गिरीश मालवीय
मलाला के दुनिया की टॉप फैशन मैगजीन वोग में दिए बयान को कुछ लोग ठीक से समझ नही पा रहे हैं। दरअसल, यह बयान पिछले लंबे समय से लगातार यूरप का पूरी दुनिया पर हो रहे सांस्कृतिक आक्रमण का एक हिस्सा है। आपको याद दिला दू कि कुछ साल पहले 2015 में इसी फैशन पत्रिका वोग ने एक शार्ट वीडियो भारतीय दर्शकों के लिए पेश किया था। इस वीडियो का नाम था ‘माई चॉइस’। दीपिका पादुकोण और अन्य देश की सेलेब्रेटी, टाइप की मॉडल महिलाएं द्वारा इस वीडियो में कहा गया है कि मैं कैसे भी कपड़े पहनूं, कहीं भी आऊं-जाऊं, शादी से पहले संबंध बनाऊ या बाद में किसी से भी संबंध बनाऊं, पुरूष से सम्बन्ध बनाऊ या स्त्री से सम्बन्ध बनाऊ या दोनो से सम्बन्ध बनाऊ यह मेरी च्वाइस है, यानी मेरी मर्जी है। प्रियंका चोपरा के टीशर्ट वाली बात भी आपलोगों को याद होगी। उस टीशर्ट पर भी हम भारतीयों ने बहुत हो-हल्ला मचाया था लेकिन उसका भी कुछ नहीं हुआ। बाद में प्रियंका चोपरा ने एक अमेरिकन से शादी कर ली।
मलाला का यह बयान भी उसी श्रृंखला की अगली कड़ी है। मलाला, वोग के कवर पर है। कभी आपलोगों ने वोग पत्रिका के तमाम कवर पेजों को देखा है? मौका लगे तो देखिएगा।
पश्चिम कहता है, ‘we don’t enter a country with gun-boats, rather with language and culture’. बौद्धिक स्तर पर कमजोर और बावला भारतीय समाज मूर्ख बनने के लिए हमेशा तैयार रहता है। राजनीति तो हमें मूर्ख बनाती ही है, ग्लोबलाइजेशन का यह नया फंडा भी अब हमें मूर्ख बनाने लगा है। दरअसल, पहले हम समझ नहीं पा रहे थे। ग्लोबलाइजेशन हमें पहले से मूर्ख बना रहा था लेकिन हमारी समझ से यह परे था। फ्रेडरिक जेमेसन ने तो कहा ही था, ‘‘जब तक ग्लोबलाइजेशन को लोग समझेंगे तब तक वह अपना काम निबटा चुका होगा।’’ वह आधुनिकता के अंधत्व ने इतना विशाला अंधकार और अंतरविरोध खड़ा कर दिया है कि हम सही और गलत में अंतर ही नहीं समझ पा रहे हैं। यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर ग्लोबलाइजेशन का निहितार्थ क्या है?
यह कथन प्रभु जोशी का है अगर आप इस मुद्दे पर प्रभु जोशी को पढ़ ले तो आपके सारे दिमाग के सारे कीड़े झड़ जाएंगे। वे लिखते हैं, ‘‘मेरा शरीर मेरा” का स्लोगन पोर्न व्यवसाय के कानूनी लड़ाई लड़ने वाले वकीलों ने दिया था। उसे हमारे साहित्यिक बिरादरी में राजेन्द्र यादव ने उठा लिया और लेखिकाओं की एक बिरादरी ने अपना आप्त वाक्य बना लिया। इस तर्क के खिलाफ, मुकदमा लड़ने वाले वकील ने जिरह में कहा था, “अगर व्यक्ति का शरीर केवल उसका है तो किसी को आत्महत्या करने से रोकना, उसकी स्वतंत्रता का अपहरण है। अलबत्ता, जो संस्थाएं, आत्महत्या से बचाने के लिए आगे आती है वे दरअसल, व्यक्ति की स्वतंत्रता के विरूद्ध काम करती है। उनके खिलाफ मुकदमा दायर करना चाहिए।
‘‘अमेरिका में आरम्भ में लो-वेस्ट जीन्स, होमोसेक्सुअल कैदियों का पहनावा था। बाद में जी एल बी टी का ड्रेस कोड हो गया। और उसे पहनने वाली लड़की को अमेरिकी अभिजन, स्ट्रीट स्मार्ट गर्ल कहने लगे लेकिन भारत तो यूरो-अमेरिकी ट्रैश को अपने जीवन के सबसे बड़ा उपहार समझता है। यहां तो ये स्त्री की गरिमा का अलंकरण बन जाता है।
प्रभु जोशी आगे लिखते हैं, ‘‘आजकल, मुझे संस्कृति की चिंता करने वाले दल निपट मूर्खता से घिरे लगते है। वो कुछ नहीं जानते। वस्त्र-विन्यास की बात आते ही, जो भारतीय आत्म-चेतस विदुषियां, शक्तिरूपेण संस्थिता के रूप और स्वरूप धारण कर के आ जाती हैं, वे सिंहवाहिनी हो कर संहार के संकल्प के साथ रणक्षेत्र में उतर आती है। उनको पता नहीं होता कि वे पशिम के फैशन-कारोबारियों के कारिन्दे की भूमिका में स्थान्तरित हो चुकी है।’’
प्रभु जोशी ने अपने लम्बे लेख में अपनी बात को स्पष्ट करते हुए जो उदाहरण दिया वो बेहद दिलचस्प है, वे कहते, ‘‘अमेरिकी विदुषी ब्रिटनी स्पीयर्स ने, स्त्री की स्वतंत्रता के प्रश्न को ऊंचाइयां देने के लिए छाया चित्रकारों को आमंत्रित किया और अपने यौनांगों के छायाचित्र निकालने का प्रस्ताव किया। ये एक वीरांगना का प्रतिमान का स्थापन था। नतीजा हुआ कि वे विश्व मीडिया में छा गई। उनकी साहसिकता से उनकी प्रिय सखी पेरिस हिल्टन, जो दूसरे नंबर की सितारा हैसियत की विदुषी थी, उन्होंने स्वयं को पराजित अनुभव किया और उन्होंने अपने पुरुष मित्र के साथ के दैहिक साहचर्य की वीडियो क्लिपिंग्स को सार्वजनिक कर दिया। वह ब्रिटनी स्पीयर्स से आगे निकल गई। फिर तारा रिज और लिंडसे लोहान भी इस स्पर्धा में कूद पड़ीं। उन्होंने अपने शयन कक्ष की देहलीला को जन जन के लिए दृश्यमान कर दिया। ये एकांन्त को अनेकांत बनाने का स्त्रैण शौर्य था। फिर फ्लोरिडा के एक विद्यालय की लड़कियों ने अपने टॉप्स उतार फेंके। बड़ी चर्चा हुई, गर्ल्स गान वाइल्ड की हेडलाइंस बनी। बाद में उन्होंने एक स्लोगन भी दिया, वी एन्जॉय आवर वैजाइना। ये स्लोगन टी-शर्ट्स पर छापा गया। इस सब से एक उम्र रशीदा विदुषी जेन जुस्का ने, जो स्कूल टीचर रही थी, अपने छात्रों के साथ रति-क्रिया के रोचक बखान में किताब लिखी, ‘राउंड हील्ड वुमन’। वह सब से अधिक बिकने वाली किताब सिद्ध हुई।’’
ये तमाम, साहसिक प्रतिमान, उस सभ्य समाज की विदुषियों ने रचे, जिस समाज का हम अनुकरण कर के सांकृतिक संपन्नता अर्जित करने के लिए कृत संकल्प हैं। खैर मूल बात पर आता हूं। 2015 में जो माई चॉइस वाला वीडियो आया उस पर शोभा डे ने यह भी कहा था कि जिस तरह की मांग इस वीडियो में लड़कियां कर रही हैं, अगर कोई पुरुष ऐसा करे तो क्या उसे स्वीकार कर लिया जाएगा? क्या उसकी सरेआम पिटाई नहीं हो जाएगी?
मलाला प्रकरण पर जब मैंने पोस्ट लिखी तो अनेक मित्रों ने कहा, कमेन्ट में लिखा कि किसी का गे होना, लेस्बियन होना या बाइसेक्सुअल होना नेचुरल है, उसे ऐसा बनाया नही जा सकता। पिछले दिनों रूस में एक अजीबोगरीब घटना सामने आई है। जो लोगो को ठीक से समझना जरूरी है। मेट्रो यूके की खबर के मुताबिक, ‘‘एक रूसी शख्स ने एप्पल के खिलाफ नैतिक नुकसान के लिए मुकदमा दायर किया। उसका कहना है कि आईफोन की वजह से वो गे बन गया है। उसने एप्पल से 1 मिलियन रूबल का मुआवजा मांगा है। खबर के मुताबिक शख्स ने अपने आईफोन पर एक ऐप्प डाउनलोड की थी जिसके जरिए उसने बिटकॉइंस का ऑर्डर दिया। बिटकॉइंस के बजाए उसे ‘69 गेकॉइंस’ मिले इस पैसे के साथ एक मैसेज भी आया जो इस प्रकार था, “आजमाए बिना जज न करें।” उस व्यक्ति का कहना है कि ‘‘मैंने सोचा कि सही भी है, बिना आजमाए मैं कैसे जज कर सकता हूं, और फिर मैंने समलैंगिक रिश्तों को आजमाने का फैसला किया। मेरा अब एक बॉयफ्रेंड है।’’ हम देख रहे हैं कि अभी OTT प्लेटफार्म पर जिस तरह की सामग्री आ रही और पिछले एक दशक से टीवी के माध्यम से बिग बॉस, डांस इंडिया डांस में जैसे रियलिटी शो में लगातार दिखाए जा रहे, LGBT समुदाय के लोगो को बढ़ा चढ़ाकर प्रतिनिधित्व दिया जा रहा है, यह एक नए किस्म की सनी लियोनी संस्कृति की स्वीकार्यता समाज मे बढ़ाए जाने का प्रयास है। इसका समाज पर असर भी हो रहा है। उससे प्रभावित युवा पीढ़ी एक बार ‘आजमा’ के जरूर देख सकती हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाला कल फ्लाकों में बच्चा पैदा करेगा और गर्वाधान की प्रक्रिया को आनंद का साधन बनाया जाएगा।
(यह आलेख लेखक से सोशल साइट फेसबुक पेज से लिया गया है। इस लेख में थोड़ा शाब्दिक संशोधन किया गया है। हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक हैं। इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। जनलेख प्रबंधन का इससे कोई लेना-देना नहीं है।)