हसन जमालपुरी
हम इसे नकार नहीं सकते कि भारतीय मुस्लिम समुदाय में जातिवाद एक सामाजिक सच्चाई है, जिसे हाल ही में प्रकाशित साहित्य में उजागर किया गया है। भारतीय मुस्लिम समाज में जातिवाद के इस आयाम का हमेशा से सरकारों और उन लोगों द्वारा नजरअंदाज किया जाता रहा है, जो इस समाज में राजनैतिक पदों पर आसीन रहे हैं। मुस्लिम समाज, बहुसंख्यक हिन्दुओं की तरह वर्ण प्रथा पर आधारित विभाजित तो नहीं है लेकिन यहां भी कई श्रेणी हैं, जिसे हमें स्वीकारना ही होगा। इस विभाजन का आधार मुसलमानों का सामाजिक स्तर है, उनके उद्गम यानी पैदाइश का स्थान वर्णावली तथा उनके द्वारा किए जाने वाला पेशा है।
आजादी से पहले किए गए कई अध्ययनों और जनगणा के आंकड़ों में यह इंगित किया गया था कि किस प्रकार मुस्लिम समाज में सामाजि, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर विभाजनकारी प्रथा कार्य करती है। बहरहाल, आजादी के बाद इस जाति-पांत के आयाम को नजअंदाज करते हुए मुस्लिम समुदाय को समदर्शी वस्तु के तौर पर माना गया। यह बताना जरूरी होगा कि जातिवाद की इस कड़ी में धर्म का कोई योगदान नहीं है। इस्लाम सैद्धांतिक तौर पर जाति प्रथा में विस्वास नहीं करता है। एकता और समानता इस्लामिक चिंतन के मूल तत्व हैं और यही कारण है कि दुनिया के अन्य मजहब की तुलना में यह आम लोगों को ज्यादा आकर्षित करता है। बता दें, इस्लाम सामाजिक समानता व इसे मानने वालों क साथ एक जैसा व्यवहार करने की अपेक्षा करता है।
आम तौर पर मुसलमानों में तीन तरह के जातीय भेद मौजूद हैं। पहला अशरफ, दूसरा अजलफ और तीसरा अरजल। इस क्रम में सबसे उपर वाली उच्च श्रेणी के मुसलमान आते हैं, जिन्हें अशरफ कहा जाता है। इस श्रेणी में शेख, सैयद, मोगल और पैठान आते हैं। इस सामाजिक सोपान में दूसरा पद अजलफ को दिया गया है। इस श्रेणी में वे भारतीय मुसलमान आते हैं, जो भारतीय हिन्दू मजहब से किसी कारणवस धर्मांतति हुए हैं। इस श्रेणी में बड़ी संख्या में उन कामगारों या कारीगरों की है जो किसी समय में हिन्दू जाति का आर्थिक आधार हुआ करते थे। हिन्दू उच्च जातियों के जातिए अभिमान और मुस्लिम समाज में समानता का आकर्षण इन जातियों को अपना धर्म छोड़ने के लिए मजबर किया। ये लोग अपना हिन्दू धर्म छोड़ कर मुसलमान तो हो गए लेकिन यहां भी उन्हें वह सम्मान प्राप्त नहीं हुआ जिसके वे हकदार थे। इसी सोपान में सबसे निचले स्तर पर अरजल मुसलमान आते हैं। ये निम्न जाति के मुसलमान आम तौर पर वे दलित हैं, जिन्होंने इस्लाम कबूल किया लेकिन भारतीय मुस्लिम समाज ने इन्हें रशूल के सिद्धांतों के अनुसार इज्जत नहीं प्रदान की। ये लोग अपने पारिवारिक व्यावसायों, जैसे-धोवी, मोची और इसी तरह के अन्य कार्य करते हैं।
यहां बता दें कि भारतीय मुसलमानों में 133 उपजातियां हैं, जिनमे 80 से लेकर 85 प्रतिशत अरजल और अजलफ मुसलमानों की है। आम तौर पर 10 से 15 प्रतिशत मुसलमानों का तालुख अशरफ श्रेणी से है। इन अशरफ मुसलमानों का ही अधिकतर संसाधनों पर कब्जा है। धार्मिक स्थिति से लेकर राजनीति तक ये हावी है। उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों में भी इन्हीं का कब्जा है। और तो और भारत सरकार के द्वारा चलाए जाने वाले कल्याणकारी योजनओं का लाभ भी ज्यादा से ज्यादा इसी श्रेणी के मुसलमान उठा ले जाते हैं और पिछड़ी श्रेणी के मुसलमानों को कुछ भी नहीं मिल पाता है।
यह जाति भेद-भाव मुसलमानों के सामाजिक व्यावहार में भी स्पष्ट झलकता है। उदाहरण के लिए, यहां शारिरिक कार्य करने वाले स्पष्ट तौर पर अलग हैं, यहां ना के बराबर अंतजातीय विवाह होते हैं और इनमें विशेष प्रकार के सामाजिक रीति-रिवाज पाए जाते हैं। इस जाति भेद के कारण इन समूहों में शोषणकारी सामजिक व्यावहार देखा जा सकता है। दरअसल, इस तरह की भेद-भावपूर्ण जाति प्रथाओं के कारण अरजल व अजलफ मुसलमान हमेशा से ही बदतर स्थिति में रहते आए हैं, जिनका या तो बहुत कम या बिल्कुल भी राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं होता है।
इनका आर्थिक विकास भी कम से कमतर हुआ है। इन दोनों समूहों को आम भाषा में पसमंदा मुसलमान कहा जाता है, जो 1980 के दशक से ही अपने लिए संविधान के अनुसार आरक्षण व सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत हैं। सच्चर कमेटी तथा रंगनाथन कमेटी के रिपोर्ट में इन पसमंदा मुसलमानों द्वारा अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में सहे जाने वाले भेद-भाव व उनके द्वारा सहे जाने वाले अमानवीय व्यवहार के पहलू पर रौशनी डाली गयी है। इन रिपोर्टों में अशरफ मुसलमान या अन्न उच्च श्रेणि के मुसलमानों द्वारा इन पसमंदा मुसलमानों का सामाजिक वहिष्कार व छूआ-छूत जैसी बुराइयों पर भी प्रकाश डाला गया है।
इसलिए यह बताना आवश्यक हो जाता है कि पसमंदा मुसलमानों द्वारा चलाए जाने वाले आन्दोलनों में समाजिक न्याय व राजनीतिक पहचान पाने पर जोर दिया जाता रहा है। आज वक्त की मांग है कि मुस्लिम समूहों की इन दो निचली श्रेणियों को संविधान द्वारा प्रदत्त सुविधाएं उन्हें प्राप्त हो। सरकारी कल्याणकारी एवं विकास योजनाओं से इन्हें बचित नहीं किया जए। अशरफ मुसलमान बनाम पसमंदा मुसलमानों के इन मसलों को सुलझा लेने मुस्लिम समाज की कई बड़ी समस्याएं खुद व खुद सुलझ जाएंगी। भारत सरकार ने जिस प्रकार तीन तलाक जैसी बुराइयों को समाप्त करने के लिए कानून बनाई उसी प्रकार इस मामले में भी सरकार को संविधान के दायरे में रहते हुए हस्तक्षेप करनी करनी चाहिए।
(लेखक के विचार निजी हैं। इससे जनलेख का कोई लेना-देना नहीं है।)