आदिवासियों के लिए अलग धर्म श्रेणी की मांग पृथकतावादी मनोवृति का हिस्सा

आदिवासियों के लिए अलग धर्म श्रेणी की मांग पृथकतावादी मनोवृति का हिस्सा

गौतम चौधरी 

आदिवासियों के लिए एक अलग धर्म श्रेणी की मांग को लेकर जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन के दौरान, बिहार के एक आदिवासी कार्यकर्ता महेंद्र ध्रुव ने कहा कि ‘‘यदि आप 1871 से 1931 तक ब्रिटिश काल के सभी जनगणना के आंकड़ों को देखेंए तो जनजातियों को एक विकल्प के रूप में ‘आदिवासी’ चुनने का प्रावधान था। आजादी के बाद सरकार ने इसे हटा दिया, ताकि जनजातियों को ‘हिंदू’ या अन्य धर्मों के अनुयायी के रूप में गिना जा सके।’’ वर्तमान समय के अधिकांश आदिवासी कार्यकर्ता आदिवासी खंड के तहत एक अलग धर्म श्रेणी की अपनी मांग को सही ठहराने के लिए इस तर्क का उपयोग करते हैं। तो अंग्रेजों द्वारा भारत में ऑस्ट्रेलियाई शब्दावली शुरू करने के पीछे की सच्चाई क्या है?

आदिवासी शब्द पर विचार करने से पहले लार्ड मैकाले का उल्लेख यहां करना आवश्यक हो जाता है। मैकाले को भारत में पश्चिमी शिक्षा प्रणाली की शुरुआत करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए जाना जाता है, जिसके कारण भारत में क्षेत्रीय संस्कृति, पाठ्यक्रम पर अंग्रेजी संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित हो पायी। फिरंगी सल्तनत काल में उनके तर्क 1835 में ‘‘मैकाले मिनट्स’’ के रूप में प्रकाशित हुए थे। इससे पारंपरिक और प्राचीन भारतीय शिक्षा और व्यावसायिक प्रणालियों और विज्ञानों का व्यवस्थित रूप से सफाया हो गया। 1857  के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, हिंदू और मुसलमानों ने असाधारण एकता दिखाई, जिससे अंग्रेजों को एहसास हुआ कि वे भारत में तब तक शांति से शासन नहीं कर सकते, जब तक कि भारतीयों के बीच विभाजन न हो। सांप्रदायिक दंगे भड़का कर वे हिंदू और मुसलमानों के बीच मतभेद पैदा करने में सफल रहे। अगली बड़ी चुनौती हिंदुओं के वीच विभाजन की थी।

इस महत्वपूर्ण रणनीति को उन्होंने बड़ी योजनाबध तरीके से आगे बढ़ाने की कोशिश प्रारंभ की। अंग्रेजों ने भारतीय परिप्रेक्ष में आदिवासी शब्द गढ़े और आदिवासी व गैर-आदिवासियों के बीच दरार पैदा करने की एक अवधारणा रखी। उन्होंने आदिवासियों को आदिवासी के रूप में वर्गीकृत करके दो लक्ष्यों को लक्षित किया। सबसे पहले, उन्होंने आदिवासियों को यह विश्वास दिलाया कि वे एक अलग ब्लॉक हैं और उनकी अलग पहचान है और दूसरा, उन्होंने आदिवासियों के बीच बड़े पैमाने पर धर्मांतरण प्रारंभ किया। यह काम तभी आसान हो पाया जब आदिवासी समुदाय अपने आप को हिन्दुओं से अलग करके देखने लगा। यह साम्राज्यवादी ब्रिटेन के लिए आसान तरीका था। झारखंड, छत्तीसगढ़ और पूरे उत्तर-पूर्व आदि के आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों का बड़े पैमाने पर धर्मांतरण उपरोक्त सिद्धांत की गवाही देता है।

पब्लिक लाॅ 480 के दिनों यानी भारत-अमेरिकी समझौते के बाद भारत ने एक लंबा सफर तय किया है। अब कई दक्षिण एशियाई देश नेतृत्व के लिए भारत की ओर देख रहे हैं। पश्चिमी प्रभू राष्ट्रों के न चाहते हुए भी भारत आज परमाणु शक्ति संपन्न देश है। यही नहीं परमाणु शक्ति के रूप में, भारत तेजी से विकास कर रहा है और उम्मीद की जाती है कि वह थोड़े समय के अंदर अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस आदि जैसे विकसित देशों के बराबर आ जाएगा। पश्चिमी शक्तियों ने महसूस किया है कि भारत के इस विकास की तेज गति को तभी रोका जा सकता है, जब भारत में आंतरिक अशांति पैदा हो। आदिवासियों के लिए एक अलग धर्म संहिता का मुद्दा उठाने वाले सीधे तौर पर पश्चिमी शक्तियों के हाथों में खेल रहे हैं। एक अलग आदिवासी धर्म पश्चिमी शक्तियों को आदिवासियों को बड़े पैमाने पर ईसाई धर्म में दीक्षित करने का आसान मौका प्रदान करेगा। यह इस तथ्य से समझा जा सकता है कि लगभग पूरे पूर्वोत्तर भारत और झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि के आदिवासियों का एक बड़ा हिस्सा ईसाई धर्म में परिवर्तित हो चुका है। इन क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों के प्रभाव का उपयोग करके पश्चिमी शक्तियां भारत को आंतरिक रूप से अस्थिर करने के फिराक में है। इस तरह यह मांग हमारी आर्थिक प्रगति एवं विकास को कमजोर करने की एक पश्चिमी साजिश है। रिपोर्ट्स की मानें तो मिशनरियों और उनके पश्चिमी सहयोगियों की नजर आदिवासी इलाकों की विशाल खनिज संपदा पर भी है।

रामायण जैसे महाकाव्य ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं जहां आदिवासियों ने हिंदू देवी-देवताओं को अपना कर्तव्य निभाने में मदद की है। शबरी के बेर, केवट का नदी पार करते समय भगवान राम को अपनी सेवाएं देना आदि अधिकांश भारतीयों को ज्ञात है। रामलीला देश भर के कई आदिवासी क्षेत्रों में की जाती है। आदिवासियों को सदियों से हिंदू धर्म का हिस्सा माना जाता रहा है। आदिवासियों के साथ-साथ सनातनियों में प्रकृति पूजा, गोत्र प्रणाली आदि आम हैं। यही नहीं संथालों का सफा होर और उरांओं का टाना भगत संप्रदाय आज भी सनातन हिंदू परंपराओं को अपने जीवन का हिस्सा मानता है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां भील और गोंड आदिवासी शासकों ने सनातनी देवताओं के लिए मंदिरों का निर्माण कराया है। भील जनजातियों में से कुछ तो ऐसे हैं जिन्हें क्षत्रिय माना जाता है।

अगर भारत को अमेरिका, चीन, पश्चिमी यूरोपीय देशों जैसे देशों से आगे निकलना है तो उसे एकजुट रहने और अपनी सारी ऊर्जा विकास के मोर्चे पर लगाने की जरूरत है। आदिवासियों के लिए अलग धर्म संहिता जैसे मुद्दे देश को भीतर से ही कमजोर करेंगे। जो लोग जटिलता को नहीं समझते हैं, उनके लिए भारत में 100 जनजातियां हैं। धर्मों को जाति जनगणना के 1.6 से कोड हिंदू धर्म, इस्लाम, सिख धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म के आधार पर किया जाता है। कल्पना कीजिए कि प्रत्येक जनजाति को एक अलग कोड दिया जाए तो इस प्रक्रिया को जटिल बनाने के अलावा आदिवासियों को और कुछ भी हासिल नहीं होगा। कथित आदिवासी कार्यकर्ता जो अभी अलग से आदिवासी धर्म कोड की मांग कर रहे हैं उन्हें यह भी सोचना होगा कि अगर अलग से धर्म की व्यवस्था हो जाती है तो उनके कई अधिकार जो आज उन्हें प्राप्त हैं उसको फिर से परिभाषित करना होगा। इससे उन्हें भयंकर घाटा भी हो सकता है। जनजातीय कार्यकर्ताओं द्वारा आदिवासियों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग पर विचार करता है, तो इसका एक संभावित प्रभाव यह हो सकता है कि वे कई एसटी लाभों को खो देंगे जो वर्तमान में उनके समग्र विकास और सशक्तिकरण में उनकी मदद कर रहे हैं।

इसलिए जनजातीय समाज को इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि आखिर अलग से आदिवासी धर्म कोड क्यों? उन्हें जो चाहिए वह पूर्व से सरकार के द्वारा उन्हें प्राप्त हो रहा है। यदि वे अलग धर्म कोड प्राप्त कर भी लेते हैं तो उन्हें भयंकर घाटा होगा, झारखंड या फिर छत्तीसगढ़ में वे अलग-थलग पड़ जाएंगे और उनका विकास भी अवद्ध हो जाएगा। दूसरी ओर विदेशी विभाजनकारी शक्तियों को नए प्रकार के पृथक्तावाद को बढ़ावा देने में आसानी हो जाएगी।

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