वामपंथ/ युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं से करोड़ों लोगों का विस्थापन

वामपंथ/ युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं से करोड़ों लोगों का विस्थापन

रविंदर कौर

जिसने कभी घरों से उजड़े लोग देखे या उजड़कर बसने वालों की कहानियाँ सुनी हों, शायद उन्हें एहसास हो कि विस्थापन क्या होता है! पंजाब के लोगों ने भी 1947 में विस्थापन देखा। जिनकी बातें हमारे बड़े अब भी बताते हैं। पंजाब के लोगों के विस्थापन के कारण राजनीतिक थे। यहाँ हम विश्व के उजड़े हुए लोगों की बात करेंगे। जिन्हें अपना घर-बार, पैदायशी गाँव मजबूरी में छोड़ना पड़े, इनके कारण भी राजनीतिक हैं!

अंदरूनी विस्थापन के शिकार लोग ऐसे लोग हैं, जो अपने घरों से उजड़ चुके हैं, अपना इलाका छोड़कर देश के अंदर ही दूसरे इलाकों में बिना घर-बार के रहते हैं। ‘अंतरराष्ट्रीय अंदरूनी विस्थापन निगरानी केंद्र’ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, साल 2022 के अंत तक, विश्व स्तर पर अपने ही मुल्क में विस्थापित हो रहे लोगों की संख्या अब तक की सबसे उँची दर पर है। यह साल 2021 के मुकाबले साल 2022 में 20ः ज्यादा है। साल 2020 के अंत में यह संख्या 5.5 करोड़ से ज्यादा थी, जो 2021 की पहली छमाही में 6 करोड़ थी। जनवरी से जून 2021 के दरमियान 33 देशों में 43 लाख से ज्यादा नए अंदरूनी विस्थापन दर्ज किए गए थे। एजेंसी के मुताबिक एक साल पहले के मुकाबले विस्थापन तेजी से बढ़ा है, कांगो, इथोपिया, अफगानिस्तान, म्यांमार, दक्षिणी सूडान और अफ्रीकी देशों में बड़े स्तर पर विस्थापन हुआ था। इस समय केन्या में अंदरूनी विस्थापन के शिकार लोगों की संख्या 3 लाख 80 हजार है। सोमालिया में यह संख्या लगभग 30 लाख है। यह सबसे ज्यादा इथोपिया में है। रिपोर्ट के अनुसार यहाँ लगभग 42 लाख लोग अंदरूनी उजाड़े के शिकार हैं।

साल 2022 के मध्य तक 60 लाख से भी ज्यादा नया अंदरूनी उजाड़ा दर्ज किया गया था। इस साल के अंत में इसकी संख्या 7 करोड़ से बढ़ गई। यूक्रेन, कांगो, इथोपिया, म्यांमार, सोमालिया देशों में पिछले साल उजाड़ा सबसे ज्यादा हुआ। आइए, कुछ देशों के आँकड़े देखें। इन देशों के अलावा पिछले साल प्राकृतिक आपदाओं के कारण पाकिस्तान, फिलीपींस, चीन, भारत और नाइजीरिया में भी लोग अपने क्षेत्रों से उजड़ने के लिए मजबूर हुए। पाकिस्तान में पिछले सावन में बाड़ के कारण लगभग 80 लाख लोगों का विस्थापन हुआ था। अब सवाल यह बनता है कि करोड़ों लोगों के किए जा रहे जबरन विस्थापन का दोषी कौन हैं? यहाँ लोग बसे बसाए घर छोड़ कर, अपनी जन्मभूमि को छोड़ने के लिए मजबूर क्यों हुए?

अलग-अलग रिपोर्टों के अनुसार प्राकृतिक आपदाओं, जैसे पाकिस्तान में आई बाड़, अफ्रीका में सूखे के कारण अकाल वाली स्थिति, भूचाल (इनके मानव संकट में तब्दील होने में भी शासक ही जिम्मेदार हैं) आदि और युद्ध हैं। लेकिन मुख्य कारण युद्ध हैं। एक वो युद्ध हैं, जो साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा दूसरे देशों पर थोपे गए हैं। दूसरे घरेलू युद्ध हैं, जिनमें देश के शासकों द्वारा ही देश के लोगों के खिलाफ जंग छेड़ी हुई है। बड़े स्तर पर साम्राज्यवादियों ने तबाही मचाई हुई है, करोड़ों लोगों के घर, शहरों के शहर तबाह किए गए और इन लोगों को अपने ही मुल्क में शरणार्थी बना दिया गया।

यहाँ हम कुछ देशों के उदाहरणों की मदद से समझने की कोशिश करेंगे कि कैसे मुनाफे की दौड़, गरीब देशों के बाजार पर कब्जे के लिए, दूसरे देशों के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने के लिए साम्राज्यवादी मुल्क युद्धों का सहारा लेते हैं और उत्पीड़न मेहनतकश जनता का होता है। साम्राज्यवादी मुल्क दूसरे देशों के केवल प्राकृतिक संसाधन ही नहीं हड़पते, बल्कि सस्ती श्रम-शक्ति हड़पते हैंय लोगों को गरीबी, भूखमरी, मौत के मुँह में धकेलते हैं। मुल्क के अंदर हुक्मरान मुल्क के लोगों को ही युद्धों में झोंक देते हैं, जहाँ वह पूँजीवादी हुक्मरान हैं, अपने आर्थिक, राजनीतिक हितों के कारण ही लोगों के विद्रोह को बंदूकों के जोर पर दबाने की कोशिश की जाती है। जैसे इथोपिया में टाईगरी इलाके में हो रहा है, जैसे भारत में कश्मीर, मणिपुर में हो रहा है।

म्यांमार, 1 फरवरी 2022 को फौज ने सत्ताधारी अमेरिका के समर्थक आंग सान सू की की सरकार का तख्ता पलटकर फौजी तानाशाही स्थापित की। तख्तापलट के बाद म्यांमार में टकराव ने अंदरूनी तौर पर लगभग 10 लाख लोग उजाड़ दिए हैं। इसमें से 70 हजार लोग पड़ोसी मुल्कों में चले गए हैं। म्यांमार फौज द्वारा सत्ता सँभालने के फैसले के पीछे चालक शक्ति म्यांमार का बढ़ रहा घरेलू आर्थिक और राजनीतिक संकट है। म्यांमार में मेहनतकशों के काम की हालत बुरी है। 2020 में उत्तर म्यांमार के इलाके काचिन राज्य में जेड पत्थरों की खदान में हादसे के दौरान 200 के करीब मजदूर मारे गए। इस हादसे ने म्यांमार की इस 31 अरब डॉलर की सबसे बड़ी पर पूरी तरह गैर-नियमित तौर पर चल रही लूट को सबके सामने ला दिया है। इस बेतहाशा लूट में सत्ताधारी आंग सान सू की की पार्टी से लेकर फौजी अफसर सब शामिल थे। दूसरी ओर फौज में यह भावना बढ़ रही थी कि आंग सान सू की आत्मनिर्भर हो रही है। जब मार्च 2020 में आंग सान ने संविधान में ऐसा संशोधन करना चाहा, जिसके द्वारा वह सदर बन सके, तो फौज ने अपनी ताकत को इस्तेमाल करके ऐसे किसी भी संशोधन को खारिज कर दिया। उसके बाद दोनों पक्षों के बीच आपसी तनातनी और तेज हो गई और इसका खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है। सैन्य तानाशाही ने आम लोगों का जीना हराम किया हुआ है।

इथोपिया, इथोपिया एक बहुराष्ट्रीय पूँजीवादी मुल्क है। प्रधानमंत्री अबी अहमद “एक होने के लिए साथ आने”, “राष्ट्रीय एकता” की बातें जोर-शोर से कर रहा है। इथोपिया की केंद्र सरकार द्वारा चलाई गई यह मुहिम असल में इस देश में राष्ट्रीय उत्पीड़न बढ़ाने, राष्ट्रों को कुछ हद तक मिली खुदमुख्तारी खत्म करने और सत्ता के केंद्रीकरण की मुहिम है। इससे यहाँ बस रहे अलग-अलग राष्ट्रों में बेचैनी बढ़ गई है, राष्ट्रीय अधिकारों के लिए संघर्ष और तेज हो गया है। इथोपिया की सरकार द्वारा अम्हारा, टाईगरे क्षेत्र के लोगों पर भयानक जुल्म किए गए हैं। स्कूल, अस्पताल, घर इस गृहयुद्ध के कारण तबाह हो गए। निर्दोष लोगों के सामूहिक कत्ल किए गए और औरतों के साथ युद्ध के हथियार के रूप में बड़े स्तर पर बलात्कार किए गए हैं। इथोपिया सरकार द्वारा युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में किसी भी तरह की मानवीय मदद, भोजन, दवाइयाँ आदि लेकर जाने पर भी नाकाबंदी की गई है। लोगों को जान-बूझकर भूख से मरने के लिए छोड़ दिया गया है।

कांगो, एक ऐसा देश जहाँ प्राकृतिक दौलत के अंबार हैं। खनिज पदार्थों के भंडार हैं। चाहे वह रबड़ हो, या यूरेनियम। अन्य देश कांगो के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने के लिए कांगो को हिंसा, युद्धों में झोंक देते हैं। कांगो पहले बेल्जियम का उपनिवेश था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1960 में स्वतंत्रता प्राप्त हुई। तब शोषणकारी शासकों ने साम्राज्यवादी देशों के साथ मिलकर कांगो की मेहनतकश जनता को गरीबी और हिंसा में झोंक दिया।

रूस-यूक्रेन युद्ध, रूस-यूक्रेन में युद्ध चलते हुए लगभग एक साल से ज्यादा हो गया है। इस युद्ध के कारण यूक्रेन के लोग अंदरूनी विस्थापन का सामना कर रहे हैं। दरअसल यह युद्ध दो साम्राज्यवादी देशों, रूस और अमेरिका की आपसी जंग है, जिसका अखाड़ा यूक्रेन बना हुआ है। कभी मध्य-पूर्व में, कभी लैटिन अमेरिका में, कभी अफ्रीका में और कभी एशियाई देशों में क्षेत्रीय युद्धों के रूप में, तो कभी एक-दूसरे पर आर्थिक प्रतिबंधों के रूप में यह टकराव सामने आता रहा है।

यह पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था ही संसार-भर की आम जनता के सभी दुख-तकलीफों की जड़ है। जब तक यह व्यवस्था मौजूद है, तब तक लोग विस्थापन, भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, युद्धों, शासकों के जुल्मों से निजात नहीं पा सकते। आज सिर से लेकर पाँव तक बेगुनाह लोगों के खून से लथपथ मौजूदा व्यवस्था को जड़ से उखाड़कर गिराने की जरूरत है।

(आलेख में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन की सहमति की जरूरत नहीं है।)

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