियान चलाए हुए हैं। एक ओर पुलिस नक्सलियों के खिलाफ अभियान तेज करने और उन्हें आर्थिक क्षति पहुंचाने की कवायद कर रही है, वहीं माओवादी, टूट चुके संगठन को फिर से संगठित करने के लिए लगातार वारदातों को अंजाम दे रहे हैं। यही नहीं माओवादी नेतृत्व फिर से नए लड़ाकों की बहाली में जुट गया है।
जैसे ही झारखंड की सरकार बदली माओवादियों ने अपने नेतृत्व में भारी फेरबदल किया। भाकपा माओवादी ने ईस्टर्न रीजनल ब्यूरो (ईआरबी) सह पोलित ब्यूरो सदस्य प्रशांत बोस, उर्फ किशन उर्फ बूढ़ा, जिसकी अभी हाल ही में गिरफ्तारी हुई है को हटा कर उनके स्थान पर रंजीत बोस उर्फ कंचन को ईआरबी का प्रमुख बना दिया। रंजीत बोस, पार्टी के सेंट्रल मेंबर कमेटी के सदस्य हंै। बता दें सेंट्रल मेंबर कमेटी भाकपा माओवादी का सबसे प्रभावशाली समिति है। रंजीत बोस को झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में संगठन को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी दी गई है। 65 वर्ष के रंजीत बोस की तीनों राज्यों में अच्छी पकड़ है। वह झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में कई पुलिस मुठभेड़ में संगठन का नेतृत्व कर चुके हैं। संगठन में इसी काम को देखते हुए रंजीत बोस को ईस्टर्न रीजनल ब्यूरो के प्रमुख की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी है। इसलिए यह कहना कि प्रशांत बोस की गिरफ्तारी के बाद माओवादी कमजोर हो जाएंगे और उनकी कमर टूट जाएगी ऐसा कुछ भी नहीं है। प्रशांत बीमार हैं और पार्टी के काम के लायक नहीं बच गए थे। एक सूचना तो यह भी है कि चूकि प्रशांत बेकार हो गए थे इसलिए योजनाबद्ध तरीके से माओवादियों ने उन्हें पुलिस को सौंप दिया है।
जानकारों की मानें तो भाकपा माओवादी सेंट्रल मेंबर कमेटी में फिलहाल 8 सदस्य हैं। इसमें से चार सदस्यों का मुख्यालय झारखंड में ही है। हिन्दी की दूसरे वेबसाइट का दावा है कि मिसिर बेसरा उर्फ भास्कर उर्फ निर्मल जी उर्फ सागर, असीम मंडल उर्फ आकाश उर्फ तिमिर, अनल दा उर्फ तूफान उर्फ पति राम मांझी उर्फ पतिराम मराण्डी उर्फ रमेश और प्रयाग मांझी उर्फ विवेक उर्फ फुचना उर्फ नागो मांझी उर्फ करण दा उर्फ लेतरा सक्रिय रूप से झारखंड में संगठन को मजबूत करने में लगे हैं। झारखंड के 13 जिले अति उग्रवाद प्रभावित हैं। जानकार सूत्रों की मानें तो राज्य में अभी भी 550 अतिप्रशिक्षित माओवादी सक्रिय हैं।
देश के कई राज्य माओवादी उग्रवाद की समस्या से जूझ रहे हैं। इन राज्यों में से झारखंड, छत्तीसगढ़, ओड़िशा बुरी तरह इस समस्या से परेशान है। माओवादियों को प्राप्त बड़े पैमाने पर आर्थिक स्रोतों का पता लगाने के लिए न्यायमूर्ति एमबी. शाह के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया गया था। न्यायमूर्ति शाह आयोग ने साफ तौर पर माना कि इन राज्यों में गैर कानूनी तरीके से खनिजों के उत्खनन से मिलने वाले रकम का एक बड़ा हिस्सा माओवादियों को प्राप्त होता है। इसके साथ ही माओवादी तेनू के पत्ते और नासपाती के बागानों से भी बड़े पैमाने पर लेवी वसूलते हैं। यही नहीं माओवादी मझोले और छोटे व्यापारियों एवं नौकरी पेशे वालों से भी बड़े पैमाने पर लेवी लेते हैं। इन्हीं पैसे से माओवादी अपनी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। इसपर रोक के लिए राष्ट्रीय जांच अभिकरण कई व्यापारियों के खिलाफ मामला भी दर्ज कर रखा है, बावजूद इसके माओवादियों को अभी भी बड़े पैमाने पर फंडिंग की बात सामने आयी है। इसपर रोक लगा पाने में न तो रघुबर सरकार सफल हो पायी और न ही हेमंत सरकार को सफलता मिल पा रही है। यही नहीं केन्द्रीय एजेंसियों के लाख प्रयास के बाद भी माओवादी गुरिल्ले बड़े पैमाने पर लेभी वसूलने में कामयाब हो रहे हैं।
माओवादी समस्या का आगे क्या होगा कहना कठिन है लेकिन फिलहाल माओवादी समस्या पर कई राज्य सरकारें नरम रवैया अपना रही है जो जनता पर भारी पड़ने लगा है। इस समस्या को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। हाल के दिनों में माओवादियों ने अपने संगठन और अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव किया है। यही नहीं माओवादी चिंतक अपनी राजनीतिक शाखा को भी बेहतर बनाने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं। माओवादियों द्वारा भर्ती, पुनरीक्षण और सुदृढ़ीकरण, आईईडी तकनीक का बेहतर उपयोग पर जोर दिया जा रहा है। माओवादियों के लगभग सभी बड़े नेता झारखंड में ही रहते हैं। बड़े सभी नेता अब 65 पार कर चुके हैं। बड़े नेताओं का ब्योरा तो सुरक्षा एजेंसियों के पास है लेकिन नए नेताओं और उनकी गतिविधियों का लेखाजोखा पुलिस के पास में नहीं के बराबर है। केंद्रीय समिति के तीन सदस्य, अनल, विवेक, असीम मंडल को अग्रिम सैन्य संगठन को खड़ा करने की जिम्मेदारी दी गयी है। सुरक्षा एजेंसियां यही समझ रही है कि माओवादियों के पास युवा नेताओं की कमी है लेकिन जो घटनाएं घट रही है उससे यह अंदाजा लगाया जा रहा है कि माओवादियों के पास कुछ बेहद शातिर युवा नेताओं की टीम भी है, जो अब कमान संभाल रहे हैं और वह आने वाले समय में और अधिक खतरनाक होगा।
बिहार के रहने वाले अरविन्द सिंह की 72 वर्ष की आयु में विगत दो साल पहले मौत हो गयी। उनका स्थान खाली पड़ा था। अभी हाल ही में नई सांगठनिक संरचना के तहत बिहार का ही तेज तर्रार माओवादी नेता मिथिलेश महतो को झारखंड की कमान सौंपी गयी है। मिथलेश कई मामलों के माहिर हैं। संगठन खड़ा करने में अरविन्द सिंह जैसा ही मिथलेश अन्य नेताओं की अपेक्षा युवा भी हैं और जन मिलिया संगठन में बड़ी अहमियत रखते हैं। कमान मिलने के बाद जनवरी में वे झारखंड आए थे और फिर बिहार लौट गए। फरवरी में उनके आने और अपना काम संभाल लेने की बात बताई जा रही है। मिथलेश के आने से झारखंड में तेजी से माओवादी गतिविधि और हमले बढ़ने की संभावना जताई जा रही है।
देश में आंतरिक सुरक्षा के मामले में अभी भी पृथक्तावाद के तीन गुट कायम हैं। एक इस्लामिक आतंकवाद, दूसरा पूर्वोत्तर के आतंकवाद और तीसरा माओवादी उग्रवाद। ये तिनो गुट अपनी रणनीति में परिवर्तन कर रहे हैं। इस परिवर्तन की दिशा क्या है अभी इसका कोई लेखाजोखा किसी के पास नहीं है। इस बार इस्लामिक आतंकवाद का नया रूप दक्षिण भारत में देखने को मिल रहा है। पोपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया नामक संगठन इसके केन्द्र में है। पूर्वोत्तर के आतंकवादी अब पूर्ण रूप से चीनी प्रभाव में दिखने लगे हैं। इन दोनों संगठनों को बौद्धिक और राजनीतिक संरक्षण के तौर पर माओवादी अपने आप को प्रस्तुत करने लगे हैं। यही नहीं ये तीनों प्रकार के पृथक्तावादी समूह एक मंच पर भी आने की योजना में लगे हैं। भविष्य में यदि ऐसा हुआ तो देश की एकता और अखंडता के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है।